।। श्रीहरि:।।
[भज] निताई-गौर राधेश्याम [जप] हरेकृष्ण हरेराम
भक्त कालिदास पर प्रभु की परम कृपा
नैषां मतिस्ताव्दुरुक्रमाङघ्रिं
स्पृशत्य नर्थापगमो यदर्थ:
महीयसां पादरजोअभिषेकं
निष्किंचनानां न वृणीत यावत्॥
वैष्णव ग्रन्थों में ‘भक्त-पद-रज’, ‘भक्त-पादोदक’ और ‘भक्तोच्छिष्ट द्रव्य’ इन तीनों का अत्यधिक माहात्म्य वर्णन किया गया है। श्रद्धालु भक्तों ने इन तीनो को ही साधन बल बताया है। सचमुच जिन्हें इन तीनों वस्तुऔं में श्रद्धा हो गयी, जिनकी बुद्धि में से भक्तों के प्रति भेदभाव मिट गया, जो भगवत्स्वरूप समझकर सभी भक्तो की पदधूलि को श्रद्धा पूर्वक सिर पर चढ़ाने लगे तथा भक्तों के पादोदक को भक्ति से पान करने लगे, वे निहाल हो गये, उनके लिये भगवान फिर दूर नहीं रह जाते। उनकी पदधूलि की लालसा से भगवान उनके पीछे-पीछे घूमते रहते हैं, किन्तु इन तीनों में पूर्ण श्रद्धा होना ही तो महाकठिन है। महाप्रसाद, गोविन्द, भगवन्नाम और वैष्णवों के श्री विग्रह में पूर्ण विश्वास भगवत-कृपापात्र किसी विरले ही महापुरुष को होता है। यों दूध पीने वाले बनावटी मजनू तो बहुत से घूमते हैं। उनकी परीक्षा तो कटोरा भर खून माँगने पर ही हो सकती है। वे महापुरुष धन्य हैं, जो भक्तों की जाति-पाँति नहीं पूछते। भगवान में अनुराग रखने वाले सच्चे भगवत भक्त को वे ईश्वर तुल्य ही समझकर उनकी सेवा पूजा करते हैं। भक्त प्रवर श्री कालिदास ऐसे ही परम भागवत भक्तों में से एक जगद्वन्द्य श्रद्धालु भक्त थे। उनकी अद्वितीय भक्तिनिष्ठा सुनकर सभी को परम आश्चर्य होगा।
कालिदास जी जाति के कायस्थ थे। इनका घर श्रीरघुनाथदास जी के गाँव से कोस, डेढ़ कोस भेदा या भदुआ नामक ग्राम में था। जाति सम्बन्ध से वे रघुनाथदास जी के समीपी और सम्बन्धी थे। भगवन्नाम में इनकी अनन्य निष्ठा थी। उठते बैठते, सोते जागते, हँसते-खेलते तथा बातें करते करते भी सदा इनकी जिह्वा पर भगवन्नाम ही विराजमान रहता। हरे कृष्ण हरे राम बिना ये किसी बात को कहते ही नहीं थे।
भगवत-भक्तों के प्रति इनकी ऐसी अद्भुत निष्ठा थी कि जहाँ भी किसी भगवत भक्त का पता पाते वहीं दौड़े जाते और यथाशक्ति उनकी सेवा करते। भक्तों को अच्छे अच्छे पदार्थ खिलाने में उन्हें परमानन्द का अनुभव प्राप्त होता। भक्तों को जब ये श्रद्धा पूर्वक सुस्वादु पदार्थ खिलाते तो उनके दिव्य स्वादों का ये स्वयं भी अनुभव करते। स्वयं खाने से इन्हें इतनी प्रसन्नता नहीं होती, जितनी कि भक्तों को खिलाने से। भक्तों को खिलाकर ये स्वयं उनका उच्छिष्ट महाप्रसाद पाते, कोई कोई भक्त संकोचवश इन्हें अपना उच्छिष्ट नहीं देता तो से उसके बर्तनों को ही चाटते। उसी महाप्रसाद को पाकर ये अपने को कृतार्थ समझते। निरन्तर भगवन्नामों का जप करते रहना, भक्तों का पादोदक पान करना, उनकी पदधूलि को मस्तक पर चढ़ाना और उनके अच्छिष्ट महाप्रसाद को पूर्ण श्रद्धा के साथ पाना ही-ये इनके साधनबल थे।
इनके अतिरिक्त ये योग, यज्ञ, तप, पूजा, पाठ, अध्ययन और अभ्यास आदि कुछ भी नहीं करते थे। इनका विश्वास था कि हमें इन्हीं साधनों के द्वारा प्रभुपादपद्मों की प्रीति प्राप्त हो जायगी। ऐसा दृढ़ विश्वास था, इसमें बनावटी गन्ध तक भी नहीं थी। इनके गाँव ही एक झा नाम के भूमि माली जाति के शूद्र भगवत-भक्त थे। उनकी पत्नी भी अत्यन्त ही पतिपरायणा सती साध्वी नारी थी। दोनों की खूब भक्ति भाव से श्रीकृष्ण-कीर्तन किया करते थे। एक दिन भक्त कालिदास जी उन दोनों भक्त दम्पति के दर्शनों के निमित्त उनके घर पर गये। उन दिनों आमों की फसल थी, इसलिये वे उनकी भेंट के लिये बहुत बढ़िया बढ़िया सुन्दर आम ले गये थे। प्रतिष्ठित कुलोद भूत कालिदास को अपनी टूटी झोंपड़ी में आया देखकर उस भक्त दम्पति के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा। उन दोनों ने उठकर कालिदास जी की अथ्यर्थना की और उन्हें बैठने के लिये एक फटा सा आसन दिया।
कालिदास जी के सुख पूर्वक बैठ जाने पर कुछ लज्जित भाव से अत्यन्त की कृतज्ञता प्रकट करते हुए झाड़ू भक्त कहने लगे-‘महाराज ! आपने अपनी पदधूलि से इस शूद्राधम की कुटी को परम पावन बना दिया। आप-जैसे श्रेष्ठ पुरुषों का हम-जैसे नीच जाति के पुरुषों के यहाँ आना साक्षात भगवान के पधारने के समान है। हम एक जो वैसे ही शूद्र हैं दूसरे धनहीन हैं, फिर आपकी किस प्रकार सेवा करें। आप-जैसे अतिथि हमारे यहाँ काहे को आने लगे, हम आपका सत्कार किस वस्तु से करें। आज्ञा हो तो किसी ब्राह्मण के यहाँ से कोई वस्तु बनवा लावें।’
कालिदास जी ने कृतज्ञता प्रकट करते हुए कहा- ‘आप दोनों के शुभ दर्शनों से ही मेरा सर्वश्रेष्ठ सत्कार हो चुका। यदि आप कृपा करके कुछ करना ही चाहते हैं, तो यही कीजिये कि अपने चरणों को मेरे मस्तक पर रखकर उनकी पावन पराग से मेरे मस्तक को पवित्र बना दीजिये। यही मेरी आपसे प्रार्थना है, इसी के द्वारा मुझे सब कुछ मिल जायेगा।’
अत्यन्त ही दीनता के साथ गिड़गिड़ाते हुए झाड़ू भक्त ने कहा- ‘स्वामी ! आप यह कैसी भूली-भूली सी बातें कर रहे हैं। भला, हम जाति के शूद्र, धर्म कर्म से हीन, आपके शरीर को स्पर्श करने तक के भी अधिकारी तीे नहीं हैं, फिर हम आपको अपने पैर कैसे छुआ सकते हैं। हमारी यही आपसे प्रार्थना है कि ऐसी पाप चढ़ाने वाली बात फिर कभी भी अपने मुँह से न निकालें। इससे हमारें सर्वनाश होने की सम्भावना है।’
कालिदास जी ने कहा- ‘जो भगवान का भक्त है, उसकी कोई जाति नहीं होती। वह तो जातिबन्धनों से परे होता है। उससे श्रेष्ठ कोई नहीं होता, वही सबसे श्रेष्ठ होता है। इसलिये आप जाति-कुल का भेदभाव न करें। आप परम भागवत हैं, आपकी पदधूलि से मैं पावन हो जाऊँगा, आप मेरे ऊपर अवश्य कृपा करें।’
झाड़ू भक्त ने कहा- ‘मालिक ! आपकी इस बात को मैं मानता हूँ कि भगवद्भक्त वर्ण और आश्रमों से परे होता है। वह सबका गुरु और पूजनीय होता है, उससे बढ़कर कोई भी नहीं होता, किन्तु वह भक्त होना चाहिये। मैं अधम भला भक्तिभाव क्या जानूँ। मुझे तो भगवान में तनिक भी प्रीति नहीं। मैं तो संसारी गर्त में फँसा हुआ नीच विषयी पुरुष हूँ।’
कालिदास जी ने कहा- ‘सचमुच सच्चे भक्त तो आप ही हैं। जो अपने को भक्त मानकर सबसे अपनी पूजा कराता है, अपने भक्तिभाव का विज्ञापन बाँटता फिरता है, वह तो भक्त नहीं दुकानदार है, भक्ति के नाम पर पूजा प्रतिष्ठा खरीदने वाला बनिया है। सच्चा भक्त तो आपकी तरह सदा अमानी, अहंकार रहित, सदा दूसरों को मान प्रदान करने वाला होता है, उसे इस बात का स्वप्न में भी अभिमान नहीं होता कि मैं भक्त हूँ। यही तो उनकी महत्ता है। आप छिपे हुए सच्चे भगवद्भक्त हैं। हीन कुल में उत्पन्न होकर आपने बपने को छिपा रखा है, फिर भी ऐसी अलौकिक कस्तूरी है कि वह कितनी भी क्यों न छिपायी जाय, सच्चे पारखी तो उसे पहचान ही लेते हैं। कृपा करके अपनी चरण धूलि से मेरे अंग को पवित्र बना दीजिये।’
इस प्रकार कालिदास जी बहुत देर तक उनसे आग्रह करते रहे, किन्तु झाड़ू भक्त ने उसे स्वीकार नहीं किया। अन्त में वे दोनों पति पत्नी को श्रद्धापूर्वक प्रणाम करके उनसे विदा र्हुए झाड़ू भक्त शिष्टाचार के अनुसार उन्हें थोड़ी दूर घर से बाहर तक पहुँचाने के लिये उनके पीछे-पीछे आये। जब कालिदास जी ने उनसे आग्रह पूर्वक लौट जाने को कहा तो वे लौट गये। कालिदास जी वहीं खड़े रहे। झाड़ू भक्त जब अपनी कुटिया में घुस गये तब जिस स्थान पर उनके चरण पड़े थे, उस स्थान की धूलि को उठाकर उन्होंने अपने सम्पूर्ण शरीर पर लगाया और एक ओर घर के बाहर छिप कर बैठ गये। रात्रि का समय था। झाड़ू भक्त की स्त्री ने अपने पति से कहा- ‘कालिदास जी ये प्रसादी आम दे गये हैं, इन्हें भगवत-अर्पण करके पा लो। भक्त का दिया हुआ प्रसाद है- इसके पाने से कोटि जन्मों के पाप कटते हैं।’
झाडू भक्त ने उल्लास के साथ कहा- ‘हाँ, हाँ, उन आमों को अवश्य लाओ। उनके पाने से तो श्रीकृष्ण प्रेम की प्राप्ति होगी।
पति की आज्ञा पाते ही पतिपरायणा पत्नी उन आमों की टोकरी को उठा लायी। झाड़ू ने मन से आमों का भगवत अर्पण किया और फिर उन्हें प्रसाद समझकर पाने लगे। उनके चूस लेने पर जो बचता उसे उनकी पतिव्रता स्त्री चूसती जाती और गुठली तािा छिलकों को बाहर की ओर फेंकती जाती। पीछे छिपे हुए कालिदास जी उन गुठलियों को उठा उठाकर चूसते और उनमें वे अमृत के समान स्वाद का अनुभव करतें इस प्रकार भक्तों के अच्छिष्ट प्रसाद को पाकर अपने को कृतार्थ समझकर वे बहुत रात्रि बीते अपने घर आये।
इस प्रकार की इनकी भक्तों के प्रति अनन्य श्रद्धा थी। एक बार गौड़ीय भक्तों के साथ वे भी नीलाचंल में प्रभु के दर्शन के लिये पधारे। इनके ऐसे भक्ति भाव की बातें सुनकर प्रभु इनसे अत्यणिक सन्तुष्ट हुए ओर इन्हें बड़े ही सम्मान के साथ अपने पास रखा।
महाप्रभु जब जगन्नाथ जी के मन्दिर में दर्शनों के लिये जाते, तब सिंहासन के समीप वे एक गड़ढे में पैर धोया करते थे। गोविन्द उनके साथ ही जाता था। प्रभु ने कठोर आज्ञा दे रखी थी कि यहाँ हमारे पादोदक को कोई भी पान न करे इसलिये वहाँ जाकर प्रभु के पादोदक पान करने का साहस किसी को भी नहीं होता था। किन्तु भक्तों का पादोदक और भक्तभुक्त अन्न ही जिनके साधन का एकमात्र बल है, वे कालिदास जी भला कब मानने वाले थे। वे निर्भीक होकर प्रभु के समीप चले गये और उनके पैर धोये हुए जल को पीने लगे। एक चुल्लू पीया, प्रभु चुपचाप उनके मुख की ओर देखते रहे। दूसरा चुल्लू पीया, प्रभु थोड़े से मुसकराये, तीसरा चुल्लू पीया, प्रभु जोरों से हँस पड़े। चौथे चुल्लू के लिये ज्यों ही उन्होंने हाथ बढ़ाया त्यों ही प्रभु ने उनका हाथ पकड़ लिया और कहने लगे- ‘बस, बहुत हुआ। अब फिर कभी ऐसा न करना।’
इस प्रकार अपने को बड़भागी समझते हुए कालिदास जी जगन्नाथ जी के दर्शन करते हुए प्रभु के साथ-ही-साथ अपने निवास स्थान पर आये। महाप्रभु ने भिक्षा पायी और भिक्षा पाने के अनन्तर संकेत से गोविन्द को आज्ञा दे दी कि कालिदास जी को हमारा उच्छिष्ट प्रसाद दे दो। प्रभु का संकेत समझकर गोविन्द ने कालिदास जी को प्रभु का उच्छिष्ट महाप्रसाद दे दिया। पादोदक के अनन्तर प्रभु के अधरामृत सिंचित उच्छिष्ठ प्रसाद को पाकर उनकी प्रसन्नता का वारावार नहीं रहा। धन्य है ऐसे भक्तिभाव को और धन्य है उनके ऐसे देवदुर्लभ सौभाग्य को, जिनके लिये महाप्रभु ने स्वयं उच्छिष्ट प्रसाद देने की आज्ञा प्रदान की।
क्रमशः अगला पोस्ट [159]
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[ गीताप्रेस,गोरखपुर द्वारा प्रकाशित श्री प्रभुदत्त ब्रह्मचारी कृत पुस्तक श्रीचैतन्य-चरितावली से ]
, Shri Hari:. [Bhaj] Nitai-Gaur Radheshyam [Chant] Harekrishna Hareram God’s supreme grace on devotee Kalidas
Their minds are not so difficult to follow touching north approach which means: The anointing of the feet of the great Unless he asks for the poor.
In Vaishnava texts, ‘Bhakta-Pada-Raj’, ‘Bhakta-Padodak’ and ‘Bhaktochishta Dravya’, these three have been described in great importance. Devotees have called all these three as means. Truly, those who have faith in these three things, who have removed the discrimination against the devotees from their intellect, who considering themselves to be God, start putting the dust of the feet of all the devotees on their head with devotion and start drinking the padodak of the devotees with devotion, they become blissful. God does not remain far away for them. With the longing for the dust of their feet, God keeps following them, but it is very difficult to have complete faith in these three. Only a rare great man who has complete faith in Mahaprasad, Govinda, Bhagavannaam and Sri Vigraha of Vaishnavas is blessed by God. There are many fake Majnu who drink milk like this. His test can be done only on asking for a bowlful of blood. Blessed are those great men, who do not ask the caste-caste of the devotees. They consider the true devotee of God who has affection for God as equal to God and worship him. Bhakta Pravar Shri Kalidas was one of such supreme devotees of the world. Everyone will be surprised to hear his unique devotion.
Kalidasa was a Kayastha of caste. His house was in a village called Bheda or Bhadua, a kilometer and a half from the village of Sri Raghunathdas Ji. He was close and related to Raghunathdas Ji by caste. He had exclusive devotion to the name of God. When they got up, sat down, slept, woke up, laughed, played and talked, the name of God always remained on their tongue. Without Hare Krishna Hare Ram, they would not say anything.
He had such amazing loyalty towards Bhagwat-devotees that wherever he found the address of any Bhagwat devotee, he used to run there and serve him as much as he could. He would have experienced ecstasy in feeding good things to the devotees. When he devotedly fed delicious food to the devotees, he himself would have experienced their divine taste. He does not get as much pleasure from eating himself as from feeding the devotees. After feeding the devotees, they themselves would get their leftover Mahaprasad, if some devotee did not hesitate to give them their leftovers, then they would have licked their utensils. By getting the same Mahaprasad, they consider themselves to be grateful. Continuously chanting the names of the Lord, drinking the padodak of the devotees, applying the dust of their feet on the head and getting their desired Mahaprasad with full devotion – these were their means.
Apart from these, they did not do yoga, yagya, penance, worship, recitation, study and practice etc. They believed that we would get the love of Prabhupadpadma through these means only. Such was the conviction that it didn’t even smell artificial. His village was a Shudra Bhagwat-devotee of a Bhumi Mali caste named Jha. His wife was also a very devoted Sati Sadhvi woman. Both of them used to do Shri Krishna-Kirtan with great devotion. One day devotee Kalidas ji went to the house of both those devotees to see the couple. Those days there was a mango crop, so they had taken very nice beautiful mangoes for their gift. Seeing the revered Kulod ghost Kalidas coming to their dilapidated hut, the devotee couple knew no bounds to their surprise. Both of them got up and prayed to Kalidas ji and gave him a torn seat to sit on.
After Kalidas ji sat down happily, with a feeling of shame, expressing utmost gratitude, the broom devotees started saying – ‘ Maharaj! With the dust of your feet, you have made this Shudradham’s cottage the most sacred. The coming of superior men like you to low caste men like us is like the presence of God in person. One of us is a Shudra and the other is penniless, then how can we serve you. Why did guests like you come to our place, with what should we welcome you. If you are allowed, get something made from a Brahmin’s place.’
Expressing his gratitude, Kalidas ji said- ‘I have been honored by the auspicious sight of both of you. If you kindly want to do something, then do this by keeping your feet on my head and make my head pure with their holy pollen. This is my request to you, through this I will get everything.
Pleading with utmost humility, the broom devotee said – ‘Swami! What kind of nonsense are you talking about. Well, we caste shudras, inferior to religious deeds, do not even have the right to touch your body, then how can we touch you with our feet. It is our request to you that never again should you utter such sinful words from your mouth. There is a possibility of our annihilation due to this.
Kalidas ji said- ‘ The one who is a devotee of God, does not have any caste. He is beyond caste restrictions. No one is better than him, he is the best. That’s why you should not discriminate between castes and clans. You are the Supreme God, I will become pure by the dust of your feet, you must bless me.
The broom devotee said – ‘Master! I agree with your statement that a devotee of the Lord transcends caste and creed. He is everyone’s teacher and worshipable, no one is greater than him, but he should be a devotee. What can I know of poor devotion. I don’t have even the slightest love for God. I am a lowly sensual man trapped in the worldly pit.’
Kalidas ji said – ‘ Really you are the true devotee. The one who makes everyone worship him by considering himself as a devotee, goes around distributing the advertisement of his devotion, he is not a devotee, he is a shopkeeper, a tradesman who buys worship and reputation in the name of devotion. A true devotee, like you, is always selfless, egoless, always giving respect to others, he does not feel proud even in his dreams that he is a devotee. This is their importance. You are a hidden true devotee of the Lord. Being born in an inferior clan, you have hidden your birth, yet there is such a supernatural musk that no matter how much it is hidden, true connoisseurs definitely recognize it. Please purify my body with the dust of your feet.’
In this way, Kalidas ji kept urging him for a long time, but the broom devotee did not accept him. In the end, both the husband and wife bowed down with devotion and bid farewell to them, according to the etiquette of the devotees, they followed them to take them out of the house a little distance. When Kalidas ji urged him to return, he returned. Kalidas ji stood there. When the broom devotee entered his cottage, he picked up the dust of the place where his feet had fallen and applied it on his whole body and sat hiding outside the house on one side. It was night. The wife of the broom devotee said to her husband- ‘Kalidas ji has given these Prasadi mangoes, get them by offering them to Bhagwat. It is the prasad given by the devotee – the sins of crores of births are cut off by getting it.
Broom devotee said with glee – ‘ Yes, yes, do bring those mangoes. By getting them, you will get the love of Shri Krishna.
As soon as she got her husband’s permission, the devoted wife brought the basket of mangoes. The broom offered mangoes to Bhagwat from the heart and then started getting them considering them as Prasad. Whatever was left after they were sucked, their chaste wife used to suck and throw the kernels and fresh peels outside. Kalidas ji, who was hiding behind, picked up those kernels and sucked them and he felt the taste like nectar in them. In this way, considering himself to be grateful after getting the best offerings of the devotees, he came to his home after spending many nights.
Such was his unique devotion towards his devotees. Once he along with Gaudiya devotees also came to Neelachal to see the Lord. Hearing his words of such devotion, the Lord was extremely satisfied with him and kept him with him with great respect.
When Mahaprabhu used to go to the temple of Jagannathji for darshan, he used to wash his feet in a pit near the throne. Govind used to go with him. The Lord had given a strict order that no one should drink our Padodak here, so no one had the courage to go there and drink the Padodak of the Lord. But when was Kalidas ji going to accept the food of the devotees and the devotees whose only means is food. They fearlessly went near the Lord and started drinking the water that had washed His feet. Drank a chullu, Prabhu silently kept looking at his face. Took the second chullu, Prabhu smiled a little, drank the third chullu, Prabhu laughed out loud. As soon as he extended his hand for the fourth cup, the Lord held his hand and said – ‘Enough is enough. Never do this again.’
In this way, considering himself to be fortunate, Kalidas ji came to his abode along with the Lord while having darshan of Jagannath ji. Mahaprabhu got the alms and ordered Govind to give our leftover prasad to Kalidas ji with the eternal sign of getting the alms. Understanding the sign of the Lord, Govind gave the leftover Mahaprasad of the Lord to Kalidas ji. His happiness knew no bounds after getting the Uchchishtha Prasad, irrigated with Adharamrit of the Lord after Padodak. Blessed is such devotion and blessed is his godly fortune, for whom Mahaprabhu himself ordered to give the best prasad.
respectively next post [159] , [From the book Sri Chaitanya-Charitavali by Sri Prabhudatta Brahmachari, published by Geetapress, Gorakhpur]