राधे राधे
कृष्ण कन्हैया की वंशी का स्वर केवल गोपियों को ही क्यों सुनाई देता था। ब्रज में गोप-ग्वाल नंदबाबा यशोदा सभी निवास करते थे, उन्हें कभी वेणु नाद सुनाई नहीं दिया। यह कैसे संभव है? क्या कारण था कि श्री कृष्ण को इतना अधिक प्रेम करने के उपरांत भी प्रभु की भुवनमोहनी बाँसुरी के सम्मोहन से गोपवृन्द नंदबाबा यशोदा अछूते रह गये।
बाँसुरी साँस के द्वारा बजती है, प्राणों से बजाई जाती है।आत्मा प्रभु की प्रेयसी है, उस पर प्रभु के अतिरिक्त अन्य किसी का अधिकार कैसे हो सकता है।ग्वाल बाल, गोपवृन्द को कोई सुन्दर वस्तु दृष्टिगत होती तो उनका दृष्टि कन्हैया पर से हट जाती, किन्तु गोपियों की दृष्टि तो नंदनंदन से हटती ही नहीं थी। ग्वाल बाल, गोपवृन्द का श्री कृष्ण के लिये सखा भाव था,नंदबाबा यशोदा मैया का वात्सल्य भाव था और गोपियाँ प्रभु को कांत भाव से भजतीं थीं।
गोपियों का अपना कुछ भी नहीं था, ‘स्वसुख’ की कोई कामना नही। स्वाँस-स्वाँस में प्रिय सुख अभिलाषा, ‘तत्सुख’ के लिये प्राणों को भी त्याग दें। आत्मा और परमात्मा का सम्बन्ध स्थापित हो गया था। बाँसुरी प्राण वाद्य है, हृदय के सर्वोत्तम भावों को, विरह को व्यक्त करने के लिये इससे बढ़कर कोई अन्य वाद्य नहीं। कृष्ण कन्हैया की बाँसुरी बजती है-अर्थात बाँसुरी बजने का तात्पर्य कि नंदनंदन व्याकुल होकर पुकार रहे हैं अपने प्रेमी को, अपने अंशी को।
“श्री कृष्ण अपनी बाँसुरी पर गोपाँगनाओं के मन को हरने वाली काम-बीज मंत्र ‘क्लीं’ का सप्तम स्वर छेड़ते थे और बाँसुरी एक एक गोपी का नाम ले लेकर ललिते विशाखे वृषभानुजे पुकारती थी”- अब भला इस पुकार को ब्रज ललनायें कैसे न सुने? गोपियों के चित्त-वृत्ति एक क्षण के लिये भी श्री कृष्ण से विमुख होती ही नहीं थी, इसी कारण वह उसी क्षण बाँसुरी की पुकार, वेणु नाद सुन लेती थीं।
अपने प्रियतम से मधुरातिमधुर मिलन की आकांक्षा तो उनके हृदय में जन्म-जन्मांतर से थी। जब दोनों ही ओर से ऐसे प्रेमी हों, दोनों में ही “तत्सुखसुखित्वा” की भावना हो,हृदय से हृदय के तार जुड़े हों। पृथक देह-धारण केवल लीला के लिये ही हो। कृष्ण कन्हैया अपनी बाँसुरी में अपने प्राण भर कर पुकारें,तब गोपियाँ की हृदयतंत्री के तार कैसे न झनझनायें? कैसे संभव है?
3 Responses
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