श्री वृन्दावन बांकेबिहारी जी की सेवा पद्धति
एवं वार्षिक उत्सव

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बिहारी जी की सेवा प्रणाली में अन्य मन्दिरों की पूजा सेवा से कुछ विशेषताएं हैं। बिहारी जी के साथ राधिका जी की मूर्ति नहीं है। उनकी केवल भावना की सेवा होती है। बिहारी जी के वामांग में एक गद्दी पर राधिकाजी के नाम से अंकित एक शिला है जिसे श्री राधा की भावना से सब श्रृंगार धारण कराया जाता है।

बिहारी जी सदा नित्य निकुंज बिहार में रत हैं अतः सम्पूर्ण सेवाप्रणाली इसी भावना से ओतप्रोत है। और ठाकुरों की तरह वे शीघ्र नहीं उठते । यह माना जाता है कि वे रात्रि में निधिवन में बिहार के लिए चले जाते हैं, अतः उन्हें पर्याप्त दिन बढ़े लगभग आठ बजे जगाया जाता है। फिर उन्हें स्नान तथा शृंगार कराते हैं।

शृंगार में मुख्य भावना यह रहती है कि इस स्वरूप में प्रिया-प्रियतम दोनों का स्वरूप सम्मिलित है। अतः स्त्री पुरुष दोनों प्रकार का मिला-जुला शृंगार विहारी जी धारण करते हैं। उनके माथे पर चन्दन की बिन्दी इसी भाव से लगायी जाती है कि यह श्री राधा के लिए है। श्रृंगार में सिर पेच और पाग, चोटी और नकबेसर, नूपुर और क्षुद्रघण्टिका आदि सभी प्रकार के आभूषण धारण कराये जाते हैं।

वर्तमान मन्दिर से पूर्व इसी जगह बने मंदिर मैं बिहारी जी बिराजते थें
गोस्वामी वंश के कवि श्री ‘बैनदास’ हुए, संवत 1876 में रचित एक खण्डित पोथी (नागरी प्रचारिणी सभा, काशी, संग्रह सं० 561में बिहारी जी के एक नये मन्दिर के सम्बन्ध में एक पद मिलता है :-

“सखी सुनि कुंजबिहारी प्रघट भये,जेठ सुकला पूरनमासी, भगतन दरस दये । आनन्द मंगल भयो भोर ते मंद्र नवीन ठये । सेवक चन्दन चन्द्र पुनीत मन तिन हित आय छये।

दास चैन अजवन ते टेरे सेवा माझ नये ॥ इस पद से ज्ञात होता है कि बैनदास के समय में बिहारी जी का एक नवीन मन्दिर बना जिसे किसी चन्दन चन्द नामक व्यक्ति ने बनवाया था। वर्तमान मन्दिर के पहले इसी स्थान पर जो मन्दिर
था,यह उल्लेख उसी मन्दिर के सम्बन्ध में है।

शृंगार समय का भोग आता है और तब दर्शनार्थियों के लिए झांकी होती है। झाँकी की विशेषता यह है कि पुजारी परदे को बन्द करते और खोलते रहते हैं. जिससे अधिक समय तक टकटकी लगाकर कोई बिहारी जी को न देखे । इसके दो कारण कहे जाते हैं।

एक तो यह कि कहीं सुकुमार एवं सलीने बिहारीलाल को नजर न लग जाय,दूसरे यह कथा कही जाती है कि किसी भक्त का पहले निरन्तर दर्शन करते-करते तदाकार वृत्ति हो जाने के कारण समाधि में देहान्त हो गया था,अतः झांकी की यह प्रथा बढी,थोड़ी देर बाद शृंगार को आरती होती है,और फिर लगभग 12बजे राजभोग आता है।

इस समय आधे घण्टे पट बन्द रहते हैं, और बाहर बिहार के पद गाये जाते हैं। बिहार के पदों के गान का भाव यह है कि नित्य-विहारी का आहार भी बिहार ही है और कुछ नहीं। पट खुलने पर कुछ देर झांकी होती है, फिर राजभोग की आरती होती है तथा पट बन्द होकर शयन कराया जाता है । पद-गायन के साथ न किसी प्रकार का वाद्य बजता है न आरती के साथ घंटा आदि ।

सायंकाल साढ़े पांच बजे फिर उत्थापन होता है। शृंगार होता है और फिर कुछ समय के लिये झांकियां खुलती है। लगभग 9 बजे शयन का भोग आता है। भोग के बाद शयन की आरती होती है,तथा तब शयन करा दिया जाता है। इस प्रकार केवल तीन समय सेवा की जाती है,जिससे लाड़िली लाल के नित्य-विहार में अधिक विक्षेप न हो सस्वामी जी का एक चित्र भी मन्दिर के भीतर पूजा में रहता है।

श्री बांकेबिहारी जी के उत्सव भी बहुत अधिक नहीं होते । श्रावण शुक्ला तृतीया (हरियाली तीज) को बिहारीजी बाहर हिडोले में झूलते हैं। यह एक बहुत विशाल सोने का हिंडोला है। इस मन्दिर में झूला केवल इसी दिन पड़ता है। भाद्रपद कृष्ण अष्टमी (श्रीकृष्ण जन्माष्टमी) को रात को भी दर्शन होते हैं तथा जन्म का तथा

प्रातःकाल नन्दोत्सव का विशेष आयोजन होता है। भाद्रपद शुक्ला अष्टमी स्वामी हरिदास जी का जन्मदिन है। इस दिन प्रातः मन्दिर में नौबत बजती है। श्रृंगार में बिहारी जी को पीली पोशाक धारण करते हैं।

लगभग 3बजे दोपहर को केवल इसी दिन मन्दिर में रासलीला होती है। रासलीला का विषय होता है ‘वेणी गूथन’। इस लीला में विशेष रीति से स्वामी हरिदासजी का
वेणी कहा कोउ जान मेरी सी तेरी सौं।’ पद गाया जाता है। लगभग 6 बजे सायं यहाँ से ‘चाव की सवारी’ निकलती है जो निधिवन में स्वामी हरिदासजी की समाधि तक जाती है। इस जलूस में हाथी पर रामधारियों के स्वरूप होते हैं तथा पीछे-पीछे गोस्वामी लोग-

“रसिक नहि प्रगटें जो हरिदास ।
तो अनन्य पथ जुगल उपासन को करती परकास ।।’
यह पद गाते हुए जाते हैं।
शरत्पूर्णिमा को सायंकाल श्वेत पोशाक तथा ऊपर से कटि काछनी (रास की एक विशेष पोशाक) धारण कर विहारी जी जगमोहन में विराजते हैं। मार्गशीर्ष शुक्ला पंचमी को बिहारी जो के प्राकट्य का दिन है। इस पंचमी को विहार-पंचमी भी कहते हैं । इस दिन मन्दिर फूलों के झाड़, केले के खम्भे एवं बन्दनवारों से सजाया जाता है। बिहारी जी को पंचामृत से स्नान करते हैं, तथा पीली पोशाक धारण करते हैं।

निधिवन में बिहारी जी के प्राकट्य स्थल की भी सजावट तथा पूजा होती है। वसन्त पंचमी से फाग खेलने के भाव से गुलाल फेंकना प्रारम्भ होता है,तथा फाल्गुण शुक्ला एकादशी से पाँच दिन रंग की होली होती है,चैत्र कृष्णा प्रतिपदा को डोलोत्सव होता है।

अक्षय तृतीया (वैशाख शुक्ला ३) के दिन दर्शनार्थियों की भारी भीड़ दूर-दूर से आती है। कारण, केवल इसी दिन बिहारी जी के चरणों का दर्शन होता है। इस दिन चन्दन बागा’ (चन्दन में लिपटी एक चोली, केवल एक धोती और बहुत थोड़ा श्रृंगार ) धारण कराया जाता है। ग्रीष्म में सायंकाल फूलों का बंगला बनता है तथा फूलों का शृंगार धारण कराया जाता है। फूलों को कलात्मक सजावट इस मन्दिर की विशेषता है।

बांके बिहारी लाल की जय हो
आचार्य विष्णु महाराज
[बलभद्र पीठाधीश्वर]

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