प्रेम तत्व

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श्री राधा


कितना सुंदर भाव है प्रेम ॥संसार में प्रेम को सर्वाधिक मधुर भावना माना जाता है ॥ जबकी संसार जिस प्रेम को जानता मानता अनुभव करता वह वास्तविक प्रेम है ही नहीं , वह केवल और केवल काम है ॥

संभवतः कुछ लोगो को यह अनुचित लगे परंतु जब तक वास्तविक प्रेम की प्राप्ति नहीं होती यह काम ही परम प्रेम प्रतीत होता है इसमें किसी का कोई दोष नहीं ॥

क्योंकि वास्तविक प्रेम तो जिनकी वस्तु है बिना उनके अनुग्रह के प्राप्त नहीं होती ॥।सोचिये जब निज स्वार्थ स्वरूप काम संसार में इतना मधुर अनुभव होता है कि उसमें डूबे व्यक्ति को संसार की चिन्ता नहीं रहती तो वास्तविक सार स्वरूप दिव्य प्रेम कैसा होता होगा ॥

संसार में किसी के रूप गुण कला या किसी भी अन्य हेतु से आकर्षित होकर उसे प्राप्त करने तथा निज सुखार्थ सदैव समीप रखने की इच्छा को प्रेम जाना जाता है ।

संसार में प्रेम (काम) की परिणिति भोग है ॥काम की अर्थात् निज सुख भोग की बडी तुच्छ सी सीमा है अतः तनिक से भोग से ही जीव संतुष्ट हो जाता है । उस भोग में भी  प्राप्त होने वाला आनन्द उसी परम आनन्द सिंधु के आनन्द के सीकर का अणु मात्र ही होता है । खैर यह दूसरा विषय है ॥

वास्तविक प्रेम या दिव्य प्रेम तो सर्वथा भिन्न वस्तु है । यहाँ प्रेमास्पद  को पाने भोगने सदा समीप रख सुख पाने की इच्छा की गंध भी नहीं होती । यहाँ तो केवल प्रेमास्पद को सुखी करने का चाव होता है ॥

वास्तविक प्रेम किससे होता है हमारा वास्तविक प्रेमास्पद है कौन । वह है हमारी अपनी आत्मा । हम केवल स्वयं  से ही प्रेम करते हैं कर सकते हैं ॥ यह बडी गूढ़ बात है पर गहराई से मनन करने पर प्रकाशित हो सकती है ॥हमारी आत्मा है कौन ॥ हम कह सकते हैं कि हमारी आत्मा तो हमारे भीतर है परंतु नहीं जो आपके भीतर वह आपकी आत्मा नहीं वरन स्वयं आप ही हैं  ॥ तो यह भेद कैसा ॥ 

क्योंकि आप स्वयं को देह मानते हैं अर्थात् देह हुये आप और भीतर हुयी आपकी आत्मा जबकी यह सत्य नहीं  । माया के कारण देहाध्यास के कारण ही यह भेद प्रतीत होता केवल ।

आप केवल  आत्म स्वरूप ही हैं और इसी कारण स्वयं को सुख देने हेतु समस्त जीवन विलास आपका ॥ परंतु यह भी परम सत्य नहीं है ॥आत्मा अर्थात् मैं तो मेरी आत्मा कौन ??हां बस यही जानना है यही समझना है । सारा ज्ञान सारा प्रेम इसी पर निर्भर है ॥

हमारी आत्मा वहीं हैं जिन्होंने गीता में स्वयं इसका उदघोषक किया है ” अहं सर्वभूतात्मा “॥ हां वहीं हमारे एकमात्र परम प्रेमास्पद श्रीकृष्ण ॥। ज्ञानी को ज्ञान से यह तत्व बोध होता है कि श्री भगवान् ही उसकी परम आत्मा अर्थात् आत्मस्वरूप हैं और वह उस निज आत्म स्वरूप में लीन हो कैवल्य लाभ करता है ॥ यही तत्व प्रेमी भी अनुभव करता है कि श्रीकृष्ण ही उसकी आत्मा हैं परंतु यह अनुभूति ज्ञानजनित नहीं वरन गहन प्रेम के कारण होती है ॥सत्य एक ही है केवल जानने के मार्ग दो हैं । न केवल मार्ग दो हैं वरन जानने के पश्चात होने वाली उपलब्धि भी भिन्न हैं ।

प्रेम का स्वरूप निज आत्म को सुख देना लेकिन आत्म वह स्वयं नहीं वरन श्यामसुन्दर हैं तो अब सारी क्रियाओं से केवल उन्हे ही सुख देना । यही स्वभाव होता प्रेमी का ॥

उस परम प्रियतम को नित्य निरन्तर सुखदान की लालसा ही प्राणों का स्वरूप हो जाती है ॥और उनके सुख से स्वतः ही प्रेमी की परम सुख प्राप्त होता जाता ॥ काम में स्वयं को सुख देना जबकी प्रेम में अपने परम आत्म श्रीश्यामसुन्दर को सुख देना ॥ संसार में हम विभिन्न संबधों के माध्यम से स्वयं को ही सुखी करने हेतु तत्पर वही स्वभाव हमारा जो मायाजनित है परंतु दिव्य प्रेम राज्य में विभिन्न संबधों से केवल श्यामसुन्दर के सुख का ही विधान होता ॥ यही दिव्य प्रेम राज्य श्री ब्रज मंडल है जोदिव्य  प्रेम की अधिष्ठात्री श्री राधिका जू को निज स्थान है ॥

श्रीब्रज के अतरिक्त यह दिव्य प्रेम कहीं अन्यत्र नहीं है और जिस हृदय में यह प्रेम जागृत है उसे ब्रज मंडल का ही अंश तथा उस परम सौभाग्यशाली को ब्रजवासी ही जानिये ॥ वह स्थूल देह से कहाँ  वास करता इससे  कोई प्रयोजन नहीं प्रेम का ॥
प्रेम से कहिये जय जय श्री राधे

|| श्री हरि: ||



Shree Radha

Love is such a beautiful feeling. Love is considered the sweetest feeling in the world. Whereas the love that the world knows, believes and experiences is not real love at all, it is only and only work.

Maybe some people find it unfair, but until real love is not achieved, this work seems to be the ultimate love, there is no fault of anyone in it.

Because real love is not achieved without the grace of the one whose object it is. Think when the work in the form of selfishness is so sweet in the world that the person immersed in it does not have to worry about the world, then what would be the real essence of divine love.

Being attracted by someone’s appearance, qualities, art or any other purpose in the world, the desire to get him and to keep him near for his own happiness is known as love.

The culmination of love (work) in the world is enjoyment. There is a very small limit of work, that is, enjoyment of one’s own happiness, therefore, the creature becomes satisfied with only a little bit of enjoyment. The joy that is obtained even in that enjoyment is only a molecule of the seeker of the joy of the same supreme joy Sindhu. Well this is another topic.

Real love or divine love is a completely different thing. Here, there is no smell of the desire to get the lover, to enjoy, to keep him always near and to get happiness. Here there is only the desire to make the lover happy.

Who is the real love, who is our real lover. That is our own soul. We can only love ourselves. This is a very mysterious thing, but it can be revealed after thinking deeply. Who is our soul? We can say that our soul is within us but no, what is within you is not your soul but you yourself. So what is this difference?

Because you consider yourself as a body, that is, you are the body and your soul is inside, whereas this is not true. Because of illusion, this difference seems to be only because of the meditation of the body.

You are only self-form and that is why the whole life is your luxury to give happiness to yourself. But this is also not the ultimate truth. The soul means who is my soul? All knowledge, all love depends on it.

Our soul is there who himself has declared it in the Gita as “Aham Sarvabhutatma”. Yes, there our only supreme lover Shri Krishna ॥ The wise person understands the essence of knowledge that Shri Bhagwan is his supreme soul i.e. self-form and he gets Kaivalya benefit by getting absorbed in that self-form. The same element lover also feels that Shri Krishna is his soul, but this feeling is not due to knowledge, but due to deep love. There is only one truth, only there are two ways to know it. Not only are there two ways, but the achievements after knowing are also different.

The form of love is to give pleasure to one’s own soul, but the soul is not the self, but Shyamsundar, so now, with all actions, only give happiness to him. This is the nature of a lover.

The longing for continuous happiness to that most beloved becomes the form of life. And by their happiness automatically the ultimate happiness of the lover is attained. To give pleasure to oneself in work, while in love to give pleasure to one’s supreme self, Shree Shyamsundar. In the world, we are ready to make ourselves happy through various relations, the same nature of ours which is created by illusion, but in the kingdom of divine love, only Shyamsundar’s happiness is regulated by various relations. This is the kingdom of divine love, Shri Braj Mandal, which is the personal abode of Shri Radhika Joo, the presiding deity of divine love.

This divine love is not anywhere else except Shri Braj and the heart in which this love is awakened, know him to be a part of Braj Mandal and that most fortunate person to be a Braj resident only. There is no use of love because of where he resides with the gross body. Say with love Jai Jai Shri Radhe

, Sri Hari: ||

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