माता पार्वती भगवान शंकर से पूछती हैं-
प्रभु जे मुनि परमारथबादी।
कहहिं राम कहुँ ब्रह्म अनादी।।
सेस सारदा बेद पुराना।
सकल करहिं रघुपति गुन गाना।।
अर्थ-
हे प्रभो! जो परमार्थतत्व (ब्रह्म) के ज्ञाता और वक्ता मुनि हैं, वे श्री रामचन्द्रजी को अनादि ब्रह्म कहते हैं और शेष, सरस्वती, वेद और पुराण सभी श्री रघुनाथजी का गुण गाते हैं।
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
सादर जपहु अनँग आराती।।
रामु सो अवध नृपति सुत सोई।
की अज अगुन अलखगति कोई।।
अर्थ-
और हे कामदेव के शत्रु! आप भी दिन-रात आदरपूर्वक राम-राम जपा करते हैं- ये राम वही अयोध्या के राजा के पुत्र हैं? या अजन्मे, निर्गुण और अगोचर कोई और राम हैं ?
त्रिलोकी में यदि श्रीराम का कोई सबसे बड़ा भक्त या उपासक है तो वे हैं भगवान शिव जो ‘राम-नाम’ महामन्त्र का निरन्तर जप करते रहते हैं।
रामायण के सबसे प्राचीन आचार्य भगवान शिव ही हैं। उन्होंने राम-चरित्र का वर्णन सौ करोड़ श्लोकों में किया। शिवजी ने देवता, दैत्य और ऋषि-मुनियों में इन श्लोकों का समान बंटबारा किया तो हर एक के हिस्से में तैंतीस करोड़, तैंतीस लाख, तैंतीस हजार, तीन सौ तैंतीस श्लोक आए। एक श्लोक शेष बचा। देवता, दैत्य और ऋषि- ये तीनों एक श्लोक के लिए लड़ने-झगड़ने लगे। यह श्लोक बत्तीस अक्षर वाले अनुष्टुप छन्द में था। शिवजी ने देवता, दैत्य और ऋषि-मुनियों- प्रत्येक को दस-दस अक्षर दे दिए। तीस अक्षर बंट गए और दो अक्षर शेष रह गए। तब भगवान शिव ने देवता, दैत्य और ऋषियों से कहा-
‘ये दो अक्षर मैं किसी को भी नहीं दूंगा। इन्हें मैं अपने कण्ठ में रखूंगा।’
ये दो अक्षर ‘रा’ और ‘म’ अर्थात् ‘राम-नाम’ हैं। यह ‘राम-नाम’ रूपी अमर-मन्त्र शिवजी के कण्ठ और जिह्वा के अग्रभाग में विराजमान है।
ऐसा माना जाता है कि सती के नाम में ‘र’ कार अथवा ‘म’ कार नहीं है, इसलिए भगवान शिव ने सती का त्याग कर दिया। जब सती ने पर्वतराज हिमाचल के यहां जन्म लिया, तब उनका नाम ‘गिरिजा’ (पार्वती) हो गया। इतने पर भी ‘शिवजी मुझे स्वीकार करेंगे या नहीं’- ऐसा सोचकर पार्वतीजी तपस्या करने लगीं। जब उन्होंने सूखे पत्ते भी खाने छोड़ दिए, तब उनका नाम ‘अपर्णा’ हो गया। ‘गिरिजा’ और ‘अपर्णा’- दोनों नामों में ‘र’ कार आ गया तो भगवान शिव इतने प्रसन्न हुए कि उन्होंने पार्वतीजी को अपनी अर्धांगिनी बना लिया। इसी तरह शिवजी ने गंगा को स्वीकार नहीं किया परन्तु जब गंगा का नाम ‘भागीरथी’ पड़ गया, (इसमें भी ‘र’ कार है) तब शिवजी ने उनको अपनी जटा में धारण कर लिया। इस प्रकार राम-नाम में विशेष प्रेम के कारण भगवान शिव दिन-रात राम-नाम का जप करते रहते हैं।
तुम्ह पुनि राम राम दिन राती।
सादर जपहु अनंग आराती।।
(श्रीरामचरितमानस- १ / १०८ / ४)
भगवान शिव को राख और मसान इसलिए प्रिय हैं क्योंकि राख में ‘रा’ और मसान में ‘म’ अक्षर है जिनको जोड़ देने से ‘राम’ बन जाता है और भगवान शिव का राम-नाम पर बहुत स्नेह है।
एक बार कुछ लोग एक मुरदे को श्मशान ले जा रहे थे और ‘राम-नाम सत्य है’ ऐसा बोल रहे थे। शिवजी ने राम-नाम सुना तो वे भी उनके साथ चल दिए। जैसे पैसों की बात सुनकर लोभी आदमी उधर खिंच जाता है, ऐसे ही राम-नाम सुनकर भगवान शिव का मन भी उन लोगों की ओर खिंच गया। अब लोगों ने मुरदे को श्मशान में ले जाकर जला दिया और वहां से लौटने लगे। शिवजी ने विचार किया कि बात क्या है ? अब कोई आदमी राम-नाम ले ही नहीं रहा है। उनके मन में आया कि उस मुरदे में ही कोई करामात थी, जिसके कारण ये सब लोग राम-नाम ले रहे थे, अत: मुझे उसी के पास जाना चाहिए। शिवजी ने श्मशान में जाकर देखा कि वह मुरदा तो जलकर राख हो गया है। अत: शिवजी ने उस मुरदे की राख अपने शरीर में लगा ली और वहीं मसान में रहने लगे। किसी कवि ने कहा है-
बार-बार करत रकार व मकार ध्वनि,
पूरण है प्यार राम-नाम पे महेश को।।
नाम प्रभाव जान सिव नीको।
कालकूट फलु दीन्ह अमी को।।
(श्रीरामचरितमानस- १ / १९ / ८)
जब देवताओं और असुरों के द्वारा समुद्र-मंथन किया गया तो सर्वप्रथम उसमें से हलाहल विष प्रकट हुआ, जिससे सारा संसार जलने लगा। देवता और असुर भी उस कालकूट विष की ज्वाला से दग्ध होने लगे। इस पर भगवान विष्णु ने भगवान शिव से कहा कि ‘आप देवाधिदेव और हम सभी के अग्रणी महादेव हैं। इसलिए समुद्र-मंथन से उत्पन्न पहली वस्तु आपकी ही होती है, हम लोग सादर उसे आपको भेंट कर रहे हैं।’
भगवान शिव सोचने लगे- ’यदि सृष्टि में मानव-समुदाय में कहीं भी यह विष रहे तो प्राणी अशान्त होकर जलने लगेगा। इसे सुरक्षित रखने की ऐसी जगह होनी चाहिए कि यह किसी को नुकसान न पहुंचा सके। लेकिन, यदि हलाहल विष पेट में चला गया तो मृत्यु निश्चित है और बाहर रह गया तो सारी सृष्टि भस्म हो जाएगी, इसलिए सबसे सुरक्षित स्थान तो स्वयं मेरा ही कण्ठप्रदेश है।’
भगवान विष्णु की प्रार्थना पर जब शिवजी उस महाविष का पान करने लगे तो शिवगणों ने हाहाकार करना प्रारम्भ कर दिया। तब भगवान भूतभावन शिव ने उन्हें आश्वासन देते हुए कहा-
’भगवान श्रीराम का नाम सम्पूर्ण मन्त्रों का बीज-मूल है, वह मेरा जीवन है, मेरे सर्वांग में पूर्णत: प्रविष्ट हो चुका है, अत: अब हलाहल विष हो, प्रलय की अग्नि की ज्वाला हो या मृत्यु का मुख ही क्यों न हो, मुझे इनका किंचित भय नहीं है।’
इस प्रकार राम-नाम का आश्रय लेकर महाकाल ने महाविष को अपनी हथेली पर रखकर आचमन कर लिया किन्तु उसे मुंह में लेते ही भगवान शिव को अपने उदर में स्थित चराचर विश्व का ध्यान आया और वे सोचने लगे कि जिस विष की भयंकर ज्वालाओं को देवता लोग भी सहन नहीं कर सके, उसे मेरे उदरस्थ जीव कैसे सहन करेंगे? यह ध्यान आते ही भगवान शिव ने उस विष को अपने गले में ही रोक लिया, नीचे नहीं उतरने दिया जिससे उनका कण्ठ नीला हो गया, जो दूषण (दोष) न होकर उनके लिए भूषण हो गया।
कुछ लोगों का कहना है कि भगवान शिव द्वारा हलाहल विष का पान करना पार्वतीजी के स्थिर सौभाग्य के कारण हुआ और कुछ अन्य लोगों के अनुसार यह भगवान शिव के कण्ठ में राम-नाम है, उसी के प्रभाव के कारण संभव हुआ था।
।। जय शिवशंकर जय श्री राम ।।