हम मोड़ने चले हैं युग की प्रचंड धारा,
गिरते हैं उठते-उठते, हे नाथ दो सहारा।
दुवृत्तियाँ बढ़ी हैं, उनको उखाड़ना है,
कर कंस चढ़ रहा है, उसको पछाड़ना है,
स्वारथ की बस्तियों को अब तो उजाड़ना है,
फिर व्यूह कौरवों का हमको बिगाड़ना है,
मिट जाए फिर असुरता, यह लक्ष्य है हमारा।
गिरते हैं उठते-उठते, हे नाथ दो सहारा।
हम कर्म खुद करेंगे पर आन माँगते हैं,
हो सिर सदैव ऊँचा, वह शान माँगते हैं,
भगवान तुमसे हम कब वरदान माँगते हैं,
बस एक सत्-असत् की पहचान माँगते हैं,
पर है तभी यह संभव, आशीष हो तुम्हारा।
गिरते हैं उठते-उठते, हे नाथ दो सहारा।
We have gone to divert the fierce current of the era,
You fall while rising and rising, O Nath, two helpers.
Duties have increased, they have to be uprooted,
Taxes are rising, it has to be defeated,
Now the settlements of Swarth have to be destroyed,
Then we have to spoil the array of Kauravas.
Eradicate the insecurities then, this is our goal.
You fall while rising and rising, O Nath, two helpers.
We will do the work ourselves but we ask for it,
Ho head always high, they ask for glory,
When do we ask God for a boon from you,
Just ask for the identity of a true and false,
But only then it is possible, blessings are yours.
You fall while rising and rising, O Nath, two helpers.