प्यारी जू की भौंहनि की सहज मरोर माँझ,
गयौ है मरोरर्यौ मन मोहन कौ माई री ।
ऐसैं प्रेम रस लीन तिलहू ते भये छीन,
जैसैं जल बिन कंज रहै मुरझाई री ॥
धीरज न नैंकू धरें नैंना नेह-नीर ढरैं,
बिवस पगनि ओर ढरयौ सीस जाइ री ।
व्याकुल विहारी लाल चितै अंक भरे बाल,
पाये प्रान तब “ध्रुव” मृदु मुसिकाइ री ॥
अरी सखि ! हमारी प्रिया जी की सहज बँक भृकुटियों के नर्तन में सब का मन मोहने वाले प्रियतम मोहन का भी मन मरोड़ में आ गया है ।
वे ऐसे प्रेमरस लीन हुए हैं कि अपना अस्तित्व ही भूल गये हैं, जैसे जल के अभाव में कमल मुरझा जाता है, वे ऐसे ही प्रेम विह्लल बने रहते हैं, उनका धैर्य रूपी बाँध टूट चुका है।
उनके नेत्र सदैव अश्रुपूरित बने रहते हैं । उनका मस्तक प्रेम-विवश दैन्य-दशा में प्रिया के श्री चरणों की ओर निपतित होता रहता है ।
श्री ध्रुवदास जी कहते हैं कि प्रियतम बिहारी लाल की इस प्रेम-वैचित्र्य दशा का अवलोकन करके नव बाला प्रिया मन्दस्मित पूर्वक उन्हें अपने अंक में विराजित कर लेती हैं, तब पुनः प्राणगत देह में जैसे प्राण लौट आये हों, ऐसे ही प्रियतम सावधान एवं प्रफूल्ल हो जाते हैं ।