।।श्रीहरिः।।
सागरके मोती
मैं योगी हूँ, मैं जिज्ञासु हूँ, मैं भक्त हूँ-यह भावशरीर है। भावशरीर बननेसे साधन बड़ा सुगम हो जाता है। भावशरीरमें इष्टकी मुख्यता तथा अपनी गौणता रहती है। गौणता होते- होते अहम् इष्टमें लीन हो जाता है। आप जिस मार्गपर चलते हो, उस मार्गका भावशरीर बनाओ और साध्यकी तरफ चलते- चलते साध्यमें लीन हो जाओ।
श्रीजी, सीताजी, पार्वतीजी—ये सब ‘प्रेम’ का स्वरूप हैं। श्रीजी और कृष्ण, सीता और राम, पार्वती और शंकर- दोनोंमें कौन प्रेमी है और कौन प्रेमास्पद – इसका पता ही नहीं लगता !
प्रेम भगवान्का स्वभाव है और भक्तका जीवन है। गीताके अनुसार ज्ञानयोगसे कर्मयोग श्रेष्ठ है और कर्मयोगसे भक्तियोग श्रेष्ठ है। ज्ञानीमें सूक्ष्म अहंकार रहता है, प्रेमीमें नहीं रहता। प्रेमीकी दृष्टिमें एक प्रेमास्पदके सिवाय कुछ नहीं रहता ।
ज्ञानयोग, कर्मयोग और भक्तियोग- तीनों योगोंमें साधककी जिसमें रुचि, विश्वास और योग्यता हो, वही उसके लिये सुगम है। वास्तवमें भक्तियोग सबसे सुगम है; क्योंकि ज्ञानयोगमें अहंताको मिटाने और कर्मयोगमें अहंताको शुद्ध करनेकी अपेक्षा भक्तियोगमें अहंताको बदलना सुगम है।
साधन भीतरसे पैदा होना चाहिये, ऊपरसे नहीं भरना चाहिये। ‘करना’ निरन्तर नहीं होता; क्योंकि क्रियामें थकावट होती है। परन्तु ‘होना’ निरन्तर होता है।