श्रीहरी:
अनिर्वचनीय प्रेम
(पोस्ट 1 )
जो मनुष्य संसार से दु:खी होकर ऐसा सोचता है कि कोई तो अपना होता, जो मुझे अपनी शरण में लेकर, अपने गले लगाकर मेरे दुःख, सन्ताप, पाप, अभाव, भय, नीरसता आदि को हर लेता, उसको भगवान् अपनी भक्ति प्रदान करते हैं | परन्तु जो मनुष्य केवल संसार के दु:खों से मुक्त होना चाहता है, पराधीनता से छूटकर स्वाधीन होना चाहता है , उसको भगवान् मुक्ति प्रदान करते हैं | मुक्त होने पर वह ‘स्व’ में स्थित हो जाता है – ‘समदुःखसुख: स्वस्थ:’ (गीता १४/२४) | ‘स्व’ में स्थित होने पर ‘स्व’ –पना अर्थात व्यक्तित्व का सूक्ष्म अहंकार रह जाता है , जिसके कारण उसको ‘अखण्ड आनन्द’ का अनुभव होता है | जीव् परमात्मा का अंश | अंश का अंशी की तरफ स्वत: आकर्षण होता है | अत: ‘स्व’ में स्थित अर्थात मुक्त होने के बाद जब उसको मुक्ति में भी सन्तोष नहीं होता, तब ‘स्व’ का ‘स्वकीय’ (परमात्मा) –की तरफ स्वत: आकर्षण होता है | कारण कि मुक्त होने पर जीव के दु:खों का अन्त और जिज्ञासा की पूर्ती तो हो ही जाती है, पर प्रेम-पिपासा शान्त नहीं होती | तात्पर्य है कि प्रेम की जागृति के बिना स्वयं की भूख का अत्यन्त अभाव नहीं होता | स्वकीय की तरफ आकर्षण होने से अर्थात प्रेम जाग्रत होने से अखण्ड आनन्द ‘अनन्त आनन्द’ में बदल जाता है और व्यक्तित्व का सर्वथा नाश हो जाता है |