आज का प्रभु संकीर्तन।
संसार मे भगवान की भक्ति अत्यन्त दुर्लभ बतायी गयी है जो प्रभु कृपा से ही मिलती है.इस नश्वर संसार मे प्रत्येक पदार्थ प्राप्त हो सकता है लेकिन श्री भगवान की भक्ति केवल उनमे रम जाने और उनकी कृपा से ही संभव है इसलिये जीव को हमेशा भगवान से उनकी भक्ति माँगनी चाहिये प्रभु कहते है जिस पर मै अपनी कृपा करता हुँ सर्वप्रथम उसकी माया हर लेता हुँ ओर ऐसा करने के बाद मेरे भक्त को दुनिया की किसी चीज़ से प्रेम ओर मोह नही रहता वह मुझ मे खुद को लीन कर लेता है प्रभु कहते है जीव के पास जब तक माया रहती है तब तक वह चाहते हुए भी मुझ मे मन नही लगा पाता ओर जब उसके पास इस संसार की कोई वस्तु नही रहती तब वह मेरी शरण मे आ जाता है इसलिये मानव जब भी मंदिर जाता है तो भगवान से धन वैभब प्रसिद्धि ओर नष्ट हो जाने वाले पदार्थ् ही माँगता है कभी भक्ति नही माँग पाता परंतु भगवान उसे वही देते है जिसे जो चाहिये होता है जीव की जब मृत्यु होती है तब उसके सारे भोग पदार्थ् भी यही नष्ट हो जाते है उसके पास स्वयं का कमाया हुआ कुछ नही शेष बचता लेकिन जो मनुष्य भगवान की भक्ति करते है उनके पास श्री भगवान की अमूल्य भक्ति रूपी सम्पदा सदा रहती है जो जीवन रहते हुए भी और जीव की मृत्यु होने के बाद भी मनुष्य का कल्याण करती है अत भगवान से हमेशा उनकी भक्ति ही माँगनी चाहिये सब कुछ यहाँ नष्ट हो जाता है केवल भगवान की भक्ति ही शेष रहती है स्मरण यानी भगवान के स्वरूप का ध्यान। परमात्मा के स्वरूप में ध्यान लगाते हुए किये जाने वाले जाप को सुमिरन कहते हैं। किंतु हम ऐसा नहीं करते हैं। हमें तो ध्यान रहता है कि हम नाम जप रहे है। हमें तो होश है कि एक घण्टा बीत गया है। हमें पता रहता है कि इस दौरान कौन कौन आया-गया, कैसी आवाजें हुईं । हम प्रभु के ध्यान में तो उतरे ही नहीं। हमारे शब्द की लय तो बनी ही नहीं है। हम तो शब्द की गिनती का ध्यान रखे हुए हैं। यह भक्ति नहीं है ; भक्ति की औेपचारिकता का निर्वाह है। जितना ज्यादा पाओगे, उतना ही लगेगा कि चूक रहे हो। जितनी होगी तृप्ति, उतनी ही और बड़ी तृप्ति की आकांक्षा जगेगी।
प्यासे को जब पहली घूंट जल की, गले से उतरती है तो पहली दफा प्यास का पूरा-पूरा पता चलता है। प्यास का पता चलने के लिए भी जल की थोड़ी जरूरत है।
और परमात्मा की खोज तो ऐसी है कि शुरू होती है, पूरी नहीं होती। पूरी हो जाए तो परमात्मा सीमित हो गया, असीम न रहा।
इसीलिए तो परमात्मा निराकार है, तुम उसे चुका न पाओगे। तुम चुक जाओगे, परमात्मा न चुकेगा। उतरोगे सागर में जरूर, दूसरा किनारा कभी न आएगा।
जय जय श्री राधे कृष्णा जी।श्री हरि आपका कल्याण करें।
Today’s Lord Sankirtan. Devotion to God is said to be very rare in the world, which comes only by the grace of the Lord. Everything can be obtained in this mortal world, but devotion to the Lord is possible only by getting absorbed in Him and by His grace, therefore the creature should always be devoted to God. One should ask for his devotion, says the Lord, on whom I bestow my grace, first of all I take away his illusion and after doing this, my devotee does not have love and attachment for anything in the world, he merges himself in me, says the Lord. As long as illusion remains with the living being, he is not able to concentrate on me even if he wants to and when he does not have anything of this world, then he comes to my shelter, therefore, whenever a man goes to the temple, he receives money from God. Vaibhav asks only for fame and perishable things, he never asks for devotion, but God gives him what he wants. When the soul dies, all his enjoyments also get destroyed. Nothing is left, but those who do devotion to God, they always have the wealth of invaluable devotion of Shri Bhagwan, which gives welfare to man even while alive and even after the death of the creature, so always ask God for his devotion. Everything should be destroyed here, only devotion to God remains, remembrance means meditation of God’s form. Chanting done while meditating on the form of God is called Sumiran. But we don’t do that. We keep in mind that we are chanting the name. We are aware that an hour has passed. We know who came and went during this period, what kind of voices were heard. We have not entered into the meditation of the Lord. The rhythm of our words has not been established at all. We are taking care of the word count. This is not devotion; The formalities of devotion are maintained. The more you get, the more you will feel that you are missing out. The greater the satisfaction, the more the desire for greater satisfaction will arise. When the first sip of water comes down the throat of a thirsty person, then for the first time he becomes fully aware of his thirst. Even to know thirst, a little water is needed. And the search for God is such that it starts and does not end. When complete, God becomes limited, not infinite. That’s why God is formless, you will not be able to repay him. You will miss, God will not miss. You will definitely enter the ocean, the other shore will never come. Jai Jai Shri Radhe Krishna ji. May Shri Hari bless you.