वृन्दावन ब्रज का हृदय है जहाँ प्रियाप्रियतम ने अपनी दिव्य लीलायें की हैं। इस दिव्य भूमि की महिमा बड़े बड़े तपस्वी भी नहीं समझ पाते
नारद पुराण के उत्तर मे पुरोहित वसु जी ने मोहिनी से कहा – "खगा वृक्षा नगा मृगा:।
समुच्चरंति सततं राधाकृष्णेति मोहिनी”॥
अर्थात् ब्रजमण्डल मे रहने वाले सभी कीट-कृमि-खग-मृग-पर्वत-वानर, नर-नारी आदि सब राधा कृष्ण नाम का उच्चारण करते रहते हैं।
और इसी पुराण में फिर वसुजी ने बहुत प्यारी बात कही की-
“न तस्य दुर्लभं किंचित्त्रिषु भामिनी।
वृन्दावनेति नामापि य: समुच्चरति प्रिये:॥
अर्थात् जो मनुष्य श्री वृंदावन का नाम जपता है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नही हैं।
और फिर आगे कहा –
“गोपान् गोपी: खगमृगागोपगोभूरजांसि।
स्मृत्वा प्रणमति जने प्रेमरज्जवा निबद्ध:॥”
अर्थात् जो व्यक्ति वृंदावन के गोप-ग्वालो, खगों, मृगों, वृक्षों, ब्रज की रज, पर्वतो, पशु पक्षियों ओर गायों का दर्शन या स्मरण करके उन सबको प्रणाम करता है, तो ऐसा करने वाले व्यक्ति के प्रेम में भगवान बंध जाते हैं।
“स्मृत्वा प्रणमति”- यानि वृंदावन भुमि का दर्शन/स्मरण और ब्रजवासियों, वृक्षों, पशु पक्षियों, रज, खगो-मृगो, गायों, पर्वतों आदि को ह्रदय से प्रणाम करना चाहिये।
और फिर नारद पुराण में कहा गया कि –
“दृश्यं गम्यं च संसेव्य ध्येयं वृंदावनं सदा।
नास्ति लोके समं तस्य भुवि कीर्ति विवर्द्धनम्॥”
अर्थात् वृंदावन का सदा दर्शन करना चाहिये, वृंदावन की यात्रा करनी चाहिये, वृंदावन की सेवा करनी चाहिये और वृंदावन का घर बैठ कर ध्यान करना चाहिये।
यानि जिन लोगों को वृंदावन वास नहीं मिला है, वे सब ब्रज के घाटों, कुण्डों, पर्वतों, मंदिरों आदि का अगर घर बैठें ही ध्यान कर लेंगे तो उनको भी उत्तम लाभ मिलेगा।
पुज्य गुरुदेव के द्वारा गाया गया “ब्रज 84 कोस यात्रा” भजन में भी पुज्य गुरुदेव शुरु मे एक बात कहा करते हैं की “इस मानसिक ब्रजयात्रा से आपको वास्तविक ब्रज की यात्रा करने का ही फल मिलेगा।”
यानि अगर घर बैठे ही मानसिक ब्रज यात्रा होगी तो भी उत्तम लाभ मिलेगा इसलिए पुरोहित वसु जी ने नारद पुराण मे कहा की “ध्येयं वृंदावनं सदा” अर्थात् वृंदावन का सदा मन से स्मरण करो।
भागवत पुराण मे नारद जी ध्रुव जी से कहते हैं
“पुण्यं मधुवनं यत्र सान्निध्यं नित्यदा हरे:”
अर्थात् हे ध्रुव, तु मधुवन यानि वृंदावन चला जा, जहां हरि नित्य विराजमान रहते हैं
सान्निध्यं नित्यदा हरे:
यानि ब्रजमण्डल भगवान की नित्य लीला स्थली है- इसी बात को नारद पुराण मे कहा
“यस्मिन्नित्यं विचंरति हरिर्गोपगोगोपिकाभि:”
“अत्रैव व्रजभूमि: सा यत्र तत्त्वं सुगोपितम्।
भासते प्रेमपूर्णानां कदाचिदपि सर्वत:॥”
अर्थात् इस ब्रजमण्डल में भगवान कृष्ण नित्य गोप-ग्वालों ओर गोपियों के साथ विचरण करते हैं और स्कंदपुराण में भी शांडिल्य जी कहते हैं –
अर्थात् इस ब्रजभुमि में भगवान गुप्त रुप से गोपियों के साथ लीला करते हैं ओर जो भगवान के प्रेमी होंते हैं उनको इस नित्य लीला का कभी कभी दर्शन भी होता है।
बहुत सारे संत हैं जिन्हें वृंदावन में भगवान की दिव्य लीलाओ का दर्शन हूआ हैं।
भगवान की दो प्रकार की लीलाएं होती हैं -“वास्तविकी ओर व्यवहारिकी।”
‘वास्तविकी लीला’ भगवान की नित्य लीला है जो ब्रज में नित्य चलती रहती है भगवान की वास्तविकी लीला को प्रेमी भक्त ही ब्रज में देख पाते हैं।
ओर दूसरी लीला ‘व्यवहारिकी लीला’ है व्यवहारिकी लीला अवतार काल में होती हैं जिनका वर्णन पुराणों में किया गया हैं।
स्कंदपुराण के अनुसार जब उद्धव जी ने गोवर्धन में भागवत् कथा की थी तो सब श्रोता स्थुल जगत से अंतर्धान होकर भगवान की नित्य लीला में प्रवेश कर गये यानि ब्रज में ही गुप्त रुप से रहने लगे।
“ये अन्ये च तत्र ते सर्वे नित्यलीलान्तरं गता:”
और फिर स्कंदपुराण में कहा की
“गोवर्धननिकुञ्जेषु गोषु वृन्दावनादिषु।
नित्यं कृष्णेन मोदन्ते दृश्यन्ते प्रेमतत्परै:॥”
अर्थात् जो भी श्रोतागण कथा रस पान करके ब्रज में अंतर्धान हो गये थे, वे सब श्रोता गोवर्धन, वृंदावन यानि ब्रज की कुंजो में गुप्त रुप से भगवान के साथ विचरण करते रहते हैं,
ओर जो कृष्ण प्रेमी हैं, उनको ही उन भक्तों का दर्शन होता है – “दृश्यन्ते प्रेमतत्परै:”।