भगवान के नाम की महिमा का प्रचार बहुत से संतों ने तथा वेद, पुराण और रामायण तक ने किया है। कुछ लोग ऐसा सोचते है कि केवल कलियुग में ही भगवान के नाम की महिमा है, शेष ३ युग में बिना नाम के ही सब कुछ मिल जाता था? परन्तु ऐसा बिलकुल नहीं है। जो नियम आज है वो पहले भी थे और आगे भी रहेंगे। इसलिए तुलसीदासजी ने श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड में लिखा है-
चहुँ जुग तीनि काल तिहुँ लोका।
भए नाम जपि जीव बिसोका।।
अर्थ-
(केवल कलियुग की ही बात नहीं है,) चारों युगों में, तीनों काल में और तीनों लोकों में नाम को जपकर जीव शोकरहित हुए हैं। भगवान् के नाम की महिमा चारों युगों में है।
उदाहरण के तौर पर नारदजी तथा प्रह्लादजी नारायण नारायण किया करते है। वास्तव में सतयुग, त्रेतायुग तथा द्वापरयुग में क्रमशः नारायण, नरसिंह तथा राम नाम की महिमा विशेष रूप से थी। जब श्रीकृष्ण गये तब द्वापरयुग का अंत हुआ और कलियुग का प्रारम्भ हुआ इसलिए कृष्ण नाम भी मिल गया।
इसलिए कलियुग में श्रीहरि के नामों तथा लीलाओं का भंडार जीवों को मिल गया। तो अब प्रश्न यह उठता है कि क्या बात है भगवान के नाम में? इस पर गौरांग महाप्रभुजी ने कहा-
पूर्ण शुद्धो नित्य मुक्तो,अभिन्न त्वान्नाम नामिनोह।
( पद्मपुराण और श्री चैतन्य चरितामृत मध्य लीला १७ / १३३ )
अर्थ-
हरिनाम पूर्ण हैं, शुद्ध हैं, नित्यमुक्त हैं। हरि तथा हरिनाम में कोई अंतर नहीं है।
नाम्नामकारि बहुधा निज सर्व शक्ति-
स्तत्रार्पिता नियमितः स्मरणे न कालः।
एतादृशी तव कृपा भगवन्ममापि
दुर्दैवमीदृशमिहाजनि नानुरागः।।
( शिक्षाष्टकम्- २ )
अर्थ-
हे प्रभु, आपने अपने अनेक नामों में अपनी शक्ति भर दी है, जिनका किसी भी समय स्मरण किया जा सकता है। हे भगवन्, आपकी इतनी कृपा है परन्तु मेरा इतना दुर्भाग्य है कि मुझे उन नामों से प्रेम ही नहीं है।
अर्थात् भगवान और उनके नाम में कोई अंतर नहीं है क्योंकि उन्होंने अपनी समस्त शक्ति अपने नाम में रख दी है। जिसका किसी भी समय स्मरण किया जा सकता है। सूतजी भगवान के भजन एवं नाम-कीर्तन की महिमा पर पद्म पुराण में बोले-
स्वयं नारायणो देवः स्वनाम्नि जगतां गुरुः।
आत्मनोऽभ्यधिकां शक्तिं स्थापयामास सुव्रताः।।
( पद्मपुराण खण्ड- ३ (स्वर्गखण्ड) अध्याय- ५० )
अर्थ-
(सूतजी बोले) उत्तम व्रत का पालन करने वाले महर्षियो! जगदगुरु भगवान नारायण ने स्वयं ही अपने नाम में अपने से भी अधिक शक्ति स्थापति कर दी है।
तस्माद्यत्नेन वै विष्णुं कर्मयोगेन मानवः।।
कर्मयोगार्च्चितो विष्णुः प्रसीदत्येव नान्यथा।
तीर्थादप्यधिकं तीर्थं विष्णोर्भजनमुच्यते।।
( पद्मपुराण खण्ड- ३ (स्वर्गखण्ड) अध्याय- ५० )
अर्थ-
इसलिए मनुष्य को उचित है कि वह कर्मयोग के द्वारा भगवान विष्णु की यत्नपूर्वक आराधना करे। कर्मयोग से पूजित होने पर ही भगवान विष्णु प्रसन्न होते हैं, अन्यथा नहीं। भगवान विष्णु का भजन तीर्थों से भी अधिक पावन तीर्थ कहा गया है।
कलियुग में अधिक नाम महिमा इसलिए है क्योंकि-
कलेर्दोषनिधे राजन्नस्ति ह्येको महान्गुणः।
कीर्तनादेव कृष्णस्य मुक्तसङ्गः परं व्रजेत्।।
( भागवत १२ / ३ / ५१)
अर्थ-
परीक्षित! यो तो कलियुग दोषों का खजाना है परन्तु इसमें एक बहुत बड़ा गुण है वह गुण यही है कि कलियुग में केवल भगवान श्रीकृष्ण का संकीर्तन करने मात्र से ही सारी आसक्तियाँ छूट जाती है, और परमात्मा की प्राप्ति हो जाती है।
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना।
एक अधार राम गुन गाना।।
सब भरोस तजि जो भज रामहि।
प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि।।
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं।
नाम प्रताप प्रगट कलि माहीं।।
( श्रीरामचरितमानस उत्तरकाण्ड )
अर्थ-
कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरो से त्यागकर जो श्री रामजी को भजता है और प्रेमसहित उनके गुणसमूहों को गाता है, वही भवसागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है।
कलियुग के मनुष्यों की बुद्धि बहुत कमजोर होने के कारण ज्ञान ज्यादा समय तक नहीं रह पता और बिना ज्ञान के मनुष्य अपने लक्ष्य (आनंद प्राप्ति अथवा दिव्य प्रेम अथवा भगवान की सेवा) को नहीं पा सकता। इसलिए सबसे सरल मार्ग नाम महिमा का जीवों को बताया गया। भगवान नाम की महिमा पर अनादि वेद कहता है कि-
षोडषैतानि नामानि द्वत्रिन्षद्वर्णकानि हि।
कलौयुगे महामंत्र: सम्मतो जीव तारिणे।।
( अथर्ववेद अनंत संहिता )
अर्थ-
सोलह नामों तथा बत्तीस वर्णों से युक्त महामंत्र का कीर्तन ही कलियुग में जीवों के उद्धार का एकमात्र उपाय है।
हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे।
हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे।।
इति षोडशकं नाम्नां कलिकल्मषनाशनम्।
नातः परतरोपायः सर्ववेदेषु दृश्यते।।
( कलिसन्तरणोपनिषद् )
अर्थ-
(हरे का एक अर्थ श्री हरि भी होता है।) (ब्रह्माजी नारदजी से कह रहे है) – हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे। हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। यह सोलह नामों वाले महामंत्र का कीर्तन कलियुग में क्लेश का नाश करने में सक्षम है। इस मन्त्र को छोड़ कर कलियुग में उद्धार का अन्य कोई भी उपाय चारों वेदों में कहीं भी नहीं है।
राम नाम मनिदीप धरु जीह देहरीं द्वार।
तुलसी भीतर बाहेरहुँ जौं चाहसि उजिआर।।
(श्रीरामचरितमानस बालकाण्ड )
अर्थ-
तुलसीदासजी कहते हैं, यदि तू भीतर और बाहर दोनों ओर उजाला चाहता है, तो मुखरूपी द्वार की जीभरूपी देहली पर रामनामरूपी मणि-दीपक को रख।
रामं दूर्वादलश्यामं पद्माक्षं पीतवाससम्।
स्तुवन्ति नामभिर्दिव्यैर्न ते संसारिणो नर:।।
( श्रीरामरक्षास्त्रोत्रम् २५ )
अर्थ-
दूर्वादल के समान श्याम वर्ण, कमल-नयन एवं पीतांबरधारी श्रीराम की उपरोक्त दिव्य नामों से स्तुति करने वाला संसारचक्र में नहीं पड़ता।
राम रामेति रामेति रमे रामे मनोरमे।
सहस्रनाम तत्तुल्यं रामनाम वरानने।।
( श्रीरामरक्षास्त्रोत्रम् ३८ )
अर्थ-
(शिव पार्वती से बोले) हे सुमुखी! राम-नाम ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ के समान हैं। मैं सदा श्री राम का स्तवन करता हूँ और राम-नाम में ही रमण करता हूँ।
सारांश यह है- कृपालु भगवान यह जानते है कि “जीव माया के आधीन है तथा-
गो गोचर जहँ लगि मन जाई।
सो सब माया जानेहु भाई।।
अर्थात् इंद्रियों के विषयों को और जहाँ तक मन जाता है, हे भाई! उन सबको माया जानना।
इसलिए माया आधीन जीव मेरा दिव्य चिंतन नहीं कर सकता।” और भगवान ने अपने नाम में अपनी समस्त शक्ति भर दी जिससे जीव उनका प्रेमपूर्वक चिंतन के साथ नाम संकीर्तन कर सके। जिसके फलस्वरूप वो माया से मुक्ति (मोक्ष), दिव्य प्रेम इत्यादि मिल सकते है।
।। जय श्री सच्चिदानंद ।।