*प्रेम और भक्ति *

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परम श्रद्धेय स्वामी जी महाराज जी कह रहे हैं कि साधन जितने बताए जाते हैं, उन साधनों में भक्ति सर्वश्रेष्ठ है । उसमें बात ये है कि साधन भी भक्ति है और साध्य भी भक्ति है । गीता में दो निष्ठा बताई हैं – सांख्ययोगी और कर्मयोगी को निष्ठा बताई है । भक्तियोग को निष्ठा नहीं बताई । तो भक्त भगवन्निष्ठ होते हैं । भक्ति दो तरह की है साधन भक्ति और साध्य भक्ति । श्रवण, कीर्तन आत्म निवेदन आदि, यह नवधा भक्ति है । यह साधन भक्ति है । इस भक्ति के बाद परा भक्ति प्राप्त होती है । जो सिद्ध भक्ति है । प्रेम की प्राप्ति होती है और भगवान् में प्रेम होता है । यह दो तरह की होती है । जैसे पत्नी होती है, पिता अपने कन्या को पति को अर्पित कर देता है, तो उसका गोत्र पति का गोत्र हो जाता है । वह उसीकी जाति की हो जाती है । ऐसे अपना नाम न हो, गोत्र भी नहीं हो, रूप भी न हो । तो आत्म निवेदन भक्ति है । इसके बाद भेद और अभेद भक्ति है । उनमें भेद भी रहता है, और अभेद भी हैं ।पति-पत्नी दोनों मिलने से गृहस्थ होता है । पति पत्नी का आधा भाग है । पत्नी पति का आधा भाग है । दोनों मिलकर एक हो जाते हैं । ऐसे भगवान् हैं, आधे रूप से श्री जी हो गए और आधे रूप से स्वयं । दो भाग हो गए तो दोनों भगवद् स्वरूप ही हुए । संसार में दो होकर के एक हो जाता है, तो होता है ज्ञान और एक होकर के दो हो जाते हैं, तो होता है प्रेम । प्रेम में श्रीजी और भगवान् एक दूसरे की ओर आकृष्ट होते हैं । श्री जी को देखकर राजी होते हैं भगवान् और भगवान् को देखकर राजी होते हैं श्री जी । अब श्री जी में और जीवों में क्या अंतर है ? श्री जी भगवान् की ओर ही आकृष्ट रहीं । और जीव ने प्रकृति को अपना मान लिया, तो फंस गया । जब वासुदेव ही है तो “मैं” अलग कैसे हुआ ? अभिन्नता में एकता है, एकदम । ज्ञान से भी ज्यादा प्रगाढ़ता है ।

भगवान् तो श्री जी को सुख पहुंचावे और श्री जी भगवान् को सुख पहुंचावे । तो ऐसे बढ़ता है रस । इसका नाम रास है । ये रस प्रतिक्षण वर्धमान है ।

सुख पहुंचाने में अपने आप को ही भूल जाते हैं । तो यह माधुर्य भाव है । जैसे विदुरानी जी केला खिलाते समय अपने आप को भूल गई, कि क्या खिला रही हूं ? केले की जगह छिलका खिला दिया । जब विदुरानी जी अपने को भूल गई, तो भगवान् भी अपने को भूल गए । कुछ अंश में मां बेटा के साथ ऐसा होता है । बालक समझता नहीं । मां सुख पहुंचाती है । यह उछाल वाला प्रेम है । कभी दो होकर एक हो जाते हैं । कभी एक होकर दो हो जाते हैं । अनंत वर्षों से साथ रहते हैं, पर लगता है कभी मिले ही नहीं और देखता ही रहूं । यह प्रेम बढ़ता ही रहता है । यह एक विलक्षण प्रेम है, जिसमें दुनिया मात्र को सुख पहुंचता है । जैसे संत को देख कर लोग खुश होते हैं, कि उनको सुख पहुंचे (संत उनसे चाहते नहीं कुछ) तो एक दूसरे को सुख पहुंचावे । कुछ स्वार्थ की गंध भी न हो तो ऐसा कुछ कुछ प्रेम वहां होता है ।

जैसे मीराबाई का शरीर नहीं मिला । साड़ी का एक छोर मिला । शरीर नहीं मिला; क्योंकि शरीर चिन्मय हो गया । तो ऐसा प्रेम शरणागति से प्राप्त होता है । जब तक अहंकार है, करने का भाव है, तब तक यह प्रेम नहीं मिलता । ऐसा नहीं कि वहां करना नहीं होता । करना, होना में बदल जाता है । जैसे स्वांस लेते हैं, तो करना होना एक हो गया । जैसे नाडियां चलती हैं, ऐसे भगवान् का नाम, चिंतन करना होने में बदल गया । होना “है” में बदल जाता है । जैसे मकान है, जल है, स्थावर है, जंगम है । तो यह “है” “है” एक है । अभेद भक्ति में भेद नहीं दीखता है । गुणों की वृत्ति न होने पर एक हो जाते हैं । तो ये शरणागति से होता है । चिंतन आपसे आप हो रहा है । स्वांस चल रहा है । नाडियां चल रही हैं । ऐसे होना हो जाता है । तो साधक को क्या करना चाहिए कि करना होने में बदल जाए । तो ये शरणागति है । ये सर्वोपरि गीता में कही है । ऐसे एक मस्ती होती है । उस मस्ती में वह कभी रोता है, कभी हंसता है, कभी गाने लगता है, कभी नाचता है । लोग देखते हैं कि नहीं यह ख्याल ही नहीं है । जैसे कहावत है –
गांव गिने नहीं गैला न ।
गैलो गिने नहीं गांव न ।
ऐसा हो जाता है । बालक जैसी अवस्था होती है । मस्ती में रहता है । ऐसी भक्ति है । तो यह शरणागति से होती है । इसमें चार बातें हैं –
मन्मना भव ….. (गीता १८ का ६५ वां श्लोक) । तो पहले नमस्कार करता है, फिर पूजन करता है, फिर चिंतन करता है और फिर अपने आप को ही समर्पित कर देता है
मन्मना भव …… ।

नारायण ! नारायण ! नारायण !!!! नारायण !!!!

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