सर्वप्रथम मिट्टी से निर्मित समस्त शरीरों को उनमें स्थित गुणों अवगुणों के आधार पर मनुष्यों ने उन सबका नामकरण किया!
और उन सबसे ही अपना सम्बन्ध स्थापित कर लिया!
जिस शरीर से आपका शरीर जन्मा उसे माता मान लिया,माता के गर्भ को माध्यम् बनाने वाले शरीर को पिता मान लिया!
माता पिता से प्रकट और विभिन्न शरीरों को भाई बहन मान लिया!
माता पिता बने शरीरों को जन्म देने वाले शरीरों को दादा दादी नाना नानी मान लिया!
दादा दादी नाना नानी से जन्में और विभिन्न शरीरों को हमने चाचा बूआ बडे पिता, मामा मौसी आदि मान लिया है!
किसी शरीर को मित्र,किसी को शत्रू मान लिया! किसी शरीर को गुरु तो किसी शरीर को पत्नी व प्रेमिका मान लिया!
किसी शरीर को स्वामी तो किसी को दाष मान लिया! किसी शरीर को निर्धन,धनवान,काला,गोरा,या साँवला मान लिया!
किसी शरीर को देशी विदेशी तो किसी को मत मजहबी मान लिया!
किसी को ब्राह्मँण तो किसी को शूद्र मान लिया!
किसी को अवतार,पैगम्बर तो किसी को ईश्वरीय संदेश वाहक मान लिया!
इन्हीं विभिन्न मान्यताओं में मनुष्य इस प्रकार उलझा है के वह इन शरीरों में स्थित साक्षात ब्रह्मस्वरुप शरीरी को कभी भी जान न सका!
के कोई भी एैसा शरीर नहीं है जो एक आत्मा से पृथक,भिन्न व परे रहकर प्रकाशित,स्थित व गतिशील रह सके!
अर्थात शरीर में स्थित शरीरी ही सभी का मूलस्वरुप है! जो कि अजर,अमर और अविनाशी तत्व है,जिसका विनाश करने में कोई भी सक्षम नहीं है!
और जो एक ही है! चाहे शरीर अनन्त हों,ब्रह्माँण्ड़ अनन्त हो! पर शरीरी एक ही है!
जैसे समस्त आभूषणों में स्वर्ण एक ही है! समस्त घड़ों में मिट्टी एक ही है! समस्त जलाशयों में जल एक ही है! समस्त रुपों में अग्नि एक ही है!
वैसे ही समस्त प्रकाशित,स्थित व गतिशील पदार्थों में आत्मा एक ही है!
परन्तु इस आत्मा की महिमाँ देखो के ना ही कोई भी भौतिक पदार्थ इसे प्रकाशित कर सकता है,ना ही गतिशील बना सकता है! ना ही इसका विनाश कर सकता है!
क्योंकि जैसे भयंकर तूफान दीवारों को तो गिरा सकता है पर नींव को नहीं क्योंकि समस्त दीवारों का आधार है!
वैसे ही सत्वगुण रजोगुण व तमोगुण रुपी शक्तियों का तूफान इनसे उत्पन्न दीवार रुपी अन्त:करण को प्रभावित कर सकते हैं पर अपने ही नींव अर्थात आधार स्वरुप आत्मा को नहीं!!
जैसे अनन्त वर्षों तक भी बादल वर्षा करें तब भी वह सुर्य चन्द्र को न भींगो सकते हैं ना ही उन्हें उनके स्थान से बहा सकते हैं!
वैसे ही प्रकृति से उत्पन्न गुण अवगुण चाहे किसी शरीर को माध्यम् बनाकर कितने भी पाप पूण्य करलें! वह आत्मा को छु भी नहीं सकते, ना ही अपने बलसे वह आत्मा को अनात्मा बना सकते हैं!
क्योंकि आत्मा साक्षात परमात्मा का अपना मूलस्वरुप है!
जो सदा से है,सदा रहता है और अभी भी सबकुछ आत्मस्वरुप ही है!
बस विभिन्न मिथ्या मान्यताओं में फँसा हुआ मानव समाज इसे जानने में नहीं बल्कि इसे विस्मृत करने में अनन्त युगों से लगा हुआ है!
किन्तु जो विवेकवान जीव इस जीवनचक्र से ऊबता है, इससे निकलने के लिए तड़पता है,वही एकदिन यह जान पाता है के वह या कोई भी कहीं पर मरने मिटने वाला शरीर मात्र नहीं है,बल्कि अमृत्स्वरुप शरीरी है!
ॐ नमः शिवाय
First of all, all the bodies made of clay were named by humans on the basis of their qualities and demerits.
And established my relationship with them only! The body from which your body was born is considered as the mother, the body which makes the mother’s womb as the medium is considered as the father.
Revealed from parents and considered different bodies as brothers and sisters!
The bodies that gave birth to the bodies that became parents were considered as grandparents! Born from Grandparents, Grandparents and we have accepted different bodies as uncle, aunt, elder father, maternal uncle, aunt etc.
Considered some body as a friend, some as an enemy! Considered some body as Guru and some body as wife and girlfriend!
Considered one body as master and another as a slave! Considered a body poor, rich, black, fair, or dark!
Considered some body as indigenous and foreigner and some as non-religious!
Some were considered Brahmins and some were considered Shudras. Some were considered as incarnation, prophet and some as divine messenger.
Man is entangled in these different beliefs in such a way that he could never know the real Brahmaswarup body situated in these bodies!
There is no such body that can remain illuminated, stable and dynamic while being separate, different and beyond from a soul!
That is, the body located in the body is the original form of all! Which is ajar, immortal and indestructible element, which no one is capable of destroying!
And who is the same! Even if the body is infinite, the universe is infinite! But the body is the same!
Just like gold is only one in all ornaments! The clay is the same in all pots! There is only one water in all the reservoirs. Fire is only one in all forms!
Similarly, the soul is only one in all the illuminated, situated and moving substances.
But look at the glories of this soul, neither any material substance can illuminate it, nor can it make it dynamic! Nor can destroy it!
Because like a fierce storm can bring down the walls but not the foundation because it is the base of all the walls!
In the same way, the storm of powers in the form of sattva guna, rajo guna and tamo guna can affect the wall like antahkaran generated from them, but not the soul itself as its foundation.
Just as clouds rain for infinite years, even then they cannot wet the sun and moon, nor can they move them from their place!
Similarly, no matter how many sins are done by making a body a medium, the qualities and demerits generated by nature! He cannot even touch the soul, nor can he make the soul non-soul by his own strength!
Because the soul is actually the original form of God! The one who has always been, always remains and still everything is self!
Just the human society, trapped in various false beliefs, has been engaged in forgetting it for eternal ages, not in knowing it!
But the intelligent soul who gets bored of this life cycle, yearns to get out of it, only one day he gets to know that he or anyone else is not just a body which is going to die anywhere, but a body in the form of nectar!
Om Namah Shivaya