ब्रह्माजी द्वारा भगवान नारायण की स्तुति किये जाने पर प्रभु ने उन्हें सम्पूर्ण भागवत-तत्त्व का उपदेश केवल चार श्लोकों मे दिया था। वही मूल चतुःश्लोकी भागवत है।
अहमेवासमेवाग्रे नान्यद् यत् सदसत् परम।
पश्चादहं यदेतच्च योऽवशिष्येत सोऽरम्यहम्।।1।।
ऋतेऽर्थं यत् प्रतीयेत न प्रतीयेत चात्मनि।
तद्विद्यादात्मनो मया यथाऽऽभासो यथा तमः।।2।।
यथा महान्ति भूतानि भूतेषूच्चावचेष्वनु।
प्रविष्टान्यप्रविष्टानि तथा तेषु न तेष्वहम्।।3।।
एतावदेव जिज्ञास्यं तत्त्वजिज्ञासुनाऽऽत्मनः।
अन्वयव्यतिरेकाभ्यां यत् स्यात् सर्वत्र सर्वदा।।4।।
सृष्टि से पूर्व केवल मैं ही था। सत्, असत् या उससे परे मुझसे भिन्न कुछ नहीं था। सृष्टि न रहने पर (प्रलयकाल में) भी मैं ही रहता हूँ। यह सब सृष्टिरूप भी मैं ही हूँ और जो कुछ इस सृष्टि, स्थिति तथा प्रलय से बचा रहता है, वह भी मै ही हूँ।(1)
जो मुझ मूल तत्त्व को छोड़कर प्रतीत होता है और आत्मा में प्रतीत नहीं होता, उसे आत्मा की माया समझो। जैसे (वस्तु का) प्रतिबिम्ब अथवा अंधकार (छाया) होता है।(2)
जैसे पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) संसार के छोटे-बड़े सभी पदार्थों में प्रविष्ट होते हुए भी उनमें प्रविष्ट नहीं हैं, वैसे ही मैं भी विश्व में व्यापक होने पर भी उससे सम्पृक्त हूँ।(3)
आत्मतत्त्व को जानने की इच्छा रखने वाले के लिए इतना ही जानने योग्य है कि अन्वय (सृष्टि) अथवा व्यतिरेक (प्रलय) क्रम में जो तत्त्व सर्वत्र एवं सर्वदा रहता है, वही आत्मतत्त्व है।(4)
इस चतुःश्लोकी भागवत के पठन एवं श्रवण से मनुष्य के अज्ञानजनित मोह और मदरूप अंधकार का नाश हो वास्तविक ज्ञानरूपी सूर्य का उदय होता है।
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