हे मेरे प्रभो…
सुखी होने के लिये मैंने कौन-सा काम नहीं किया ?
विवाह किया, संतानें पैदा कीं, धन कमाया, यश-कीर्ति के लिये प्रयास किया, लोगों से प्रेम बढ़ाना चाहा और न मालूम क्या-क्या किया।
परन्तु सच कहता हूँ मेरे स्वामी ! ज्यों-ज्यों सुख के लिये प्रयत्न किया, त्यों-ही-त्यों परिणाम में दुःख और कष्ट ही मिलते गये । जहाँ मन टिकाया वहीं धोखा खाया !
कहीं भी आशा फलवती नहीं हुई । चिन्ता, भय, निराशा और विषाद बढ़ते ही गये । कहीं रास्ता दिखायी नहीं दिया । मार्ग बंद हो गया ।
तुमने कृपा की, तुम्हारी कृपा से यह बात समझ में आने लगी कि तुम्हारे अभय चरणों के आश्रय को छोड़कर कहीं भी सच्चा और स्थायी सुख नहीं है ।
चरणाश्रय प्राप्त करने के लिये कुछ प्रयत्न भी किया गया । अब भी प्रयत्न होता है और यह सत्य है कि इसी से सुख-शान्ति और आराम के दर्शन भी होने लगे हैं।
परन्तु प्रभो ! पूर्वाभ्यासवश बार-बार यह मन विषयों की ओर चला जाता है । रोकने की चेष्टा भी करता हूँ, कभी-कभी रूकता भी है, परन्तु जाने की आदत छोड़ता नहीं !
तुम्हारे चरणों के सिवा सर्वत्र भय-ही-भय छाया रहता है- दुःखों का सागर ही लहराता रहता है, यह जानते, समझते और देखते हुए भी मन तुम्हें छोड़कर दूसरी ओर जाना नहीं छोड़ता !
इससे अधिक मेरे मन की नीचता और क्या होगी मेरे दयामय स्वामी !
तुम दयालु हो, मेरी ओर न देखकर अपनी कृपा से ही मेरे इस दुष्ट मन को अपनी ओर खींच लो । इसे ऐसा जकड़कर बाँध लो कि यह कभी दूसरी ओर जा ही न सके ।
मेरे स्वामी ! ऐसा कब होगा ? कब मेरा यह मन तुम्हारे चरणों के दर्शनों में ही तल्लीन हो रहेगा । कब यह तुम्हारी मनोहर मूरति की झाँकी कर-करके कृतार्थ होता रहेगा ।
अब देर न करो दयामय ! जीवन-संध्या समीप है । इससे पहले-पहले ही तुम अपनी दिव्य ज्योति से जीवन में नित्य प्रकाश फैला दो । इससे समुज्ज्वल बनाकर अपने मन्दिर में ले चलो और सदा के लिये वहीं रहने का स्थान देकर निहाल कर दो ।
श्रद्धेय श्री हनुमानप्रसाद जी पोद्दार