देवता सभी पूज्य हैं; किंतु एक बार देवताओं में विवाद हो गया कि उनमें प्रथम पूज्य कौन है ? जब परस्पर कोई निर्णय न हो सका, तब वे एकत्र होकर | लोकपितामह ब्रह्माजीके पास पहुँचे। बूढ़े ब्रह्माजी बहुत कार्यव्यस्त रहते हैं। उन्हें सृष्टिके कार्यसे दो पलका भी अवकाश नहीं। पञ्चायत करनेको समय निकाल पाना उनके लिये कठिन ही था अपना नवीन सृजन कार्य करते-करते ही उन्होंने देवताओंकी बात सुन ली और एक निर्णय सुना दिया- ‘जो पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करके सबसे पहले मेरे पास आ जाय वही अबसे प्रथम पूज्य माना जाये।’
देवराज इन्द्र अपने ऐरावतपर चढ़कर दौड़े, अग्रिदेवने अपने भेंडेको भगाया, धनाधीश कुबेरजीने अपनी सवारी ढोनेवाले कहारोंको दौड़नेकी आज्ञा दी। वरुणदेवका वाहन ठहरा मगर, अतः उन्होंने समुद्री मार्ग पकड़ा। सब देवता अपने-अपने वाहनोंको दौड़ाते हुए चल पड़े। सबसे पीछे रह गये गणेशजी। एक तो उनका तुन्दिल भारी भरकम शरीर और दूसरे वाहन मूषक उन्हें लेकर बेचारा चूहा अन्ततः कितना दौड़ता। गणेशजीके मनमें प्रथम पूज्य बननेकी लालसा कम नहीं थी, अतः अपनेको सबसे पिछड़ा देख वे उदास हो गये।
संयोगकी पर्यटन करनेवाले देवर्षि नारदजी खड़ाऊँ खटकाते, वीणा बजाते, भगवद्गुण गाते। उधरसे आ निकले। गणेशजीको उदास देखकर उन परम दयालुको दया आ गयी। उन्होंने पूछा—’पार्वतीनन्दन ! आज आपका मुख म्लान क्यों है ?’
गणेशजीने सब बातें बतायीं। देवर्षि हँस पड़े, बोले-‘वस!’ गणेशजीमें उत्साह आ गया। वे उत्कण्ठासे । उठे नारदजी! कोई युक्ति है क्या?”
‘बुद्धिके देवताके लिये भी युक्तियोंका अभाव !’ | देवर्षि फिर हँसे और बोले-‘आप जानते ही हैं कि माता साक्षात् पृथ्वीरूपा होती हैं और पिता परमात्माके | रूप होते हैं। इसमें भी आपके पिता उन परम ।तत्त्वके ही भीतर तो अनन्त अनन्त ब्रह्माण्ड हैं।’
गणेशजीको अब और कुछ सुनना समझना नहीं था। वे सीधे कैलास पहुँचे और भगवती पार्वतीकी अँगुली पकड़कर छोटे शिशुके समान खींचने लगे “माँ पिताजी तो समाधिमग्न हैं, पता नहीं उन्हें उठनेमें कितने युग बीतेंगे, तू ही चलकर उनके वामभागमें तनिक देरको बैठ जा! चल बैठ जा माँ!’
भगवती पार्वती हँसती हुई जाकर अपने ध्यानस्थ आराध्य के समीप बैठ गयीं, क्योंकि उनके मङ्गलमूर्ति कुमार इस समय कुछ पूछने बतानेकी मुद्रामें नहीं थे। वे उतावलीमें थे और केवल अपनी बात पूरी करनेका आग्रह कर रहे थे।
गणेशजीने भूमिमें लेटकर माता-पिताको प्रणाम किया, फिर चूहेपर बैठे और सात बार दोनोंकी प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके पुनः साष्टाङ्ग प्रणाम किया और माता कुछ पूछें इससे पहले तो उनका मूषक उन्हें लेकर ब्रह्मलोककी ओर चल पड़ा। वहाँ ब्रह्माजीको अभिवादन करके वे चुपचाप बैठ गये। सर्वज्ञ सृष्टिकर्ताने एक बार उनकी ओर देख लिया और अपने नेत्रोंसे ही मानो स्वीकृति दे दी।
बेचारे देवता वाहनोंको दौड़ाते पूरी शक्ति पृथ्वी प्रदक्षिणा यथाशीघ्र पूर्ण करके एकके बाद एक ब्रह्मलोक पहुँचे। जब सब देवता एकत्र हो गये, ब्रह्माजीने कहा-‘ श्रेष्ठता न शरीरबलको दी जा सकती, न वाहनवलको श्रद्धासमन्वित बुद्धिवल ही सर्वश्रेष्ठ है और उसमें भवानीनन्दन श्रीगणेशजी अग्रणी सिद्ध कर चुके अपनेको।’
देवताओंने पूरी बात सुन ली और तब चुपचाप गणेशजीके सम्मुख मस्तक झुका दिया। देवगुरु बृहस्पतिने उस समय कहा था- ‘सामान्य माता-पिताका सेवक और उनमें श्रद्धा रखनेवाला भी पृथ्वी प्रदक्षिणा करनेवाले श्रेष्ठ है, फिर गणेशजीने जिनकी प्रदक्षिणा की है, वे तो विश्वमूर्ति हैं इसे कोई अस्वीकार कैसे करेगा।’
देवता सभी पूज्य हैं; किंतु एक बार देवताओं में विवाद हो गया कि उनमें प्रथम पूज्य कौन है ? जब परस्पर कोई निर्णय न हो सका, तब वे एकत्र होकर | लोकपितामह ब्रह्माजीके पास पहुँचे। बूढ़े ब्रह्माजी बहुत कार्यव्यस्त रहते हैं। उन्हें सृष्टिके कार्यसे दो पलका भी अवकाश नहीं। पञ्चायत करनेको समय निकाल पाना उनके लिये कठिन ही था अपना नवीन सृजन कार्य करते-करते ही उन्होंने देवताओंकी बात सुन ली और एक निर्णय सुना दिया- ‘जो पृथ्वीकी प्रदक्षिणा करके सबसे पहले मेरे पास आ जाय वही अबसे प्रथम पूज्य माना जाये।’
देवराज इन्द्र अपने ऐरावतपर चढ़कर दौड़े, अग्रिदेवने अपने भेंडेको भगाया, धनाधीश कुबेरजीने अपनी सवारी ढोनेवाले कहारोंको दौड़नेकी आज्ञा दी। वरुणदेवका वाहन ठहरा मगर, अतः उन्होंने समुद्री मार्ग पकड़ा। सब देवता अपने-अपने वाहनोंको दौड़ाते हुए चल पड़े। सबसे पीछे रह गये गणेशजी। एक तो उनका तुन्दिल भारी भरकम शरीर और दूसरे वाहन मूषक उन्हें लेकर बेचारा चूहा अन्ततः कितना दौड़ता। गणेशजीके मनमें प्रथम पूज्य बननेकी लालसा कम नहीं थी, अतः अपनेको सबसे पिछड़ा देख वे उदास हो गये।
संयोगकी पर्यटन करनेवाले देवर्षि नारदजी खड़ाऊँ खटकाते, वीणा बजाते, भगवद्गुण गाते। उधरसे आ निकले। गणेशजीको उदास देखकर उन परम दयालुको दया आ गयी। उन्होंने पूछा—’पार्वतीनन्दन ! आज आपका मुख म्लान क्यों है ?’
गणेशजीने सब बातें बतायीं। देवर्षि हँस पड़े, बोले-‘वस!’ गणेशजीमें उत्साह आ गया। वे उत्कण्ठासे । उठे नारदजी! कोई युक्ति है क्या?”
‘बुद्धिके देवताके लिये भी युक्तियोंका अभाव !’ | देवर्षि फिर हँसे और बोले-‘आप जानते ही हैं कि माता साक्षात् पृथ्वीरूपा होती हैं और पिता परमात्माके | रूप होते हैं। इसमें भी आपके पिता उन परम ।तत्त्वके ही भीतर तो अनन्त अनन्त ब्रह्माण्ड हैं।’
गणेशजीको अब और कुछ सुनना समझना नहीं था। वे सीधे कैलास पहुँचे और भगवती पार्वतीकी अँगुली पकड़कर छोटे शिशुके समान खींचने लगे “माँ पिताजी तो समाधिमग्न हैं, पता नहीं उन्हें उठनेमें कितने युग बीतेंगे, तू ही चलकर उनके वामभागमें तनिक देरको बैठ जा! चल बैठ जा माँ!’
भगवती पार्वती हँसती हुई जाकर अपने ध्यानस्थ आराध्य के समीप बैठ गयीं, क्योंकि उनके मङ्गलमूर्ति कुमार इस समय कुछ पूछने बतानेकी मुद्रामें नहीं थे। वे उतावलीमें थे और केवल अपनी बात पूरी करनेका आग्रह कर रहे थे।
गणेशजीने भूमिमें लेटकर माता-पिताको प्रणाम किया, फिर चूहेपर बैठे और सात बार दोनोंकी प्रदक्षिणा की। प्रदक्षिणा करके पुनः साष्टाङ्ग प्रणाम किया और माता कुछ पूछें इससे पहले तो उनका मूषक उन्हें लेकर ब्रह्मलोककी ओर चल पड़ा। वहाँ ब्रह्माजीको अभिवादन करके वे चुपचाप बैठ गये। सर्वज्ञ सृष्टिकर्ताने एक बार उनकी ओर देख लिया और अपने नेत्रोंसे ही मानो स्वीकृति दे दी।
बेचारे देवता वाहनोंको दौड़ाते पूरी शक्ति पृथ्वी प्रदक्षिणा यथाशीघ्र पूर्ण करके एकके बाद एक ब्रह्मलोक पहुँचे। जब सब देवता एकत्र हो गये, ब्रह्माजीने कहा-‘ श्रेष्ठता न शरीरबलको दी जा सकती, न वाहनवलको श्रद्धासमन्वित बुद्धिवल ही सर्वश्रेष्ठ है और उसमें भवानीनन्दन श्रीगणेशजी अग्रणी सिद्ध कर चुके अपनेको।’
देवताओंने पूरी बात सुन ली और तब चुपचाप गणेशजीके सम्मुख मस्तक झुका दिया। देवगुरु बृहस्पतिने उस समय कहा था- ‘सामान्य माता-पिताका सेवक और उनमें श्रद्धा रखनेवाला भी पृथ्वी प्रदक्षिणा करनेवाले श्रेष्ठ है, फिर गणेशजीने जिनकी प्रदक्षिणा की है, वे तो विश्वमूर्ति हैं इसे कोई अस्वीकार कैसे करेगा।’