अपने बलपर अपना निर्माण

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एक बार श्रमण महावीर कुम्मार ग्रामसे कुछ दूर संध्या-वेलामें ध्यानस्थ खड़े थे। एक गोपाल आया और ध्यानस्थ महावीरसे बोला- ‘रे श्रमण ! जरा देखते रहना मेरे बैल यहाँ चर रहे हैं, मैं अभी लौटकर आया ।’ दीर्घतपस्वी महावीर अपनी समाधिमें थे।

गोपाल लौटकर आया तो देखा बैल वहाँ नहीं हैं, परंतु श्रमण वैसे ही ध्यानमें स्थित है। पूछा- ‘मेरे बैल कहाँ हैं?’ इधर-उधर देखा भी बहुत । पर बैलोंका कुछ भी अता-पता नहीं लगा। वे अपने सहज स्वभावसे चरते-चरते कहीं दूर निकल गये थे ।

श्रमण महावीरका कुछ उत्तर न पाकर वह कोपमें भरकर बोला—’ धूर्त! तू श्रमण नहीं, चोर है। ‘ इधर वह गोपाल रस्सीसे श्रमण महावीरको मारनेके लिये उद्यत होता है, उधर देवराज इन्द्र स्वर्गसे आते हैं कि कहीं यह अज्ञानी श्रमण महावीरको सताने न लगे।

इन्द्रने ललकारकर गोपालसे कहा – ‘सावधान, तू जिसे चोर समझता है, वे राजा सिद्धार्थके वर्चस्वी राजकुमार वर्धमान हैं। आत्म-साधनाके लिये इन्होंने कठोर श्रमणत्वको धारण किया है। दीर्घ तप और कठोर साधना करनेके कारण ये महावीर हैं।’

गोपाल अपने अज्ञानमूलक अपराधकी क्षमा माँगकर अ चला गया। पर, इन्द्रने श्रमण महावीरसे कहा- ‘भंते!आपका साधनाकाल लम्बा है। इस प्रकारके उपसर्ग, परीषह और संकट आगे और भी अधिक आ सकते हैं। अतः आपकी परम पवित्र सेवामें मैं आपके समीप रहनेकी कामना करता हूँ।’

गोपालका विरोध और इन्द्रका अनुरोध महावीरने सुना तो अवश्य । पर अभीतक वे अपने समाधिभावमें स्थिर थे । समाधि खोलकर बोले-

‘इन्द्र ! आजतकके आत्म-साधकोंके जीवन इतिहासमें न कभी यह हुआ, न कभी यह होगा और न कभी यह हो सकता है कि मुक्ति या मोक्ष अथवा कैवल्य दूसरेके बलपर, दूसरेके श्रमपर और दूसरेकी सहायतापर प्राप्त किया जा सके।’

आत्म-साधक अपने बल, अपने श्रम और अपनी शक्तिपर ही जीवित रहा है और रहेगा। वह अपनी मस्त जिन्दगीका बादशाह होता है, भिखारी नहीं। वह स्वयं अपना रक्षक है, वह किसीका संरक्ष्य होकर नहीं रह सकता। साधकका कैवल्य मोक्ष साधकके आत्म-बलमेंसे प्रसूत होता है। श्रमण भगवान् महावीरके सम्मुख जीवनके दो चित्र थे- गोपाल और इन्द्र । एक विरोधी, दूसरा विनत एक त्रासक, दूसरा भक्त । परंतु भगवान् दोनोंको समत्व दृष्टिसे देख रहे थे । न गोपालके अकृत्यके प्रति घृणा और न इन्द्रकी भक्तिके प्रति राग । यह समत्वयोग ही जनोत्थानका मूल मन्त्र है।

Once, Shraman Mahavir was standing meditating at some distance from Kummar village in the evening. A Gopal came and said to the meditative Mahavir – ‘ Hey Shraman! Just keep watching, my bulls are grazing here, I just came back.’ Long ascetic Mahavir was in his tomb.
When Gopal returned, he saw that the bull was not there, but the Shraman was still in meditation. Asked – ‘Where are my bulls?’ Saw a lot here and there too. But nothing was known about the bullocks. By their natural nature, they had gone somewhere far away while grazing.
After not getting any answer from Shraman Mahavir, he said in anger – ‘ Cunning! You are not a laborer, you are a thief. ‘ On the one hand, that Gopal tries to kill Shraman Mahavira with a rope, on the other side Devraj Indra comes from heaven so that this ignorant Shraman does not start torturing Mahavira.
Indra challenged Gopal and said – ‘Be careful, the one you consider a thief, he is King Siddhartha’s supreme prince Vardhaman. For self-cultivation, he has adopted a hard labor. He is Mahavir because of long penance and hard meditation.
Gopal left after apologizing for his ignorant crime. But, Indra said to Shraman Mahavir – ‘Bhante! Your meditation time is long. Such prefixes, trials and crises may come more and more. Therefore I wish to be near you in your most sacred service.’
Mahavir must have heard Gopal’s protest and Indra’s request. But till now he was stable in his trance. Opening the tomb, he said-
‘Indra! It has never happened in the life history of self-seekers till date, nor will it ever happen and can never happen that liberation or salvation or salvation can be achieved on the strength of others, on the labor of others and on the help of others.’
Self-seeker has lived and will live only on his own strength, his labor and his power. He is the king of his merry life, not a beggar. He is his own protector, he cannot be someone’s protector. The Kaivalya Moksha of the seeker is born from the self-strength of the seeker. There were two pictures of life in front of Shraman Bhagwan Mahavira – Gopal and Indra. One is an opponent, the other is a request, a travesty, the other is a devotee. But God was looking at both equally. Neither hatred towards Gopal’s inaction nor attachment towards Indra’s devotion. This Samatva Yoga is the basic mantra of the upliftment of the people.

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