एक ईश्वरविश्वासी, त्यागी महात्मा थे; वे किसीसे भीख नहीं माँगते, टोपी सीकर अपना गुजारा करते। एक टोपीकी कीमत सिर्फ दो पैसे लेते। इनमेंसे जो याचक पहले मिलता, उसे एक पैसा दे देते। बचे हुए एक पैसेसे पेट भरते। इस प्रकार जबतक दोनों पैसे बरत नहीं जाते तबतक नयी टोपी नहीं सीते। भजन ही करते रहते।
इनके एक धनी शिष्य था, उसके पास धर्मादिकी निकाली हुई कुछ रकम थी। उसने एक दिन पूछा, ‘भगवन्! मैं किसको दान करूँ ?’ महात्माने कहा, “जिसे सुपात्र समझो, उसीको दान करो।’ शिष्यने रास्ते में एक गरीब अंधेको देखा और उसे सुपात्र समझकर एक सोनेकी मोहर दे दी। दूसरे दिन उसी रास्तेसे शिष्य फिर निकला। पहले दिनवाला अंधा एक दूसरे अंधेसे कह रहा था कि ‘कल एक आदमीने मुझको एक सोनेकी मोहर दी थी, मैंने उससे खूब शराब पी और रातको अमुक वेश्याके यहाँ जाकर आनन्द लूटा।’
शिष्यको यह सुनकर बड़ा खेद हुआ। उसने महात्माके पास आकर सारा हाल कहा। महात्मा उसके हाथमें एक पैसा देकर बोले-‘जा, जो सबसे पहले। मिले उसीको पैसा दे देना।’ यह पैसा टोपी सौकर कमाया हुआ था।
शिष्य पैसा लेकर निकला, उसे एक मनुष्य मिलाउसने उसको पैसा दे दिया और उसके पीछे-पीछे चलना शुरू किया। वह मनुष्य एक निर्जन स्थानमें गया और उसने अपने कपड़ोंमें छिपाये हुए एक मरे पक्षीको निकालकर फेंक दिया। शिष्यने उससे पूछा कि ‘तुमने मरे पक्षीको कपड़ोंमें क्यों छिपाया था और अब क्यों निकालकर फेंक दिया ?’ उसने कहा- ‘आज सात दिनसे मेरे कुटुम्बको दाना-पानी नहीं मिला। भीख माँगना मुझे पसंद नहीं, आज इस जगह मरे पक्षीको पड़ा देख मैंने लाचार होकर अपनी और परिवारकी भूख मिटानेके लिये उठा लिया था और इसे लेकर मैं घर जा रहा था। आपने मुझे बिना ही माँगे पैसा दे दिया, इसलिये अब मुझे इस मरे पक्षीकी जरूरत नहीं रही। अतएव जहाँसे उठाया था, वहीं लाकर डाल दिया।’
शिष्यको उसकी बात सुनकर बड़ा अचरज हुआ। उसने महात्माके पास जाकर सब वृत्तान्त कहा। महात्मा बोले- ‘यह स्पष्ट है कि तुमने दुराचारियोंके साथ मिलकर अन्यायपूर्वक धन कमाया होगा; इसीसे उस धनका दान दुराचारी अंधेको दिया गया और उसने उससे सुरापान और वेश्या-गमन किया। मेरे न्यायपूर्वक कमाये हुए एक पैसेने एक कुटुम्बको निषिद्ध आहारसे बचा लिया। ऐसा होना स्वाभाविक ही है। अच्छा पैसा ही अच्छे काममें लगता है।’
There was a God-believing, renunciate Mahatma; They don’t beg from anyone, they earn their living by sewing caps. The cost of a cap would have been taken only two paise. Out of these, he would have given one paisa to the beggar who was found first. He used to fill his stomach with the remaining one penny. In this way, until both the money is spent, the new cap is not stitched. He used to do hymns.
He had a rich disciple, he had some amount taken out of charity. He asked one day, ‘ God! To whom should I donate? The Mahatma said, “Donate to whomever you consider deserving.” The disciple saw a poor blind man on the way and considering him worthy, gave him a gold stamp. On the second day, the disciple came out again on the same path. Drink and enjoy the night by going to the place of a certain prostitute.’
The disciple was very sorry to hear this. He came to Mahatma and told the whole situation. Mahatma gave a penny in his hand and said – ‘ Go, who is first. Give the money to the one you get. This money was earned by playing cap soccer.
The disciple went out with the money, he found a man, he gave him the money and started following him. The man went to a deserted place and took out a dead bird hidden in his clothes and threw it away. The disciple asked him, ‘Why did you hide the dead bird in your clothes and now why did you throw it out?’ He said- ‘Today my family did not get food and water for seven days. I don’t like begging, seeing a dead bird lying at this place today, I picked it up helplessly to satisfy my and my family’s hunger and I was going home with it. You gave me money without asking, so now I don’t need this dead bird anymore. That’s why brought it back from where it was picked up.’
The disciple was very surprised to hear his words. He went to the Mahatma and told all the stories. Mahatma said- ‘It is clear that you must have earned money unjustly by collaborating with miscreants; That’s why the donation of that money was given to the miscreant blind and he used it to drink alcohol and prostitute. My justly earned money saved a family from forbidden food. It is natural for this to happen. Good money is used for good work.