मौन व्याख्यान

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एक दिनकी बात है। योगिराज गम्भीरनाथ अपने कपिलधारा पहाड़ीवाले आश्रममें अत्यन्त शान्त और परम गम्भीर मुद्रामें बैठे हुए थे। वे आत्मानन्दके चिन्तनमें पूर्ण निमग्न थे। उसी समय उनके पवित्र दर्शनसे अपने आपको धन्य करनेके लिये कुछ शिक्षित बंगाली सज्जन आ पहुँचे। उन्होंने विनम्रतापूर्वक योगिराजसे उपदेश देनेके लिये निवेदन किया। योगिराजके अधरोंपर मुसकानकी मृदुल शान्ति थी; उनकी दृष्टिमें कल्याणप्रद आशीर्वादका अमृत था; उन्होंने बड़ी आत्मीयतासे उन सज्जनोंको आसन ग्रहण करनेका संकेत किया। सज्जनोंने उपदेशके लिये बड़ा आग्रह किया;

योगिराजकी विनम्रता मुखरित हो उठी- ‘वास्तवमें मैंकुछ भी नहीं जानता, आपको मैं क्या उपदेश दूँ।’ आगत सज्जन महापुरुषकी विनम्रतासे बहुत ही प्रभावित हुए, पर उनका यह दृढ़ विश्वास था कि बाबा गम्भीरनाथ आध्यात्मिक उन्नतिकी पराकाष्ठापर पहुँचे हुए हैं। अतएव उनके हृदयमें योगिराजके श्रीमुखसे उपदेश श्रवण करनेकी उत्सुकता कम न हो सकी। उन्होंने अपना आग्रह फिर उपस्थित किया और योगिराजने भी विनम्रताके साथ अपने पहले उत्तरको दुहरा दिया। उनके उत्तरमें किसी प्रकारका दम्भ या दिखावा नहीं था; योगिराजने मौन संकेत किया कि ‘यदि वे वास्तवमें जिज्ञासु हैं तो मेरे आचरणको देखें तथा सत्य-वस्तु तत्त्वकी खोज अपने भीतर करें।’

-रा0 श्री0

Once upon a time. Yogiraj Gambhirnath was sitting in his Kapildhara hill ashram in a very calm and very serious posture. He was completely engrossed in the thought of Atmanand. At the same time some educated Bengali gentlemen arrived to bless themselves with his holy darshan. He humbly requested Yogiraj to preach. There was soft peace of smile on the lips of Yogiraj; In his eyes, welfare was the nectar of blessings; He very intimately indicated to those gentlemen to take the seat. Gentlemen urged a lot for preaching;
Yogiraj’s humility became vocal – ‘Actually I don’t know anything, what should I preach to you.’ Aagat Sajjan was greatly impressed by the humility of the great man, but he firmly believed that Baba Gambhirnath had reached the pinnacle of spiritual progress. That’s why the eagerness in his heart to listen to the teachings from Yogiraj’s Shrimukh could not decrease. He presented his request again and Yogiraj also humbly repeated his earlier answer. There was no arrogance or pretense in his reply; Yogiraj silently hinted that ‘if they are really curious, then look at my behavior and search for the truth-object element within themselves.’

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