श्राद्धीय अन्न चमारको खिला देनेसे पैठणके ब्राह्मण एकनाथ स्वामीपर रुष्ट हो गये थे। फिर नया स्वयंपाक बना, उन्हें बुलानेपर भी वे न आये नाथके घर भगवान्का पानी भरनेवाले श्रीखंडियाने उस दिन नाथके साक्षात् पितरोंको बुलाकर श्राद्धीय अन्न खिला दिया। ब्राह्मण इस कृत्य से और भी चिढ़ गये!
उन्होंने नाथको जाति बहिष्कृत तो पहले ही कर दिया था। अब एक सभामें उन्हें बुलाकर इस पापका प्रायश्चित्त करनेको कहा।
नाथने कुछ पाप तो किया ही न था उन्होंने विनीत भावसे कहा- ‘भले ही आपलोग मुझे बहिष्कृत रखें, पर मैं प्रायश्चित्त नहीं करूँगा। मेरे माई बाप श्रीकृष्ण बैठे हुए हैं, मैं किस बातका प्रायश्चित्त करूँ ?’
ब्राह्मणोंने कहा- ‘एकनाथजी! यह तो हमलोग भी जानते हैं कि भगवान् तुम्हारे रक्षक हैं। फिर भी हमलोगोंकी बात रखकर आप प्रायश्चित्त अवश्य कर लें।’ एकनाथ तैयार हो गये। उनके समक्ष नाथने नदीमें डुबकी लगायी। शरीरमें भस्म, गोमय और पञ्चगव्यमला। ब्राह्मण जोर-जोरसे मन्त्र पढ़ रहे थे। इसी बीच वहाँ अकस्मात् नासिक त्र्यम्बकेश्वरसे एक ब्राह्मण आया और ‘एकनाथ कौन और कहाँ है ?’ यह पूछने लगा। उसके सर्वाङ्गमें कुष्ठ हो गया था, तिल रखनेको स्थान न था ।
ब्राह्मणोंने कहा-‘ -‘देखो, वह नदी किनारे प्रायश्चित्त कर रहा है। आखिर तुम्हें उससे क्या काम है ?’ अभ्यागत ब्राह्मणने बताया- ‘मैंने त्र्यम्बकेश्वरमें कठोर अनुष्ठान किया। भगवान् शंकरने प्रसन्न हो मुझे आदेश दिया कि पैठणमें जाओ। वहाँ विष्णुभक्त एकनाथने श्राद्धके दिन एक चमारको अन्न खिलाकर भूतदयाका अपूर्व पुण्य कमाया है। यदि वह तुम्हें उसमेंसे कुछ पुण्य दे देगा तो तुम्हारा कुष्ठ मिट जायगा।’
ब्राह्मण आश्चर्यके साथ आपसमें तरह-तरहके वितर्क करने लगे। कोढ़ी ब्राह्मणने एकनाथके पास पहुँचकर सारा हाल कह सुनाया। नाथने कहा- अवश्य ही उस दिन अन्न-दान कराकर भगवान् शंकरने मुझे भूतदयाका पुण्य प्राप्त कराया है। लो, उनकी आज्ञा है तो उसका थोड़ा भाग तुम्हें भी दिये देता हूँ ।’
प्रायश्चित्त करानेवाले ब्राह्मण एकटक देखते रहे । नाथने हाथमें जल ले उस पुण्यका अंशदान कर उसब्राह्मणपर प्रोक्षण किया। देखते-देखते उसकी काया स्वर्ण-सी चमक उठी । कुष्ठका नामोनिशान न था । प्रायश्चित्त करानेवालोंने ही नाथसे क्षमा माँग अपने संत द्रोहका प्रायश्चित्त किया।
-गो0 न0 बै0 (भक्ति-विजय, अ0 46 )
The Brahmins of Paithan were angry with Eknath Swami for feeding Shraddhiya food to Chamar. Then a new dish was prepared, even after calling them, they did not come to Nath’s house. On that day Shrikhandia, who used to fill God’s water, called the ancestors of Nath and fed them Shradh food. The Brahmin got even more irritated by this act!
He had already outcasted Nath. Now he was called in a meeting and asked to atone for this sin.
Nathan had not committed any sin, he humbly said – ‘Even if you keep me outcast, I will not repent. My parents Shri Krishna is sitting, for what should I make atonement?’
Brahmins said – ‘ Eknathji! We also know that God is your protector. Still, keeping our words, you must make atonement.’ Eknath got ready. Nathan took a dip in the river in front of him. Bhasma, Gomaya and Panchgavyamala in the body. Brahmins were reciting mantras loudly. Meanwhile, suddenly a Brahmin from Nasik Trimbakeshwar came there and asked ‘Who and where is Eknath?’ It started asking. He had leprosy all over, there was no place to keep the mole.
Brahmins said – ‘Look, he is doing atonement on the bank of the river. What business do you have with him?’ The visiting Brahmin told – ‘I performed austere rituals at Trimbakeshwar. Lord Shankar was pleased and ordered me to go to Paithan. There, Eknath, a devotee of Vishnu, has earned the unique virtue of ghost kindness by feeding food to a chamar on the day of Shraddha. If he gives you some virtue out of that, your leprosy will be cured.’
The Brahmins were surprised and started arguing with each other. The leper Brahmin reached Eknath and narrated the whole situation. Nathan said – Surely, by donating food on that day, Lord Shankar has made me get the virtue of Bhootadaya. Look, if it is his order, I will give you a little part of it too.’
The brahmins who performed atonement kept on watching. Nathan took water in his hand and sprinkled it on that Brahmin after contributing to that virtue. His body started shining like gold. There was no sign of leprosy. Only those who did atonement sought forgiveness from Nath and did atonement for betraying their saint.
– Go 0 Na 0 Bai 0 (Bhakti-Vijay, A 0 46 )