तेरा क्या भरोसा ?
एक गड़रिया अपनी बकरियों और बच्चोंको लेकर एक गाँवसे दूसरे गाँवको जा रहा था। रास्ता पहाड़ी जंगलका था। बादल तो दोपहरसे ही घिरने लगे थे, शाम होनेसे पहले ही वे ताबड़तोड़ बरसने लगे। पहाड़ी रास्ता और तेज बारिशकी मुसीबत तो थी ही, हवाई तूफानने गड़रियेकी हिम्मतके पैर ही उखाड़ दिये।
वह घबरा गया और सोचने लगा कि आजकी रात कैसे कटेगी! पर तभी उसे सामने ही एक पहाड़ी गुफा दिखायी दी। वह अपनी बकरियोंको जल्दी-जल्दी हाँककर गुफाके द्वारपर पहुँचा तो क्या देखता है कि गुफामें पहलेसे ही बहुत-सी जंगली भेड़ें और उनके बच्चे बैठे हुए हैं।
उन मोटी-ताजी भेड़ोंको देखकर वह अपनी पतली-दुबली बकरियोंको भूल गया और लोभमें फँसकर सोचने लगा कि यह बहुत अच्छा मौका मिला। मैं रातभरमें इन भेड़ोंको बहका-फुसलाकर अपनी बना लूँगा और बारिशके रुकनेपर इन्हें अपने साथ गाँव ले जाऊँगा। हमारे गाँवमें इतनी और ऐसी भेड़ें किसीके पास नहीं हैं। बस, मैं गाँवभरमें सबसे बड़ा आदमी बन जाऊँगा। दिनभरमें उसने अपनी बकरियोंके लिये जो हरी हरी घास इकट्ठी की थी, उसका गट्ठर लेकर वह गुफामें घुस गया और अपनी बकरियोंको बाहर बारिश और तूफानमें ही छोड़ गया। उसकी घासकी खुशबूके कारण गुफाके भीतरकी भेड़ें उसके आस-पास इकट्ठी हो गयीं। गड़रिया इससे बहुत खुश हुआ और उन्हें घासकी लच्छियाँ खिलाता रहा। वे भी खुशी-खुशी घास खाती रहीं। जब सुबह हुई तो बारिश नहीं हो रही थी और तूफान भी रुक गया था। धूप रही थी।
गड़रिया गुफासे बाहर निकला तो देखा कि रातके बरसाती थपेड़े खाकर उसकी बहुत-सी बकरियाँ मर गयी हैं और बहुत-सी इधर-उधर भाग गयी हैं। उसने सोचा, कोई बात नहीं, बकरियों गयीं तो क्या, इतनी अच्छी भेड़ें तो मिलीं। पर तभी उसने देखा कि भेड़ें उसके पीछे-पीछे नहीं, दूसरी तरफ जानेको मुड़ रही हैं। उसके कहनेपर भी वे उसके साथ नहीं चलीं।
गड़रियेको गुस्सा आ गया और चिल्लाकर उसने कहा- ‘कम्बख्तो, मैंने रातभर तुम्हें अपनी बकरियोंकी घास खिलायी और तुम्हारे लिये अपनी पालतू बकरियोंको गुफाके बाहर छोड़ा, पर तुम इतनी बेईमान हो कि अब मुझसे मुँह मोड़कर जा रही हो।’
एक भेड़ने, जो शायद उन भेड़ोंकी सरदार थी, गड़रियेसे कहा-‘हम इतनी बेवकूफ नहीं हैं, कि तुम जैसे बेईमान आदमीके पीछे चल पड़ें। भला, जब तू अपनी पालतू बकरियोंका साथी नहीं हो सका और हमें पानेके लोभमें उन्हें मौतके पंजेमें छोड़कर गुफामें घुस गया, तो तेरा क्या ऐतबार ? जा, अपना रास्ता देख !’
गड़रिया बहुत पछताया कि उसने बड़ा आदमी बननेके लोभमें अपना सब कुछ मिट्टीमें मिला लिया और बिलकुल नाश कर लिया।
बात ठीक है कि ‘जो स्वार्थ-लोभमें फँसकर अपनोंका साथ छोड़ता है, उन्हें धोखा देता है, उसका कोई अपना नहीं बनता और वह जीवनमें सदा ठोकरें ही खाता है।’ [ श्रीकन्हैयालालजी मिश्र, ‘प्रभाकर’ ]
तेरा क्या भरोसा ?
एक गड़रिया अपनी बकरियों और बच्चोंको लेकर एक गाँवसे दूसरे गाँवको जा रहा था। रास्ता पहाड़ी जंगलका था। बादल तो दोपहरसे ही घिरने लगे थे, शाम होनेसे पहले ही वे ताबड़तोड़ बरसने लगे। पहाड़ी रास्ता और तेज बारिशकी मुसीबत तो थी ही, हवाई तूफानने गड़रियेकी हिम्मतके पैर ही उखाड़ दिये।
वह घबरा गया और सोचने लगा कि आजकी रात कैसे कटेगी! पर तभी उसे सामने ही एक पहाड़ी गुफा दिखायी दी। वह अपनी बकरियोंको जल्दी-जल्दी हाँककर गुफाके द्वारपर पहुँचा तो क्या देखता है कि गुफामें पहलेसे ही बहुत-सी जंगली भेड़ें और उनके बच्चे बैठे हुए हैं।
उन मोटी-ताजी भेड़ोंको देखकर वह अपनी पतली-दुबली बकरियोंको भूल गया और लोभमें फँसकर सोचने लगा कि यह बहुत अच्छा मौका मिला। मैं रातभरमें इन भेड़ोंको बहका-फुसलाकर अपनी बना लूँगा और बारिशके रुकनेपर इन्हें अपने साथ गाँव ले जाऊँगा। हमारे गाँवमें इतनी और ऐसी भेड़ें किसीके पास नहीं हैं। बस, मैं गाँवभरमें सबसे बड़ा आदमी बन जाऊँगा। दिनभरमें उसने अपनी बकरियोंके लिये जो हरी हरी घास इकट्ठी की थी, उसका गट्ठर लेकर वह गुफामें घुस गया और अपनी बकरियोंको बाहर बारिश और तूफानमें ही छोड़ गया। उसकी घासकी खुशबूके कारण गुफाके भीतरकी भेड़ें उसके आस-पास इकट्ठी हो गयीं। गड़रिया इससे बहुत खुश हुआ और उन्हें घासकी लच्छियाँ खिलाता रहा। वे भी खुशी-खुशी घास खाती रहीं। जब सुबह हुई तो बारिश नहीं हो रही थी और तूफान भी रुक गया था। धूप रही थी।
गड़रिया गुफासे बाहर निकला तो देखा कि रातके बरसाती थपेड़े खाकर उसकी बहुत-सी बकरियाँ मर गयी हैं और बहुत-सी इधर-उधर भाग गयी हैं। उसने सोचा, कोई बात नहीं, बकरियों गयीं तो क्या, इतनी अच्छी भेड़ें तो मिलीं। पर तभी उसने देखा कि भेड़ें उसके पीछे-पीछे नहीं, दूसरी तरफ जानेको मुड़ रही हैं। उसके कहनेपर भी वे उसके साथ नहीं चलीं।
गड़रियेको गुस्सा आ गया और चिल्लाकर उसने कहा- ‘कम्बख्तो, मैंने रातभर तुम्हें अपनी बकरियोंकी घास खिलायी और तुम्हारे लिये अपनी पालतू बकरियोंको गुफाके बाहर छोड़ा, पर तुम इतनी बेईमान हो कि अब मुझसे मुँह मोड़कर जा रही हो।’
एक भेड़ने, जो शायद उन भेड़ोंकी सरदार थी, गड़रियेसे कहा-‘हम इतनी बेवकूफ नहीं हैं, कि तुम जैसे बेईमान आदमीके पीछे चल पड़ें। भला, जब तू अपनी पालतू बकरियोंका साथी नहीं हो सका और हमें पानेके लोभमें उन्हें मौतके पंजेमें छोड़कर गुफामें घुस गया, तो तेरा क्या ऐतबार ? जा, अपना रास्ता देख !’
गड़रिया बहुत पछताया कि उसने बड़ा आदमी बननेके लोभमें अपना सब कुछ मिट्टीमें मिला लिया और बिलकुल नाश कर लिया।
बात ठीक है कि ‘जो स्वार्थ-लोभमें फँसकर अपनोंका साथ छोड़ता है, उन्हें धोखा देता है, उसका कोई अपना नहीं बनता और वह जीवनमें सदा ठोकरें ही खाता है।’ [ श्रीकन्हैयालालजी मिश्र, ‘प्रभाकर’ ]