लक्ष्य तो निर्धारित करो!
गोविन्द एक छोटी-सी दुकानसे अपना घर-खर्च चलाता था। न उसके पास जमा करनेलायक बचता था, न कमी पड़ती थी। उसे अचानक अपना जीवन निरर्थक लगने लगा। उसने सोचा, मैंने जीवनमें आखिर पाया ही क्या है? मेरे देखते-ही-देखते कई लोग लखपती हो गये। कोई मशहूर कलाकार बन गया, कोई बड़ा व्यापारी, परंतु मैं बस, एक सामान्य आदमी बनकर रह गया हूँ। गोविन्दके मनमें बेहद हताशाकी भावना आ गयी। उसने अपने मनमें कुछ संकल्प लिया और जंगलकी तरफ चल दिया। वह चाहता था कि कोई जंगली जानवर उसे अपना शिकार बना ले, ताकि इस निरर्थक जिन्दगीसे छुटकारा मिल जाय। मन-ही-मन कई प्रकारके बुरे खयालोंमें उलझा हुआ वह आगे बढ़ता ही जा रहा था। ठण्ड बढ़ने लगी थी। मगर, जो मृत्युका वरण करने चला हो, उसे क्या ठण्ड लगे और क्या गर्मी! जंगली जानवरोंकी भयंकर आवाजें आने लगी थीं। यद्यपि अभीतक कोई जानवर उसके नजदीक नहीं पहुँचा था। वह अपनी मृत्युकी तलाशमें भटक रहा था।
गोविन्दने देखा, उस बियाबान जंगलमें एक घने बरगद के नीचे कोई बैठा है। उत्सुकतावश वह नजदीक गया। देखा, एक महात्माजी बैठे हैं। गोविन्दके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। वह महात्माजीके पास गया। उन्हें प्रणाम करते हुए उसने पूछा- ‘महाराज! इस खतरनाक जंगलमें आप क्या कर रहे हैं? जंगलके बाहर गाँव हैं, वहाँ क्यों नहीं भजन-पूजन करते ?’ महात्माजी मुसकराकर बोले-‘हम साधु तो एकान्त ही खोजते हैं। यह सवाल तो मुझे तुमसे पूछना चाहिये कि इस बियाबान जंगलमें; जहाँ पग-पगपर मौत घूम रही है, वहाँ तुम क्या करने आये हो? तुम्हें कोई कष्ट है, तो मुझे बताओ।’
मानो गोविन्दकी दुखती रगपर हाथ रख दिया गया। हो। वह फफककर रो पड़ा। उसने रोते-रोते अपने मनका दर्द महात्माजीको बता दिया। महात्माजीने उसकी पूरी बात ध्यानपूर्वक सुनी, फिर बोले-‘अच्छा, गोविन्द, तुम यह सोचकर दुखी हो कि जीवनमें कुछ साध नहीं पाये ? सचमुच हर इंसानको ऐसा सोचना चाहिये। वह इंसान ही क्या, जो जीवनमें कोई उल्लेखनीय काम न कर पाये ? परंतु मुझे यह तो बताओ कि तुमने क्या साधना चाहा या क्या प्राप्त करना चाहा ?’ महात्माजीके इस प्रश्नपर गोविन्द बुरी तरह अचकचा गया। बोला-‘जी, यह तो मैंने सोचा ही नहीं।’ महात्माजी बोले- ‘तुमने तीरका निशाना तो निर्धारित ही नहीं किया, फिर लक्ष्यवेध न कर पानेका दुःख कैसा? जब तुमने अपना लक्ष्य ही निर्धारित नहीं किया तो प्राप्त क्या करना चाहते हो ? जाओ, पहले अपना लक्ष्य सोचो, फिर उसे प्राप्त करनेकी बात सोचना।’
महात्माजीकी बात सुनकर गोविन्दकी आँखें खुल गर्यो। उसने जीवनको त्यागनेका निर्णय त्याग दिया। अब उसे जिन्दगी जीनी थी, वह भी एक लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये।
लक्ष्य प्राप्तिके लिये लक्ष्यका होना आवश्यक है।
लक्ष्य तो निर्धारित करो!
गोविन्द एक छोटी-सी दुकानसे अपना घर-खर्च चलाता था। न उसके पास जमा करनेलायक बचता था, न कमी पड़ती थी। उसे अचानक अपना जीवन निरर्थक लगने लगा। उसने सोचा, मैंने जीवनमें आखिर पाया ही क्या है? मेरे देखते-ही-देखते कई लोग लखपती हो गये। कोई मशहूर कलाकार बन गया, कोई बड़ा व्यापारी, परंतु मैं बस, एक सामान्य आदमी बनकर रह गया हूँ। गोविन्दके मनमें बेहद हताशाकी भावना आ गयी। उसने अपने मनमें कुछ संकल्प लिया और जंगलकी तरफ चल दिया। वह चाहता था कि कोई जंगली जानवर उसे अपना शिकार बना ले, ताकि इस निरर्थक जिन्दगीसे छुटकारा मिल जाय। मन-ही-मन कई प्रकारके बुरे खयालोंमें उलझा हुआ वह आगे बढ़ता ही जा रहा था। ठण्ड बढ़ने लगी थी। मगर, जो मृत्युका वरण करने चला हो, उसे क्या ठण्ड लगे और क्या गर्मी! जंगली जानवरोंकी भयंकर आवाजें आने लगी थीं। यद्यपि अभीतक कोई जानवर उसके नजदीक नहीं पहुँचा था। वह अपनी मृत्युकी तलाशमें भटक रहा था।
गोविन्दने देखा, उस बियाबान जंगलमें एक घने बरगद के नीचे कोई बैठा है। उत्सुकतावश वह नजदीक गया। देखा, एक महात्माजी बैठे हैं। गोविन्दके आश्चर्यका ठिकाना न रहा। वह महात्माजीके पास गया। उन्हें प्रणाम करते हुए उसने पूछा- ‘महाराज! इस खतरनाक जंगलमें आप क्या कर रहे हैं? जंगलके बाहर गाँव हैं, वहाँ क्यों नहीं भजन-पूजन करते ?’ महात्माजी मुसकराकर बोले-‘हम साधु तो एकान्त ही खोजते हैं। यह सवाल तो मुझे तुमसे पूछना चाहिये कि इस बियाबान जंगलमें; जहाँ पग-पगपर मौत घूम रही है, वहाँ तुम क्या करने आये हो? तुम्हें कोई कष्ट है, तो मुझे बताओ।’
मानो गोविन्दकी दुखती रगपर हाथ रख दिया गया। हो। वह फफककर रो पड़ा। उसने रोते-रोते अपने मनका दर्द महात्माजीको बता दिया। महात्माजीने उसकी पूरी बात ध्यानपूर्वक सुनी, फिर बोले-‘अच्छा, गोविन्द, तुम यह सोचकर दुखी हो कि जीवनमें कुछ साध नहीं पाये ? सचमुच हर इंसानको ऐसा सोचना चाहिये। वह इंसान ही क्या, जो जीवनमें कोई उल्लेखनीय काम न कर पाये ? परंतु मुझे यह तो बताओ कि तुमने क्या साधना चाहा या क्या प्राप्त करना चाहा ?’ महात्माजीके इस प्रश्नपर गोविन्द बुरी तरह अचकचा गया। बोला-‘जी, यह तो मैंने सोचा ही नहीं।’ महात्माजी बोले- ‘तुमने तीरका निशाना तो निर्धारित ही नहीं किया, फिर लक्ष्यवेध न कर पानेका दुःख कैसा? जब तुमने अपना लक्ष्य ही निर्धारित नहीं किया तो प्राप्त क्या करना चाहते हो ? जाओ, पहले अपना लक्ष्य सोचो, फिर उसे प्राप्त करनेकी बात सोचना।’
महात्माजीकी बात सुनकर गोविन्दकी आँखें खुल गर्यो। उसने जीवनको त्यागनेका निर्णय त्याग दिया। अब उसे जिन्दगी जीनी थी, वह भी एक लक्ष्यकी प्राप्तिके लिये।
लक्ष्य प्राप्तिके लिये लक्ष्यका होना आवश्यक है।