बात अठारहवीं शताब्दीकी है। पण्डित श्रीरामनाथ तर्कसिद्धान्तने अध्ययन समाप्त करके बंगालके विद्याकेन्द्र नवद्वीप नगरके बाहर अपनी कुटिया बना ली थी और पत्नीके साथ त्यागमय ऋषि जीवन स्वीकार किया था। उनके यहाँ अध्ययनके लिये छात्रोंका एक समुदाय सदा टिका रहता था। पण्डितजीने वहाँके अन्य विद्वानोंके समान राजासे कोई वृत्ति ली नहीं थी और वे किसीसे कुछ माँगते भी नहीं थे। एक दिन जब वे विद्यार्थियों को पढ़ाने जा रहे थे, उनकी पत्नीने कहा- ‘घरमें एक मुट्ठी चावलमात्र है, भोजन क्या बनेगा ?’ पण्डितजीने केवल पत्नीकी ओर देख लिया, कोई उत्तर दिये बिना ही कुटियासे बाहर वे अपने छात्रोंके बीच ग्रन्थ लेकर बैठ गये।
भोजनके समय जब वे भीतर आये, तब उनके सामने थोड़े-से चावल तथा उबाली हुई कुछ पत्तियाँ आयीं। उन्होंने पत्नीसे पूछा- ‘भद्रे ! यह स्वादिष्ट शाक किस वस्तुका है?’
– ‘मेरे पूछनेपर आपकी दृष्टि इमलीके पत्नीने कहा-‘ वृक्षकी ओर गयी थी। मैंने उसीके पत्तोंका शाक बनाया है।’पण्डितजीने निश्चिन्ततासे कहा-‘इमलीके पत्तोंका शाक इतना स्वादिष्ट होता है, तब तो हमलोगोंको भोजनके विषयमें कोई चिन्ता नहीं रही।’
इस समय कृष्णनगरके राजा थे महाराज शिवचन्द्र । उन्होंने पण्डित श्रीरामनाथ तर्कसिद्धान्तकी विद्वत्ताकी प्रशंसा सुनी और उनकी आर्थिक स्थितिकी बात भी सुनी। महाराजने बहुत प्रयत्न किया कि पण्डितजी उनके नगरमें आकर रहें; किंतु निःस्पृह ब्राह्मणने इसे स्वीकार नहीं किया। इससे स्वयं महाराज एक दिन उनकी पाठशाला में पहुँचे। उन्होंने प्रणाम करके पूछा- ‘पण्डितजी ! आपको किसी विषयमें अनुपपत्ति तो नहीं ?”
तर्कसिद्धान्तजी बोले-‘महाराज ! मैंने चारुचिन्तामणि ग्रन्थकी रचना की है। मुझे तो उसमें कोई अनुपपत्ति जान नहीं पड़ी। आपको कहीं कोई अनुपपत्ति या असङ्गति मिली है ? ‘
महाराजने हँसकर कहा- ‘मैं आपसे तर्कशास्त्रकी बात नहीं पूछ रहा हूँ। मैं पूछता हूँ कि घरका निर्वाह करनेमें आपको किसी बातका अभाव तो नहीं ?’ पण्डितजीने सीधा उत्तर दिया- ‘घरकी बात तो
घरवाली जाने ।’ पण्डितजीकी आज्ञा लेकर महाराज कुटियामें गये । उन्होंने ब्राह्मणीको प्रणाम करके अपना परिचय दिया और पूछा—’माताजी! आपके घरमें कोई अभाव हो तो आज्ञा करें, मैं उसकी पूर्तिकी व्यवस्था कर दूँ।’
ब्राह्मणी भी तो त्यागी नि:स्पृह तर्कसिद्धान्तकी पत्नी थीं। वे बोलीं – ‘राजन् ! मेरी कुटियामें कोई अभाव नहीं है। मेरे पहननेका वस्त्र अभी इतना नहीं फटा कि जो उपयोगमें न आ सके, जलका मटका अभी तनिक भी फूटा नहीं है और फिर मेरे हाथमें चूड़ियाँ बनी हैं, तबतक मुझे अभाव क्या ।’
राजा शिवचन्द्र ने उस देवीको भूमिमें मस्तक रखकर प्रणाम किया।
बात अठारहवीं शताब्दीकी है। पण्डित श्रीरामनाथ तर्कसिद्धान्तने अध्ययन समाप्त करके बंगालके विद्याकेन्द्र नवद्वीप नगरके बाहर अपनी कुटिया बना ली थी और पत्नीके साथ त्यागमय ऋषि जीवन स्वीकार किया था। उनके यहाँ अध्ययनके लिये छात्रोंका एक समुदाय सदा टिका रहता था। पण्डितजीने वहाँके अन्य विद्वानोंके समान राजासे कोई वृत्ति ली नहीं थी और वे किसीसे कुछ माँगते भी नहीं थे। एक दिन जब वे विद्यार्थियों को पढ़ाने जा रहे थे, उनकी पत्नीने कहा- ‘घरमें एक मुट्ठी चावलमात्र है, भोजन क्या बनेगा ?’ पण्डितजीने केवल पत्नीकी ओर देख लिया, कोई उत्तर दिये बिना ही कुटियासे बाहर वे अपने छात्रोंके बीच ग्रन्थ लेकर बैठ गये।
भोजनके समय जब वे भीतर आये, तब उनके सामने थोड़े-से चावल तथा उबाली हुई कुछ पत्तियाँ आयीं। उन्होंने पत्नीसे पूछा- ‘भद्रे ! यह स्वादिष्ट शाक किस वस्तुका है?’
– ‘मेरे पूछनेपर आपकी दृष्टि इमलीके पत्नीने कहा-‘ वृक्षकी ओर गयी थी। मैंने उसीके पत्तोंका शाक बनाया है।’पण्डितजीने निश्चिन्ततासे कहा-‘इमलीके पत्तोंका शाक इतना स्वादिष्ट होता है, तब तो हमलोगोंको भोजनके विषयमें कोई चिन्ता नहीं रही।’
इस समय कृष्णनगरके राजा थे महाराज शिवचन्द्र । उन्होंने पण्डित श्रीरामनाथ तर्कसिद्धान्तकी विद्वत्ताकी प्रशंसा सुनी और उनकी आर्थिक स्थितिकी बात भी सुनी। महाराजने बहुत प्रयत्न किया कि पण्डितजी उनके नगरमें आकर रहें; किंतु निःस्पृह ब्राह्मणने इसे स्वीकार नहीं किया। इससे स्वयं महाराज एक दिन उनकी पाठशाला में पहुँचे। उन्होंने प्रणाम करके पूछा- ‘पण्डितजी ! आपको किसी विषयमें अनुपपत्ति तो नहीं ?”
तर्कसिद्धान्तजी बोले-‘महाराज ! मैंने चारुचिन्तामणि ग्रन्थकी रचना की है। मुझे तो उसमें कोई अनुपपत्ति जान नहीं पड़ी। आपको कहीं कोई अनुपपत्ति या असङ्गति मिली है ? ‘
महाराजने हँसकर कहा- ‘मैं आपसे तर्कशास्त्रकी बात नहीं पूछ रहा हूँ। मैं पूछता हूँ कि घरका निर्वाह करनेमें आपको किसी बातका अभाव तो नहीं ?’ पण्डितजीने सीधा उत्तर दिया- ‘घरकी बात तो
घरवाली जाने ।’ पण्डितजीकी आज्ञा लेकर महाराज कुटियामें गये । उन्होंने ब्राह्मणीको प्रणाम करके अपना परिचय दिया और पूछा—’माताजी! आपके घरमें कोई अभाव हो तो आज्ञा करें, मैं उसकी पूर्तिकी व्यवस्था कर दूँ।’
ब्राह्मणी भी तो त्यागी नि:स्पृह तर्कसिद्धान्तकी पत्नी थीं। वे बोलीं – ‘राजन् ! मेरी कुटियामें कोई अभाव नहीं है। मेरे पहननेका वस्त्र अभी इतना नहीं फटा कि जो उपयोगमें न आ सके, जलका मटका अभी तनिक भी फूटा नहीं है और फिर मेरे हाथमें चूड़ियाँ बनी हैं, तबतक मुझे अभाव क्या ।’
राजा शिवचन्द्र ने उस देवीको भूमिमें मस्तक रखकर प्रणाम किया।