राजा बृहदश्व सौ अश्वमेध यज्ञ करना चाहते थे। लगभग बानवे यज्ञ वे कर चुके थे। उनके गुरु उस समय समाधिस्थ थे। “राजा सौ यज्ञ पूरा करनेपर स्वर्गका राज्य पायेंगे और तब उनकी आत्मोन्नति मन्द हो जायगीः क्योंकि फिर वे स्वर्गमें एक कल्पतक राज्य करेंगे और क्षीणपुण्य होते ही वे फिर ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं’ के चक्करमें पड़ जायेंगे। यह सब न होने पाये और राजा सीधे आत्मोन्नतिके उन्नत सोपानपर चढ़ जायें।” – यह विचारकर उनके श्रीगुरुने एक ब्राह्मणके यहाँ जन्म लिया। राजाने जब सौवाँ यज्ञ प्रारम्भ किया, उस समय उनके गुरु श्रीवामदेवजी नौ वर्षके थे। उनका यज्ञोपवीत हो चुका था। भिक्षा माँगते समय पिताकी आज्ञा लेकर श्रीवामदेवजी प्रथम भिक्षा माँगने राजाके पास गये। श्रीवामदेवका अद्भुत वटुकस्वरूप, अनुपम कान्ति, हाथमें दण्ड- कमण्डलु इत्यादि देखकर राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये। श्रीवामदेवजीने कहा- ‘मैं भिक्षा माँगने आया हूँ।’ अश्वमेध यज्ञके नियमानुसार राजाने उनसे इच्छानुसार माँगने को कहा। इसपर श्रीवामदेवजीने कहा-‘मैं जो माँगें, वह यदि मुझे न मिला तो फिर क्याहोगा! इसलिये आप पहले यह संकल्प करें कि मैं जो कुछ माँगूँगा, वह आप दे चुके हैं।’ ‘ये बहुत माँगेंगे तो सारा राजपाट माँग लेंगे और अश्वमेध करनेवालेको मुँहमाँगा देनेके लिये तैयार रहना ही पड़ता है’- यह सोचकर राजाने संकल्प करते हुए कहा – ‘आप जो माँगेंगे, वह मैंने आपको दे दिया।’ तब वामदेवजीने -‘जो तेरा है, वह सब मेरा हो जाय।’ राजा तुरंत कहा -‘ राज्यासनपरसे हट गये और वामदेवजी उसपर जा विराजे। आपने दानपर दक्षिणा माँगी, तब राजाने शरीरपरसे आभूषण उतारकर वामदेवजीके चरणोंपर रख दिये। परंतु ‘तेरा है, वह सब मेरा हो जाय’ इस वचनके अनुसार राजाकी सभी चीजें श्रीवामदेवजीकी पहले ही हो चुकी थीं। अतएव श्रीवामदेवजीने कहा कि – ‘ये आभूषण तो मेरे ही हैं। अब आपके पास यदि कुछ शेष रहा हो तो उसमेंसे दक्षिणा दीजिये।’ ये शब्द सुनते ही राजाने सोचा कि वामदेवजीने उनके अश्वमेधका सारा पुण्य भी ले लिया है। अब राजा सोचने लगे कि ‘क्या किया जाय ?’ तब वामदेवजीने कहा – ‘सावधान! कुछ मत सोचो। कारण, तुम्हारा मनभी तो मेरा हो चुका है। तुमको मैं विचारतक नहीं करने दूंगा।’ यह सुनकर राजा मूर्छित हो गये और स्वप्न देखने लगे कि वे मरनेके बाद यमके दरबारमें पहुँचे हैं। वहाँ उनका बड़ा सत्कार हुआ। फिर उनसे कहा गया कि उनका बहुत बड़ा पुण्य है और उन्हें स्वर्गका राज्य मिलनेवाला है परंतु कुछ पाप भी है। अतएव यह प्रश्न आया। वे पहले पाप भोगेंगे या पुण्य ?’ उसी स्वप्नावस्था में राजाने सोचा कि पुण्यके बाद पापके भोगनेमें कष्ट होगा, इसलिये उन्होंने पहले पाप भोगनेकी इच्छा प्रकट की। इसपर वे मरुभूमिमें डाल दिये गये। वहाँ सूर्यकी कड़ी धूप और गरमागरम बालूसे राजा मानो झुलसने लगे। उस समय वे विचार करने लगे कि ‘मैंने अपना सब कुछ वामदेवजीको दे दिया है। पुण्य भी दे दिया है, तब फिर यह पाप मुझे क्यों भोगना पड़ रहा है? उनकेयह सोचते ही वह मरुभूमि चन्दनवत् शीतल हो गयी और वामदेवजीने वहाँ प्रकट होकर कहा – ‘यदि तुम यमके दरबारमें कह देते कि तुमने पाप-पुण्य दोनों मुझे दे दिये हैं तो तुम्हें पाप भोगना न पड़ता। परंतु तुम्हें पुण्य भोगनेका मन था, इसलिये यह पाप भी भोगना पड़ा। जब पुण्य तुम भोगते तब पाप मैं थोड़े ही भोगता।’
राजाकी मूर्छा दूर हो गयी। वे उठकर बैठ गये । सामने श्रीवामदेवजी खड़े थे। अपने गुरुको पहचानकर राजाने उन्हें सादर प्रणाम किया।
भक्तको इसी तरह अपने मनका साधन करना पड़ता है। मन अर्पण करनेके बाद साधकका कुछ भी नहीं रहता। फिर तो साधक ऐसा काम करेगा ही नहीं, जिससे उसको पाप-पुण्यका बन्धन हो l
राजा बृहदश्व सौ अश्वमेध यज्ञ करना चाहते थे। लगभग बानवे यज्ञ वे कर चुके थे। उनके गुरु उस समय समाधिस्थ थे। “राजा सौ यज्ञ पूरा करनेपर स्वर्गका राज्य पायेंगे और तब उनकी आत्मोन्नति मन्द हो जायगीः क्योंकि फिर वे स्वर्गमें एक कल्पतक राज्य करेंगे और क्षीणपुण्य होते ही वे फिर ‘पुनरपि जननं पुनरपि मरणं’ के चक्करमें पड़ जायेंगे। यह सब न होने पाये और राजा सीधे आत्मोन्नतिके उन्नत सोपानपर चढ़ जायें।” – यह विचारकर उनके श्रीगुरुने एक ब्राह्मणके यहाँ जन्म लिया। राजाने जब सौवाँ यज्ञ प्रारम्भ किया, उस समय उनके गुरु श्रीवामदेवजी नौ वर्षके थे। उनका यज्ञोपवीत हो चुका था। भिक्षा माँगते समय पिताकी आज्ञा लेकर श्रीवामदेवजी प्रथम भिक्षा माँगने राजाके पास गये। श्रीवामदेवका अद्भुत वटुकस्वरूप, अनुपम कान्ति, हाथमें दण्ड- कमण्डलु इत्यादि देखकर राजा हाथ जोड़कर खड़े हो गये। श्रीवामदेवजीने कहा- ‘मैं भिक्षा माँगने आया हूँ।’ अश्वमेध यज्ञके नियमानुसार राजाने उनसे इच्छानुसार माँगने को कहा। इसपर श्रीवामदेवजीने कहा-‘मैं जो माँगें, वह यदि मुझे न मिला तो फिर क्याहोगा! इसलिये आप पहले यह संकल्प करें कि मैं जो कुछ माँगूँगा, वह आप दे चुके हैं।’ ‘ये बहुत माँगेंगे तो सारा राजपाट माँग लेंगे और अश्वमेध करनेवालेको मुँहमाँगा देनेके लिये तैयार रहना ही पड़ता है’- यह सोचकर राजाने संकल्प करते हुए कहा – ‘आप जो माँगेंगे, वह मैंने आपको दे दिया।’ तब वामदेवजीने -‘जो तेरा है, वह सब मेरा हो जाय।’ राजा तुरंत कहा -‘ राज्यासनपरसे हट गये और वामदेवजी उसपर जा विराजे। आपने दानपर दक्षिणा माँगी, तब राजाने शरीरपरसे आभूषण उतारकर वामदेवजीके चरणोंपर रख दिये। परंतु ‘तेरा है, वह सब मेरा हो जाय’ इस वचनके अनुसार राजाकी सभी चीजें श्रीवामदेवजीकी पहले ही हो चुकी थीं। अतएव श्रीवामदेवजीने कहा कि – ‘ये आभूषण तो मेरे ही हैं। अब आपके पास यदि कुछ शेष रहा हो तो उसमेंसे दक्षिणा दीजिये।’ ये शब्द सुनते ही राजाने सोचा कि वामदेवजीने उनके अश्वमेधका सारा पुण्य भी ले लिया है। अब राजा सोचने लगे कि ‘क्या किया जाय ?’ तब वामदेवजीने कहा – ‘सावधान! कुछ मत सोचो। कारण, तुम्हारा मनभी तो मेरा हो चुका है। तुमको मैं विचारतक नहीं करने दूंगा।’ यह सुनकर राजा मूर्छित हो गये और स्वप्न देखने लगे कि वे मरनेके बाद यमके दरबारमें पहुँचे हैं। वहाँ उनका बड़ा सत्कार हुआ। फिर उनसे कहा गया कि उनका बहुत बड़ा पुण्य है और उन्हें स्वर्गका राज्य मिलनेवाला है परंतु कुछ पाप भी है। अतएव यह प्रश्न आया। वे पहले पाप भोगेंगे या पुण्य ?’ उसी स्वप्नावस्था में राजाने सोचा कि पुण्यके बाद पापके भोगनेमें कष्ट होगा, इसलिये उन्होंने पहले पाप भोगनेकी इच्छा प्रकट की। इसपर वे मरुभूमिमें डाल दिये गये। वहाँ सूर्यकी कड़ी धूप और गरमागरम बालूसे राजा मानो झुलसने लगे। उस समय वे विचार करने लगे कि ‘मैंने अपना सब कुछ वामदेवजीको दे दिया है। पुण्य भी दे दिया है, तब फिर यह पाप मुझे क्यों भोगना पड़ रहा है? उनकेयह सोचते ही वह मरुभूमि चन्दनवत् शीतल हो गयी और वामदेवजीने वहाँ प्रकट होकर कहा – ‘यदि तुम यमके दरबारमें कह देते कि तुमने पाप-पुण्य दोनों मुझे दे दिये हैं तो तुम्हें पाप भोगना न पड़ता। परंतु तुम्हें पुण्य भोगनेका मन था, इसलिये यह पाप भी भोगना पड़ा। जब पुण्य तुम भोगते तब पाप मैं थोड़े ही भोगता।’
राजाकी मूर्छा दूर हो गयी। वे उठकर बैठ गये । सामने श्रीवामदेवजी खड़े थे। अपने गुरुको पहचानकर राजाने उन्हें सादर प्रणाम किया।
भक्तको इसी तरह अपने मनका साधन करना पड़ता है। मन अर्पण करनेके बाद साधकका कुछ भी नहीं रहता। फिर तो साधक ऐसा काम करेगा ही नहीं, जिससे उसको पाप-पुण्यका बन्धन हो l