एक नास्तिककी भक्ति
हरिराम नामक एक आदमी शहरकी एक छोटी-सी गली में रहता था। वह एक मेडिकल स्टोरका मालिक था। सारी दवाइयोंकी उसे अच्छी जानकारी थी। दस सालका अनुभव होनेके कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन-सी दवाई कहाँ रखी है। वह इस पेशेको बड़े ही शौकसे, बहुत ही निष्ठासे करता था। उसकी दूकान में सदैव भीड़ लगी रहती थी, वह ग्राहकोंको वांछित दवाइयाँ सावधानी से और पूरे इत्मीनानके साथ देता था।
पर उसे भगवान्पर कोई भरोसा नहीं था। वह एक नास्तिक था। भगवान् के नामसे ही वह चिढ़ने लगता था। घरवाले उसे बहुत समझाते, पर वह उनकी एक न सुनता था। खाली वक्त मिलनेपर वह अपने दोस्तोंके संग मिलकर घर या दुकानमें ताश खेलता था।
एक दिन उसके दोस्त उसका हालचाल पूछने
दूकानमें आये और अचानक बहुत जोरसे बारिश होने लगी, बारिशकी वजहसे दूकानमें भी कोई नहीं था। बस फिर क्या, सब दोस्त मिलकर ताश खेलने लगे।
तभी एक छोटा लड़का उसकी दूकानमें दवाई लेने के लिये पर्चा लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा था। हरिराम ताश खेलने में इतना मशगूल था कि बारिशमें आये हुए उस लड़केपर उसकी नजर ही नहीं पड़ी।
ठण्डसे ठिठुरते हुए उस लड़केने दवाईंका पर्चा बढ़ाते हुए कहा- ‘साहबजी। मुझे ये दवाइयाँ चाहिये, मेरी माँ बहुत बीमार है, उसको बचा लीजिये, बाहर और सब दुकानें बारिशकी वजहसे बन्द हैं आपकी दूकानको देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माँ बच जायगी। यह दवाई उनके लिये बहुत जरूरी है।’
इसी बीच लाइट भी चली गयी और सब दोस्त जाने लगे। बारिश भी थोड़ा थम चुकी थी, उस लड़केकी पुकार सुनकर ताश खेलते-खेलते ही हरिरामने दवाईके उस पर्चेको हाथमें लिया और दवाई लेनेको उठा।
ताशके खेलको पूरा न कर पानेके कारण अनमने मनसे अपने अनुभवके आधारपर अँधेरेमें ही दवाईकी उस शीशीको झटसे निकालकर उसने लड़केको दे दिया। उस लड़केने दवाईका दाम पूछा और उचित दाम देकर बाकीके पैसे भी अपनी जेबमें रख लिये। लड़का खुशी-खुशी दवाईकी शीशी लेकर चला गया। वह आज दूकानको जल्दी बन्द करनेकी सोच रहा था। थोड़ी देर बाद लाइट आ गयी और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने दवाईकी शीशी समझकर उस लड़केको जो दिया था, वह चूहे मारनेवाली जहरीली दवा है, जिसे उसके किसी ग्राहकने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था और ताश खेलनेकी धुनमें उसने अन्य दवाइयोंके बीच यह सोचकर रख दिया था कि ताशकी बाजीके बाद फिर उसे अपनी जगहपर वापस रख देगा।
अब उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसकी दस सालकी नेकीपर मानो जैसे ग्रहण लग गया। उस लड़केके बारेमें सोचकर वह तड़पने लगा। सोचा यदि यह दवाई वह अपनी बीमार माँको देगा, तो वह अवश्य मर जायगी। लड़का भी बहुत छोटा होनेके कारण उस दवाईको तो पढ़ना भी नहीं जानता होगा। उस पल वह अपनी इस भूलको कोसने लगा और उसने ताश खेलनेकी अपनी आदतको छोड़नेका निश्चय कर लिया। पर यह बात तो बादमें देखी जायगी। अब क्या किया जाय ? उस लड़केका पता-ठिकाना भी तो वह नहीं जानता । कैसे उस बीमार माँको बचाया जाय ? सच, कितना विश्वास था उस लड़केकी आँखोंमें। हरिरामको कुछ सूझ नहीं रहा था। घर जानेकी उसकी इच्छा अब ठण्डी पड़ गयी। दुविधा और बेचैनी उसे घेरे हुए थी । घबराहटमें वह इधर-उधर देखने लगा।
पहली बार उसकी दृष्टि दीवारके उस कोनेमें पड़ी, जहाँ उसके पिताने जिद करके भगवान् श्रीकृष्णकी तस्वीर दूकानके उद्घाटनके वक्त लगायी थी। हरिरामसे हुई बहसमें एक दिन उसके पिताने हरिरामसे भगवान्को कमसे कम एक शक्तिके रूप मानने और पूजनेकी मिन्नत की थी। उन्होंने कहा था कि भगवान्की भक्तिमें
बड़ी शक्ति होती है, वह हर जगह व्याप्त है और हमें सदैव अच्छे कार्य करनेकी प्रेरणा देता है।
हरिरामको यह सारी बात याद आने लगी। आज उसने इस अद्भुत शक्तिको आजमाना चाहा। उसने कई बार अपने पिताको भगवान्की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर, आँखें बन्द करके ध्यान करते हुए देखा था। उसने भी आज पहली बार कमरेके कोनेमें रखी उस धूलभरी कृष्णकी तस्वीरको देखा और आँखें बन्दकर दोनों हाथोंको जोड़कर वहीं खड़ा हो गया।
इसके थोड़ी ही देर बाद वह छोटा लड़का फिर दूकान में आया। हरिरामको पसीना छूटने लगा। वह बहुत अधीर हो उठा। पसीना पोंछते हुए उसने कहा क्या बात है बेटा! तुम्हें क्या चाहिये ?
लड़केकी आँखोंसे पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा- बाबूजी बाबूजी! माँको बचाने के लिये मैं दवाईकी शीशी लिये भागा जा रहा था, घरके करीब पहुँच भी गया था, बारिशकी वजहसे आँगनमें पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाईकी शीशी गिरकर टूट गयी। क्या आप मुझे वही दवाईकी दूसरी शीशी दे सकते हैं बाबूजी ? लड़केने उदास होकर पूछा।
हाँ! हाँ! क्यों नहीं? हरिरामने राहतकी साँस लेते हुए कहा। लो, यह दवाई! पर उस लड़केने दवाई की शीशी लेते-लेते हिचकिचाते हुए बड़े ही भोलेपनसे कहा ‘बाबूजी! मेरे पास दवाके लिये पूरे पैसे अभी नहीं हैं।’
हरिरामको उस बेचारेपर दया आयी। वह बोला ‘कोई बात नहीं- तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँको बचाओ। जाओ, जल्दी करो और हाँ, अबकी बार जरा सँभलके जाना।’
लड़का ‘अच्छा बाबूजी!’ कहता हुआ खुशीसे
चल पड़ा।
अब हरिरामकी जानमें जान आयी। वह भगवान्को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथोंसे उस धूलभरी तस्वीरको लेकर अपनी धोतीसे पोंछने लगा और उसे अपने सीनेसे लगा लिया। अपने भीतर हुए इस परिवर्तनको वह सबसे पहले अपने घरवालोंको सुनाना चाहता था, इसलिये जल्दी से दूकान बन्द करके वह घरको रवाना हुआ।
उसकी नास्तिकताकी घोर अँधेरी रात भी अब बीत गयी थी और अगले दिनकी नयी सुबह एक नये हरिरामकी प्रतीक्षा कर रही थी।
एक नास्तिककी भक्ति
हरिराम नामक एक आदमी शहरकी एक छोटी-सी गली में रहता था। वह एक मेडिकल स्टोरका मालिक था। सारी दवाइयोंकी उसे अच्छी जानकारी थी। दस सालका अनुभव होनेके कारण उसे अच्छी तरह पता था कि कौन-सी दवाई कहाँ रखी है। वह इस पेशेको बड़े ही शौकसे, बहुत ही निष्ठासे करता था। उसकी दूकान में सदैव भीड़ लगी रहती थी, वह ग्राहकोंको वांछित दवाइयाँ सावधानी से और पूरे इत्मीनानके साथ देता था।
पर उसे भगवान्पर कोई भरोसा नहीं था। वह एक नास्तिक था। भगवान् के नामसे ही वह चिढ़ने लगता था। घरवाले उसे बहुत समझाते, पर वह उनकी एक न सुनता था। खाली वक्त मिलनेपर वह अपने दोस्तोंके संग मिलकर घर या दुकानमें ताश खेलता था।
एक दिन उसके दोस्त उसका हालचाल पूछने
दूकानमें आये और अचानक बहुत जोरसे बारिश होने लगी, बारिशकी वजहसे दूकानमें भी कोई नहीं था। बस फिर क्या, सब दोस्त मिलकर ताश खेलने लगे।
तभी एक छोटा लड़का उसकी दूकानमें दवाई लेने के लिये पर्चा लेकर आया। उसका पूरा शरीर भीगा था। हरिराम ताश खेलने में इतना मशगूल था कि बारिशमें आये हुए उस लड़केपर उसकी नजर ही नहीं पड़ी।
ठण्डसे ठिठुरते हुए उस लड़केने दवाईंका पर्चा बढ़ाते हुए कहा- ‘साहबजी। मुझे ये दवाइयाँ चाहिये, मेरी माँ बहुत बीमार है, उसको बचा लीजिये, बाहर और सब दुकानें बारिशकी वजहसे बन्द हैं आपकी दूकानको देखकर मुझे विश्वास हो गया कि मेरी माँ बच जायगी। यह दवाई उनके लिये बहुत जरूरी है।’
इसी बीच लाइट भी चली गयी और सब दोस्त जाने लगे। बारिश भी थोड़ा थम चुकी थी, उस लड़केकी पुकार सुनकर ताश खेलते-खेलते ही हरिरामने दवाईके उस पर्चेको हाथमें लिया और दवाई लेनेको उठा।
ताशके खेलको पूरा न कर पानेके कारण अनमने मनसे अपने अनुभवके आधारपर अँधेरेमें ही दवाईकी उस शीशीको झटसे निकालकर उसने लड़केको दे दिया। उस लड़केने दवाईका दाम पूछा और उचित दाम देकर बाकीके पैसे भी अपनी जेबमें रख लिये। लड़का खुशी-खुशी दवाईकी शीशी लेकर चला गया। वह आज दूकानको जल्दी बन्द करनेकी सोच रहा था। थोड़ी देर बाद लाइट आ गयी और वह यह देखकर दंग रह गया कि उसने दवाईकी शीशी समझकर उस लड़केको जो दिया था, वह चूहे मारनेवाली जहरीली दवा है, जिसे उसके किसी ग्राहकने थोड़ी ही देर पहले लौटाया था और ताश खेलनेकी धुनमें उसने अन्य दवाइयोंके बीच यह सोचकर रख दिया था कि ताशकी बाजीके बाद फिर उसे अपनी जगहपर वापस रख देगा।
अब उसका दिल जोर-जोर से धड़कने लगा। उसकी दस सालकी नेकीपर मानो जैसे ग्रहण लग गया। उस लड़केके बारेमें सोचकर वह तड़पने लगा। सोचा यदि यह दवाई वह अपनी बीमार माँको देगा, तो वह अवश्य मर जायगी। लड़का भी बहुत छोटा होनेके कारण उस दवाईको तो पढ़ना भी नहीं जानता होगा। उस पल वह अपनी इस भूलको कोसने लगा और उसने ताश खेलनेकी अपनी आदतको छोड़नेका निश्चय कर लिया। पर यह बात तो बादमें देखी जायगी। अब क्या किया जाय ? उस लड़केका पता-ठिकाना भी तो वह नहीं जानता । कैसे उस बीमार माँको बचाया जाय ? सच, कितना विश्वास था उस लड़केकी आँखोंमें। हरिरामको कुछ सूझ नहीं रहा था। घर जानेकी उसकी इच्छा अब ठण्डी पड़ गयी। दुविधा और बेचैनी उसे घेरे हुए थी । घबराहटमें वह इधर-उधर देखने लगा।
पहली बार उसकी दृष्टि दीवारके उस कोनेमें पड़ी, जहाँ उसके पिताने जिद करके भगवान् श्रीकृष्णकी तस्वीर दूकानके उद्घाटनके वक्त लगायी थी। हरिरामसे हुई बहसमें एक दिन उसके पिताने हरिरामसे भगवान्को कमसे कम एक शक्तिके रूप मानने और पूजनेकी मिन्नत की थी। उन्होंने कहा था कि भगवान्की भक्तिमें
बड़ी शक्ति होती है, वह हर जगह व्याप्त है और हमें सदैव अच्छे कार्य करनेकी प्रेरणा देता है।
हरिरामको यह सारी बात याद आने लगी। आज उसने इस अद्भुत शक्तिको आजमाना चाहा। उसने कई बार अपने पिताको भगवान्की तस्वीर के सामने हाथ जोड़कर, आँखें बन्द करके ध्यान करते हुए देखा था। उसने भी आज पहली बार कमरेके कोनेमें रखी उस धूलभरी कृष्णकी तस्वीरको देखा और आँखें बन्दकर दोनों हाथोंको जोड़कर वहीं खड़ा हो गया।
इसके थोड़ी ही देर बाद वह छोटा लड़का फिर दूकान में आया। हरिरामको पसीना छूटने लगा। वह बहुत अधीर हो उठा। पसीना पोंछते हुए उसने कहा क्या बात है बेटा! तुम्हें क्या चाहिये ?
लड़केकी आँखोंसे पानी छलकने लगा। उसने रुकते-रुकते कहा- बाबूजी बाबूजी! माँको बचाने के लिये मैं दवाईकी शीशी लिये भागा जा रहा था, घरके करीब पहुँच भी गया था, बारिशकी वजहसे आँगनमें पानी भरा था और मैं फिसल गया। दवाईकी शीशी गिरकर टूट गयी। क्या आप मुझे वही दवाईकी दूसरी शीशी दे सकते हैं बाबूजी ? लड़केने उदास होकर पूछा।
हाँ! हाँ! क्यों नहीं? हरिरामने राहतकी साँस लेते हुए कहा। लो, यह दवाई! पर उस लड़केने दवाई की शीशी लेते-लेते हिचकिचाते हुए बड़े ही भोलेपनसे कहा ‘बाबूजी! मेरे पास दवाके लिये पूरे पैसे अभी नहीं हैं।’
हरिरामको उस बेचारेपर दया आयी। वह बोला ‘कोई बात नहीं- तुम यह दवाई ले जाओ और अपनी माँको बचाओ। जाओ, जल्दी करो और हाँ, अबकी बार जरा सँभलके जाना।’
लड़का ‘अच्छा बाबूजी!’ कहता हुआ खुशीसे
चल पड़ा।
अब हरिरामकी जानमें जान आयी। वह भगवान्को धन्यवाद देता हुआ अपने हाथोंसे उस धूलभरी तस्वीरको लेकर अपनी धोतीसे पोंछने लगा और उसे अपने सीनेसे लगा लिया। अपने भीतर हुए इस परिवर्तनको वह सबसे पहले अपने घरवालोंको सुनाना चाहता था, इसलिये जल्दी से दूकान बन्द करके वह घरको रवाना हुआ।
उसकी नास्तिकताकी घोर अँधेरी रात भी अब बीत गयी थी और अगले दिनकी नयी सुबह एक नये हरिरामकी प्रतीक्षा कर रही थी।