बहूके सद्भावका असर
पुत्रकी उम्र पैंतीससे पचास छूने लगी। पिता पुत्रको व्यापारमें स्वतन्त्रता नहीं देता था, तिजोरीकी चाबी भी नहीं। पुत्रके मनमें यह बात खटकती रहती थी। वह सोचता था कि यदि मेरा पिता पन्द्रह-बीस वर्षतक और रहेगा तो मुझे स्वतन्त्र व्यापार करनेका कोई अवसर नहीं मिलेगा। स्वतन्त्रता सबको चाहिये। मनमें चिढ़ थी, कुढ़न थी। एक दिन वह फूट पड़ी। पिता-पुत्रमें काफी बकझक हुई। सम्पदाका बँटवारा हुआ। पिता अलग रहने लगा। पुत्र अपनी पत्नी और बच्चोंके साथ अलग रहने लगा।
पिता अकेले थे। उनकी पत्नीका देहान्त हो चुका था। किसी दूसरेको सेवाके लिये नहीं रखा; क्योंकि उनके स्वभावमें किसीके प्रति विश्वास नहीं था, यहाँतक कि पुत्रके प्रति भी नहीं था। वे स्वयं ही अपने हाथसे रूखा-सूखा भोजन बनाकर कर लेते, कभी चना-चबैना खा लेते, कभी भूखे सो जाते। जब उनकी पुत्रवधूको यह बात मालूम पड़ी तो उसे बहुत दुःख हुआ। आत्मग्लानि भी हुई। उसे बाल्यकालसे ही धर्मका संस्कार था- -बड़ोंके प्रति आदर एवं सेवाका भाव था। उसने अपने पतिको मनानेका प्रयास किया, परंतु वे न माने। पिताके प्रति पुत्रके मनमें कोई सद्भाव नहीं था। अब बहूने एक विचार अपने मनमें दृढ़ कर लिया और कार्यान्वित किया। वह पहले रोटी बनाकर अपने पति और पुत्रको खिलाकर दूकान और स्कूल भेज देती, फिर स्वयं श्वशुरके घर चली जाती। वहाँ भोजन बनाकर श्वशुरको खिला देती और सायंकालके लिये पराठे बनाकर रख देती।.
कुछ दिनोंतक ऐसा ही चलता रहा। जब पतिको मालूम पड़ा तो उसने रोका-‘ऐसा क्यों करती हो? बीमार पड़ जाओगी। आखिर शरीर ही तो है, कितना परिश्रम सहेगा।’ बहू बोली- ‘मेरे ईश्वरके समान आदरणीय श्वशुरजी भूखे रहें, तकलीफ पायें और हम लोग आरामसे खायें- पीयें, मौज करें, यह मुझसे नहीं हो सकता, मेरा धर्म है बड़ोंकी सेवा करना-इसके बिना मुझे सन्तोष नहीं है, बड़ी ग्लानि है। मैं उन्हें खिलाये बिना खा नहीं सकती। भोजनके समय उनकी याद आनेपर मुझे आँसू आने लगते हैं। उन्होंने ही पोसकर बड़ा किया है, तब तुम मुझे पतिके रूपमें मिले हो। तुम्हारे मनमें कृतज्ञताका भाव नहीं है तो क्या हुआ; मैं उनके प्रति कैसे कृतघ्न हो सकती हूँ?’
सद्भावने पतिपर विजय प्राप्त कर ली। उन्होंने जाकर अपने पिताके चरण छुए, क्षमा माँगी, घर ले आये- पति-पत्नी दोनों पिताकी सेवा करने लगे। पिताने व्यापारका सारा भार पुत्रपर छोड़ दिया। वे अब पुत्र के किसी कार्यमें हस्तक्षेप नहीं करते थे।
परिवारके किसी भी व्यक्तिमें यदि सच्चा सद्भाव हो तो वह सबके मनको जोड़ सकता है। मनका मेल ही सच्चा पारिवारिक सुख है।
effect of daughter-in-law’s goodwill
The age of the son started touching thirty-five to fifty. The father did not give freedom to the son in business, not even the key to the vault. This thing kept nagging in the son’s mind. He used to think that if my father stays for another fifteen-twenty years, I will not get any opportunity to do independent business. Everyone needs freedom. There was irritation in the mind, there was resentment. One day it burst. There was a lot of chatter between father and son. The property was divided. Father started living separately. The son started living separately with his wife and children.
Father was alone. His wife had passed away. did not keep anyone else for service; Because in his nature there was no faith in anyone, not even in the son. He himself would have cooked dry food with his own hands, sometimes he would eat gram-chew, sometimes he would go to bed hungry. When his daughter-in-law came to know about this, she felt very sad. Self-conceit also happened. He had the rites of religion since childhood – – had a sense of respect and service towards the elders. She tried to persuade her husband, but he did not agree. There was no harmony in the heart of the son towards the father. Now the daughter-in-law has fixed an idea in her mind and implemented it. She would first make bread, feed her husband and son and send them to the shop and school, then herself would go to her father-in-law’s house. She cooked food there and fed it to her father-in-law and prepared parathas for the evening.
It went on like this for some days. When the husband came to know, he stopped – ‘Why do you do this? You will fall ill. After all, it is only the body, how much effort it will bear. The daughter-in-law said- ‘Respected father-in-law like my God should be hungry, suffering and we eat, drink, have fun, I can’t do this, my religion is to serve the elders-without this I am not satisfied, I have a lot of guilt. I can’t eat without feeding them. I start crying when I remember him at mealtimes. He has nurtured and raised me, then you have met me as a husband. What if you don’t have a sense of gratitude in your mind? How can I be ungrateful to him?’
Sadbhavna conquered her husband. He went and touched his father’s feet, asked for forgiveness, brought him home – both husband and wife started serving the father. The father left all the burden of the business on the son. He no longer interfered in any work of the son.
If there is true harmony in any person of the family, then he can connect everyone’s mind. The harmony of the mind is the true family happiness.