मंदिरकी सम्पत्तिसे बना प्रसाद कैसे ग्रहण करूँ ?
महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यजी अपने इष्टदेव श्रीनाथजीके विग्रहको प्रतिदिन खाद्य व्यंजनोंका भोग लगानेके बाद ही जूठनके रूपमें प्रसाद (भोजन) ग्रहण करते थे। एक बार खाद्य पदार्थोंका अभाव हो जानेपर उन्होंने पूजाके स्वर्णपात्रको बेचकर भगवान्के प्रसादके लिये भोज्य पदार्थोंको व्यवस्था करनेको कहा। स्वर्णपात्रकी बिक्रीसे प्राप्त धनसे सामान खरीदकर भगवान्के लिये प्रसाद तैयार किया गया। भगवान् श्रीनाथजीका भोग लगाकर भक्तजनोंने केलेके पत्तेपर प्रसाद परोसा तथा महाप्रभुसे ग्रहण करनेकी प्रार्थना की।
महाप्रभु वल्लभाचार्यजीने उत्तर दिया- ‘यह प्रसाद मन्दिरके स्वर्णपात्र के बदले मिले धनसे तैयार किया गया है। भगवान् तो इस प्रसादको ग्रहण कर सकते हैं, किंतु मन्दिरकी सम्पत्ति (स्वर्णपात्र) से प्राप्त खाद्यान्नसे गया प्रसाद ग्रहणकर मैं पापका भागी कैसे बन सकता हूँ?”
महाप्रभु प्रायः भक्तोंको प्रेरणा देते हुए कहा करते थे-‘मठ-मन्दिकि एक-एक पैसेका भगवान्की सेवा तथा परोपकारके कार्योंमें सदुपयोग होना चाहिये। भगवद्-द्रव्यका व्यक्तिगत सुख-सुविधाके लिये उपयोग करनेवालेका समूल नाश हो जाता है, इसे नहीं भूलना चाहिये।’
How to accept Prasad made from temple property?
Mahaprabhu Shrivallabhacharyaji used to take prasad (food) in the form of a lie only after offering edible dishes to the deity of his presiding deity Shrinathji. Once there was a shortage of food items, he asked to sell the golden utensils of worship and arrange food items for the Lord’s offerings. Prasad was prepared for the Lord by purchasing goods from the money received from the sale of the gold pot. After offering bhog to Lord Shrinathji, the devotees served prasad on a banana leaf and prayed to Mahaprabhu to accept it.
Mahaprabhu Vallabhacharyaji replied – ‘This prasad has been prepared from the money received in exchange for the golden vessel of the temple. God can accept this prasad, but how can I become a partaker of sin by taking prasad that went from food grains obtained from temple wealth (gold pot)?”
Mahaprabhu often used to inspire the devotees by saying – ‘Every penny of the monastery should be put to good use in the service of God and in charitable works. The one who uses Bhagavad-Dravya for personal comfort gets completely destroyed, it should not be forgotten.’