अहमदाबादके प्रसिद्ध संत सरयूदासजी महाराज एक बार रेलगाड़ीकी तीसरी श्रेणीमें बैठकर डाकोर जा रहे थे। गाड़ीमें बड़ी भीड़ थी। कहीं तिल छींटनेका भी अवकाश नहीं था। महाराजके पास ही बगलमें एक हट्टा-कट्टा पठान बैठा हुआ था। वह महाराजकी ओर अपने पैर बढ़ाकर बार-बार ठोकर मार रहा था। ‘भाई! संकोच मत करो। दिखाओ, तुम्हारे पैरमें किस स्थानपर पीड़ा हो रही है। तुम मेरी ओर पैरबढ़ाकर भी पीछे खींच लिया करते हो। मुझे एक बार तो सेवाका अवसर दो। मैं तुम्हारा ही हूँ।’ सरयूदासजी महाराज पैर पकड़कर सहलाने लगे। उसकी ओर करुणाभरी दृष्टिसे देखा ।
‘महाराज! मेरा अपराध क्षमा कीजिये। आप औलिया हैं, यह बात मुझे अब विदित हो सकी है।’ वह शरमा गया। उसने बड़े दैन्यसे महाराजका चरणस्पर्श किया, क्षमा-याचना की।
– रा0 श्री0
The famous saint Saryu Dasji Maharaj of Ahmedabad was once going to Dakor by sitting in the third class of a train. There was a big crowd in the car. There was no holiday even for sprinkling sesame seeds. A stout Pathan was sitting next to the Maharaj. He was stumbling again and again by extending his legs towards Maharaj. ‘Brother! Don’t hesitate Show, at which place in your leg is paining. You pull me back even after extending your legs. Give me an opportunity to serve at least once. I am yours.’ Saryudasji Maharaj started caressing him by holding his feet. He looked at her with pity.
‘King! Pardon my crime. I have now come to know that you are an auliya. He blushed. He touched Maharaj’s feet with great kindness, begged for forgiveness.