हीन कौन ?
एक बार ईरानी सन्त शेख सादी मक्काकी ओर पैदल जा रहे थे। गर्मीके दिन थे और बालू गर्म हो गयी थी। अतः उनके पैर उस तप्त बालुकासे जले जा रहे थे; जबकि अन्य यात्री घोड़ों, खच्चरों और ऊँटोंपर यात्रा कर रहे थे। यह देख उनके मनमें विचार उठा कि अल्लाह भी सबको समान दृष्टिसे नहीं देखता, तभी तो सब यात्री वाहनोंपर चढ़कर जा रहे हैं, जबकि मुझे पैदल ही जाना पड़ रहा है।
इतनेमें उन्हें एक फकीर, जिसके दोनों पैर कटे हुए थे, हाथ और जाँघोंके बलपर चलता हुआ दीखा। उन्हें यह देख बड़ी ही करुणा हुई; साथ ही पश्चात्ताप भी हुआ कि थोड़ी ही देर पूर्व वे व्यर्थ ही अल्लाहको कोस रहे थे। वे मन-ही-मन बोले- ‘या खुदा! भले ही तूने मुझे हजारोंमें हीन बनाया, किंतु एक पंगु फकीरसे तो निश्चित ही तूने मुझे भला बनाया। मुझे माफ कर, जो तेरी करनीके बारेमें मेरे मनमें कुविचार उत्पन्न हुए थे।’
Who is inferior?
Once the Iranian saint Sheikh Saadi was walking towards Mecca. It was summer and the sand had become hot. So his feet were getting burnt by that hot sand; While other travelers were traveling on horses, mules and camels. Seeing this, a thought arose in his mind that even Allah does not see everyone equally, that’s why all the passengers are going on vehicles, while I have to go on foot.
Meanwhile, he saw a fakir, whose both legs were amputated, walking on the strength of hands and thighs. He felt great compassion seeing this; At the same time, there was remorse that just a short while ago, they were cursing Allah in vain. They said to themselves – ‘Oh God! Even though you made me inferior among thousands, but you definitely made me better than a crippled fakir. Forgive me, I had bad thoughts about your actions.’