काश्मीरके हिंदू नरेश अपनी उदारता, विद्वत्ता और न्यायप्रियता के लिये बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। उनमेंसे महाराज चन्द्रापीड उस समय गद्दीपर थे। उन्होंने एक देवमन्दिर बनवाने का संकल्प किया। शिल्पियोंको आमन्त्रण दिया गया और राज्यके अधिकारियोंको शिल्पियों के आदेशोंको पूरा करनेकी आज्ञा हो गयी।
शिल्पियोंने एक भूमि मन्दिर बनानेके लिये चुनी। परंतु उस भूमिको जब वे गापने लगे, तब उन्हें एक चमारने रोक दिया भूमिके एक भागमें चमारकी झोपड़ी थी। उस झोपड़ीको छोड़ देनेपर मन्दिर ठीक बनता नहीं था राज्यके मन्त्रीगण चमारको बहुत अधिक मूल्य देकर वह भूमि खरीदना चाहते थे; किंतु चमार किसी भी मूल्यपर अपनी झोपड़ी बेचनेको उद्यत नहीं था। बात महाराजके पास पहुँची। उन न्यायप्रिय धर्मात्मा राजाने कहा- ‘बलपूर्वक तो किसीकी भूमि छीनी नहीं जा सकती मन्दिर दूसरे स्थानपर बनाया जाय।’
शिल्पियोंके प्रधानने निवेदन किया-‘पहिली बात तो यह कि उस स्थानपर मन्दिर बननेका संकल्प हो चुका, दूसरे आराध्यका मन्दिर सबसे उत्तम स्थानपर होना चाहिये और उससे अधिक उपयुक्त स्थान हमें दूसरा कोई दीखता नहीं।’
महाराजकी आज्ञासे चमार बुलाया गया। नरेशने उससे कहा- ‘तुम जो मूल्य चाहो, तुम्हारी झोपड़ीकादिया जाएगा। दूसरी भूमि तुम जितनी कहोगे, तुम्हें मिलेगी और यदि तुम स्वीकार करो तो उसमें तुम्हारे लिये भवन भी बनवा दिया जाय। धर्मके काममें विन डालते हो? देवमन्दिरके निर्माणम बाधा डालना पाप है, यह तो तुम जानते ही होगे।”
चमारने नम्रतापूर्वक कहा – ‘महाराज ! यह झोपड़ी या भूमिका प्रश्न नहीं है। वह झोपड़ी मेरे पिता, पितामह | आदि कुलपुरुषोंकी निवासभूमि है। मेरे लिये वह भूमि | माताके समान है। जैसे किसी मूल्यपर, किसी प्रकार आप अपना पैतृक राजसदन किसीको नहीं दे सकते वैसे ही मैं अपनी झोपड़ी नहीं बेच सकता।’
नरेश उदास हो गये। चमार दो क्षण चुप रहा और फिर बोला- ‘परंतु आपने मुझे धर्मसंकटमें डाल दिया है। देवमन्दिरके निर्माणमें बाधा डालनेका पाप मैं करूँ तो वह पाप मुझे और मेरे पूर्वजोंको भी ले डूबेगा आप धर्मात्मा हैं, उदार हैं और मैं हीन जातिका कंगाल मनुष्य हूँ; किंतु यदि आप मेरे यहाँ पधारें और मुझसे मन्दिर बनानेके लिये झोपड़ी माँगें तो मैं | वह भूमि आपको दान कर दूँगा। इससे मुझे और मेरे पूर्वजोंको भी पुण्य ही होगा।’
‘महाराज इस चमारसे भूमि दान लेंगे ?’ राजसभाके सभासदोंमें रोषके भाव आये थे परस्पर कानाफूसी करने लगे।
‘अच्छा, तुम जाओ!’ महाराजने चमारको उससमय बिना कुछ कहे विदा कर दिया; परंतु दूसरे दिन काश्मीरके वे धर्मात्मा अधीश्वर चमारकी झोपड़ीपरपहुँचे और उन्होंने उस चमारसे भूमि-दान ग्रहण किया।
(राजतरंगिणी)
काश्मीरके हिंदू नरेश अपनी उदारता, विद्वत्ता और न्यायप्रियता के लिये बहुत प्रसिद्ध हुए हैं। उनमेंसे महाराज चन्द्रापीड उस समय गद्दीपर थे। उन्होंने एक देवमन्दिर बनवाने का संकल्प किया। शिल्पियोंको आमन्त्रण दिया गया और राज्यके अधिकारियोंको शिल्पियों के आदेशोंको पूरा करनेकी आज्ञा हो गयी।
शिल्पियोंने एक भूमि मन्दिर बनानेके लिये चुनी। परंतु उस भूमिको जब वे गापने लगे, तब उन्हें एक चमारने रोक दिया भूमिके एक भागमें चमारकी झोपड़ी थी। उस झोपड़ीको छोड़ देनेपर मन्दिर ठीक बनता नहीं था राज्यके मन्त्रीगण चमारको बहुत अधिक मूल्य देकर वह भूमि खरीदना चाहते थे; किंतु चमार किसी भी मूल्यपर अपनी झोपड़ी बेचनेको उद्यत नहीं था। बात महाराजके पास पहुँची। उन न्यायप्रिय धर्मात्मा राजाने कहा- ‘बलपूर्वक तो किसीकी भूमि छीनी नहीं जा सकती मन्दिर दूसरे स्थानपर बनाया जाय।’
शिल्पियोंके प्रधानने निवेदन किया-‘पहिली बात तो यह कि उस स्थानपर मन्दिर बननेका संकल्प हो चुका, दूसरे आराध्यका मन्दिर सबसे उत्तम स्थानपर होना चाहिये और उससे अधिक उपयुक्त स्थान हमें दूसरा कोई दीखता नहीं।’
महाराजकी आज्ञासे चमार बुलाया गया। नरेशने उससे कहा- ‘तुम जो मूल्य चाहो, तुम्हारी झोपड़ीकादिया जाएगा। दूसरी भूमि तुम जितनी कहोगे, तुम्हें मिलेगी और यदि तुम स्वीकार करो तो उसमें तुम्हारे लिये भवन भी बनवा दिया जाय। धर्मके काममें विन डालते हो? देवमन्दिरके निर्माणम बाधा डालना पाप है, यह तो तुम जानते ही होगे।”
चमारने नम्रतापूर्वक कहा – ‘महाराज ! यह झोपड़ी या भूमिका प्रश्न नहीं है। वह झोपड़ी मेरे पिता, पितामह | आदि कुलपुरुषोंकी निवासभूमि है। मेरे लिये वह भूमि | माताके समान है। जैसे किसी मूल्यपर, किसी प्रकार आप अपना पैतृक राजसदन किसीको नहीं दे सकते वैसे ही मैं अपनी झोपड़ी नहीं बेच सकता।’
नरेश उदास हो गये। चमार दो क्षण चुप रहा और फिर बोला- ‘परंतु आपने मुझे धर्मसंकटमें डाल दिया है। देवमन्दिरके निर्माणमें बाधा डालनेका पाप मैं करूँ तो वह पाप मुझे और मेरे पूर्वजोंको भी ले डूबेगा आप धर्मात्मा हैं, उदार हैं और मैं हीन जातिका कंगाल मनुष्य हूँ; किंतु यदि आप मेरे यहाँ पधारें और मुझसे मन्दिर बनानेके लिये झोपड़ी माँगें तो मैं | वह भूमि आपको दान कर दूँगा। इससे मुझे और मेरे पूर्वजोंको भी पुण्य ही होगा।’
‘महाराज इस चमारसे भूमि दान लेंगे ?’ राजसभाके सभासदोंमें रोषके भाव आये थे परस्पर कानाफूसी करने लगे।
‘अच्छा, तुम जाओ!’ महाराजने चमारको उससमय बिना कुछ कहे विदा कर दिया; परंतु दूसरे दिन काश्मीरके वे धर्मात्मा अधीश्वर चमारकी झोपड़ीपरपहुँचे और उन्होंने उस चमारसे भूमि-दान ग्रहण किया।
(राजतरंगिणी)