(8) भगवत्स्मरणकी महिमा
सुमिरनकी बड़ी महिमा है। हृदयसे भावविह्वल होकर भगवान्को पुकारना सुमिरन कहलाता है। यह मात्र होंठोंसे किया जप नहीं है। लाहिड़ी महाशयके एक गृहस्थ शिष्य थे नवगोपाल घोष। वे अक्सर बीमार रहते। पत्नी सेवा करती। एक बार वे लाहिड़ी महाशयसे बोले- ‘भगवन्! हम तो कुछ नहीं कर सकते। लेटे रहते हैं। दवाएँ चल रही हैं, पर कोई फायदा नहीं।’ लाहिड़ी महाशय बोले- ‘तुम जहाँ हो, जिस दशामें हो, वहीं भगवत्स्मरण करो। कराही भी, पर भगवान् न छूटे।” उन्होंने वैसा ही करना शुरू कर दिया। सालभर धैर्यपूर्वक किया। धीरे-धीरे वे बैठ सकनेमें सक्षम हो गये, फिर चलने लगे। कष्ट भी क्रमशः मिट गया। व्याधि पूरी तरह चली गयी। समाजसेवा भी करने लगे। सुमिरनका फल है यह। जहाँ भगवान्ने हमें खड़ा कर दिया है, वहीं हमें सुमिरन शुरू कर देना चाहिये, बिना परिणामकी अपेक्षाके साथ। वह सुनेगा अवश्य ।
(8) The glory of remembering God
There is great glory of Sumiran. Calling God with emotion from the heart is called Sumiran. This is not just chanting with the lips. Navagopal Ghosh was a householder disciple of Lahiri Mahasaya. He was often ill. Wife serves. Once he said to Lahiri Mahasaya – ‘ God! We cannot do anything. remain lying down. Medicines are being given, but of no use. Mr. Lahiri said – ‘Wherever you are, in whatever condition you are in, remember Bhagwat there. Even moaned, but God did not leave.” He started doing the same. He did it patiently for a year. Slowly he was able to sit, then started walking. The pain gradually disappeared. The disease completely disappeared. This is the fruit of remembrance. Where God has made us stand, there we should start reciting without expecting any result. He will surely listen.