प्राचीन कालमें एक राजा थे, जिनका नाम था इन्द्रम्र से बड़े दानी, धर्मज्ञ और सामर्थ्यशाली थे। धनार्थियोंको वे सहस्र स्वर्णमुद्राओंसे कम दान नहीं देते थे। उनके राज्यमें सभी एकादशीके दिन उपवास करते थे। गङ्गाकी वालुका, वर्षाकी धारा और आकाशके तारे चित् गिने जा सकते हैं पर इन्द्रद्युम्रके पुण्योंकी गणना नहीं हो सकती। इन पुण्यों के प्रतापसे वे सशरीर ब्रह्मलोक चले गये। सी फल्पं बीत जानेपर ब्रह्माजीने उनसे कहा- ‘राजन्! स्वर्गसाधनमें केवल पुण्य ही कारण नहीं है, अपितु त्रैलोक्यविस्तृत निष्कल श भी अपेक्षित होता है। इधर चिरकालसे तुम्हारा यश क्षीण हो रहा है, उसे पुनः उज्वल करनेके लिये तुम वसुधातलपर जाओ।’ ब्रह्माजीके ये शब्द समाप्त भी न हो पाये थे कि राजा इन्द्रद्युम्रने अपनेको पृथ्वीपर पाया। वे अपने निवासस्थल काम्पिल्य नगर में गये और वहाँ के निवासियोंसे अपने सम्बन्धमें पूछ-ताछ करने लगे। उन्होंने कहा-‘हमलोग तो उनके सम्बन्धमेंकुछ भी नहीं जानते, आप किसी वृद्ध चिरायुसे पूछ सकते हैं। सुनते हैं नैमिषारण्यमें सप्तकल्पान्तजीवी मार्कण्डेय मुनि रहते हैं, कृपया आप उन्हींसे इस प्राचीन बातका पता लगाइये।’
जब राजाने मार्कण्डेयजीसे प्रणाम करके पूछा कि ‘मुने! क्या आप इन्द्रद्युम्न राजाको जानते हैं ?’ तब उन्होंने कहा, ‘नहीं, मैं तो नहीं जानता, पर मेरा मित्र नाड़ीजङ्घबक शायद इसे जानता हो; इसलिये चलो, उससे पूछा जाय।’ नाड़ीजङ्घने अपनी बड़ी विस्तृत कथा सुनायी और साथ ही अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपनेसे भी अति दीर्घायु प्राकारकर्म उलूकके पास चलनेकी सम्मति दी। पर इसी प्रकार सभी अपनेको असमर्थ बतलाते हुए चिरायु गृध्रराज और मानसरोवरमें रहनेवाले कच्छप मन्थरके पास पहुँचे मन्थरने इन्द्रद्युम्नको देखते ही पहचान लिया और कहा कि ‘ आपलोगोंमें जो यह पाँचवाँ राजा इन्द्रद्युम्न है, इसे देखकर मुझे बड़ा भय लगता है; क्योंकि इसीके यज्ञमेंमेरी पीठ पृथ्वीकी उष्णतासे जल गयी थी।’ अब राजाकी कीर्ति तो प्रतिष्ठित हो गयी, पर उसने क्षयिष्णु स्वर्गमें जाना ठीक न समझा और मोक्ष-साधनकी जिज्ञासा की । एतदर्थ मन्थरने लोमशजीके पास चलना श्रेयस्कर बतलाया। लोमशजीके पास पहुँचकर यथाविधि प्रणामादि करनेके पश्चात् मन्थरने निवेदन किया कि इन्द्रद्युम्न कुछ प्रश्न करना चाहते हैं ।
महर्षि लोमशकी आज्ञा लेनेके पश्चात् इन्द्रद्युम्नने कहा ‘महाराज ! मेरा प्रथम प्रश्न तो यह है कि आप कभी कुटिया न बनाकर शीत, आतप तथा वृष्टिसे बचनेके लिये केवल एक मुट्ठी तृण ही क्यों लिये रहते हैं ?’ मुनिने कहा, ‘राजन् ! एक दिन मरना अवश्य है; फिर शरीरका निश्चित नाश जानते हुए भी हम घर किसके लिये बनायें? यौवन, धन तथा जीवन- ये सभी चले जानेवाले हैं। ऐसी दशामें ‘दान’ ही सर्वोत्तम भवन है।’
इन्द्रद्युम्रने पूछा, ‘मुने! यह आयु आपको दानके परिणाममें मिली है अथवा तपस्याके प्रभावसे, मैं यह जानना चाहता हूँ।’ लोमशजीने कहा, ‘राजन् ! मैंपूर्वकालमें एक दरिद्र शूद्र था। एक दिन दोपहरके समय जलके भीतर मैंने एक बहुत बड़ा शिवलिङ्ग देखा। भूखसे मेरे प्राण सूखे जा रहे थे। उस जलाशय में स्नान करके मैंने कमलके सुन्दर फूलोंसे उस शिवलिङ्गका पूजन किया और पुनः मैं आगे चल दिया। क्षुधातुर होनेके कारण मार्गमें ही मेरी मृत्यु हो गयी। दूसरे जन्ममें मैं ब्राह्मणके घरमें उत्पन्न हुआ। शिव-पूजाके फलस्वरूप मुझे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण रहने लगा। मैंने जान बूझकर मूकता धारण कर ली। पितादिकी मृत्यु हो जानेपर सम्बन्धियोंने मुझे निरा गूँगा जानकर सर्वथा त्याग दिया। अब मैं रात-दिन भगवान् शङ्करकी आराधना करने लगा। इस प्रकार सौ वर्ष बीत गये। प्रभु चन्द्रशेखरने मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और मुझे इतनी दीर्घ आयु दी।”
यह जानकर इन्द्रद्युम्न, बक, कच्छप, गीध और उलूकने भी लोमशजीसे शिवदीक्षा ली और तप करके मोक्ष प्राप्त किया।
-जा0 श0
(स्कन्दपुराण, माहेश्वरखण्ड, कुमारिकाखण्ड 26 । 4–10)
प्राचीन कालमें एक राजा थे, जिनका नाम था इन्द्रम्र से बड़े दानी, धर्मज्ञ और सामर्थ्यशाली थे। धनार्थियोंको वे सहस्र स्वर्णमुद्राओंसे कम दान नहीं देते थे। उनके राज्यमें सभी एकादशीके दिन उपवास करते थे। गङ्गाकी वालुका, वर्षाकी धारा और आकाशके तारे चित् गिने जा सकते हैं पर इन्द्रद्युम्रके पुण्योंकी गणना नहीं हो सकती। इन पुण्यों के प्रतापसे वे सशरीर ब्रह्मलोक चले गये। सी फल्पं बीत जानेपर ब्रह्माजीने उनसे कहा- ‘राजन्! स्वर्गसाधनमें केवल पुण्य ही कारण नहीं है, अपितु त्रैलोक्यविस्तृत निष्कल श भी अपेक्षित होता है। इधर चिरकालसे तुम्हारा यश क्षीण हो रहा है, उसे पुनः उज्वल करनेके लिये तुम वसुधातलपर जाओ।’ ब्रह्माजीके ये शब्द समाप्त भी न हो पाये थे कि राजा इन्द्रद्युम्रने अपनेको पृथ्वीपर पाया। वे अपने निवासस्थल काम्पिल्य नगर में गये और वहाँ के निवासियोंसे अपने सम्बन्धमें पूछ-ताछ करने लगे। उन्होंने कहा-‘हमलोग तो उनके सम्बन्धमेंकुछ भी नहीं जानते, आप किसी वृद्ध चिरायुसे पूछ सकते हैं। सुनते हैं नैमिषारण्यमें सप्तकल्पान्तजीवी मार्कण्डेय मुनि रहते हैं, कृपया आप उन्हींसे इस प्राचीन बातका पता लगाइये।’
जब राजाने मार्कण्डेयजीसे प्रणाम करके पूछा कि ‘मुने! क्या आप इन्द्रद्युम्न राजाको जानते हैं ?’ तब उन्होंने कहा, ‘नहीं, मैं तो नहीं जानता, पर मेरा मित्र नाड़ीजङ्घबक शायद इसे जानता हो; इसलिये चलो, उससे पूछा जाय।’ नाड़ीजङ्घने अपनी बड़ी विस्तृत कथा सुनायी और साथ ही अपनी असमर्थता प्रकट करते हुए अपनेसे भी अति दीर्घायु प्राकारकर्म उलूकके पास चलनेकी सम्मति दी। पर इसी प्रकार सभी अपनेको असमर्थ बतलाते हुए चिरायु गृध्रराज और मानसरोवरमें रहनेवाले कच्छप मन्थरके पास पहुँचे मन्थरने इन्द्रद्युम्नको देखते ही पहचान लिया और कहा कि ‘ आपलोगोंमें जो यह पाँचवाँ राजा इन्द्रद्युम्न है, इसे देखकर मुझे बड़ा भय लगता है; क्योंकि इसीके यज्ञमेंमेरी पीठ पृथ्वीकी उष्णतासे जल गयी थी।’ अब राजाकी कीर्ति तो प्रतिष्ठित हो गयी, पर उसने क्षयिष्णु स्वर्गमें जाना ठीक न समझा और मोक्ष-साधनकी जिज्ञासा की । एतदर्थ मन्थरने लोमशजीके पास चलना श्रेयस्कर बतलाया। लोमशजीके पास पहुँचकर यथाविधि प्रणामादि करनेके पश्चात् मन्थरने निवेदन किया कि इन्द्रद्युम्न कुछ प्रश्न करना चाहते हैं ।
महर्षि लोमशकी आज्ञा लेनेके पश्चात् इन्द्रद्युम्नने कहा ‘महाराज ! मेरा प्रथम प्रश्न तो यह है कि आप कभी कुटिया न बनाकर शीत, आतप तथा वृष्टिसे बचनेके लिये केवल एक मुट्ठी तृण ही क्यों लिये रहते हैं ?’ मुनिने कहा, ‘राजन् ! एक दिन मरना अवश्य है; फिर शरीरका निश्चित नाश जानते हुए भी हम घर किसके लिये बनायें? यौवन, धन तथा जीवन- ये सभी चले जानेवाले हैं। ऐसी दशामें ‘दान’ ही सर्वोत्तम भवन है।’
इन्द्रद्युम्रने पूछा, ‘मुने! यह आयु आपको दानके परिणाममें मिली है अथवा तपस्याके प्रभावसे, मैं यह जानना चाहता हूँ।’ लोमशजीने कहा, ‘राजन् ! मैंपूर्वकालमें एक दरिद्र शूद्र था। एक दिन दोपहरके समय जलके भीतर मैंने एक बहुत बड़ा शिवलिङ्ग देखा। भूखसे मेरे प्राण सूखे जा रहे थे। उस जलाशय में स्नान करके मैंने कमलके सुन्दर फूलोंसे उस शिवलिङ्गका पूजन किया और पुनः मैं आगे चल दिया। क्षुधातुर होनेके कारण मार्गमें ही मेरी मृत्यु हो गयी। दूसरे जन्ममें मैं ब्राह्मणके घरमें उत्पन्न हुआ। शिव-पूजाके फलस्वरूप मुझे पूर्वजन्मकी बातोंका स्मरण रहने लगा। मैंने जान बूझकर मूकता धारण कर ली। पितादिकी मृत्यु हो जानेपर सम्बन्धियोंने मुझे निरा गूँगा जानकर सर्वथा त्याग दिया। अब मैं रात-दिन भगवान् शङ्करकी आराधना करने लगा। इस प्रकार सौ वर्ष बीत गये। प्रभु चन्द्रशेखरने मुझे प्रत्यक्ष दर्शन दिया और मुझे इतनी दीर्घ आयु दी।”
यह जानकर इन्द्रद्युम्न, बक, कच्छप, गीध और उलूकने भी लोमशजीसे शिवदीक्षा ली और तप करके मोक्ष प्राप्त किया।
-जा0 श0
(स्कन्दपुराण, माहेश्वरखण्ड, कुमारिकाखण्ड 26 । 4-10)