रिश्तोंकी कमाई
बात आठ-दस साल पहलेकी है। मैं अपने एक मित्रका पासपोर्ट बनवानेके लिये दिल्लीके पासपोर्ट ऑफिस गया था। उन दिनों इन्टरनेटपर फॉर्म भरनेकी सुविधा नहीं थी। पासपोर्ट दफ्तर में दलालोंका बोलबाला था और खुलेआम दलाल पैसे लेकर पासपोर्टके फॉर्म बेचनेसे लेकर उसे भरवाने, जमा करवाने और पासपोर्ट बनवानेका काम करते थेI
मेरे मित्रको किसी कारणसे पासपोर्टकी जल्दी थी, लेकिन दलालोंके दलदलमें फँसना नहीं चाहते थे।
हम पासपोर्ट दफ्तर पहुँच गये, लाइनमें लगकर हमने पासपोर्टका तत्काल फॉर्म भी ले लिया। पूरा फॉर्म भर लिया। इस चक्करमें कई घण्टे निकल चुके थे और अब हमें किसी तरह पासपोर्टकी फीस जमा करानी थी।
हम लाइनमें खड़े हुए, लेकिन जैसे ही हमारा नम्बर आया, बाबूने खिड़की बन्द कर दी और कहा कि समय खत्म हो चुका है, अब कल आइयेगा।
मैंने उससे मिन्नतें कीं, उससे कहा कि आज पूरा दिन हमने खर्च किया है और बस, अब केवल फीस जमा करानेकी बात रह गयी है, कृपया फीस ले लीजिये ।
बाबू बिगड़ गया। कहने लगा, ‘आपने पूरा दिन खर्च कर दिया तो उसके लिये मैं जिम्मेदार है क्या ? अरे । सरकार ज्यादा लोगोंको कामपर लगाये। मैं तो सुबहसे अपना काम ही कर रहा हूँ।’
मैंने बहुत अनुरोध किया, पर वह नहीं माना। उसने कहा कि बस, दो बजेतकका ही समय होता है, दो बज गये। अब कुछ नहीं हो सकता।
मैं समझ रहा था कि सुबहसे वह दलालोंका काम कर रहा था, लेकिन जैसे ही बिना दलालवाला काम आया, उसने बहाने बनाने शुरू कर दिये हैं, पर हम भी अड़े हुए थे कि बिना अपने पदका इस्तेमाल किये और बिना ऊपरसे पैसे खिलाये इस कामको अंजाम देना है।
मैं ये भी समझ गया था कि अब कल अगर आये तो कलका भी पूरा दिन निकल ही जायगा; क्योंकि दलाल हर खिड़कीको घेरकर खड़े रहते हैं और आम आदमी वहाँतक पहुँचनेमें बिलबिला उठता है।
खैर, मेरा मित्र बहुत मायूस हुआ और उसने कहा कि चलो, अब कल आयेंगे।
मैंने उसे रोका। कहा कि रुको, एक और कोशिश करता हूँ।
बाबू अपना थैला लेकर उठ चुका था। मैंने कुछ कहा नहीं, चुपचाप उसके पीछे हो लिया। वह उसी दफ्तरमें तीसरी या चौथी मंजिलपर बनी एक कैंटीनमें गया, वहाँ उसने अपने थैलेसे लंच-बॉक्स निकाला औरधीरे-धीरे अकेला खाने लगा।
मैं उसके सामनेकी बेंचपर जाकर बैठ गया। उसने मेरी ओर देखा और बुरा सा मुँह बनाया। मैं उसकी ओर देखकर मुसकराया। उससे मैंने पूछा कि रोज घरसे खाना साते हो ?
उसने अनमनेसे कहा कि हाँ, रोज घरसे लाता हूँ। मैंने कहा कि तुम्हारे पास तो बहुत काम है, रोज बहुत-से नये-नये लोगोंसे मिलते होगे ?
वह पता नहीं क्या समझा और कहने लगा कि हाँ, तो एक-से-एक बड़े अधिकारियोंसे मिलता हूँ। कई आई0ए0एस0 आई0पी0एस0, विधायक और न जाने कौन-कौन रोज यहाँ आते हैं। मेरी कुर्सीके सामने बड़े बड़े लोग इन्तजार करते हैं।.
मैंने बहुत गौरसे देखा, ऐसा कहते हुए उसके चेहरेपर अहंका भाव था।
मैं चुपचाप उसे सुनता रहा।
फिर मैंने उससे पूछा कि एक रोटी तुम्हारी प्लेटसे मैं भी खा लूँ? वह समझ नहीं पाया कि मैं क्या कह रहा हूँ। उसने बस ‘हाँ’ में सिर हिला
मैंने एक रोटी उसकी प्लेटसे उठा ली, सब्जीकेसाथ खाने लगा।
वह चुपचाप मुझे देखता रहा। मैंने उसके खानेकी तारीफ की और कहा कि तुम्हारी पत्नी बहुत ही स्वादिष्ट खाना पकाती है।
वह चुप रहा।
मैंने फिर उसे कुरेदा। तुम बहुत महत्त्वपूर्ण सीटपर बैठे हो। बड़े-बड़े लोग तुम्हारे पास आते हैं। तो क्या तुम अपनी कुर्सीकी इज्जत करते हो ?
अब वह चौंका। उसने मेरी ओर देखकर पूछा किइज्जत ? मतलब ?
मैंने कहा कि तुम बहुत भाग्यशाली हो, तुम्हें इतनी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली है, तुम न जाने कितने बड़े बड़े अफसरोंसे डील करते हो, लेकिन तुम अपने पदकी इज्जत नहीं करते।
उसने मुझसे पूछा कि ऐसा कैसे कहा आपने? मैंने कहा कि जो काम दिया गया है, उसकी इज्जत करते तो तुम इस तरह रूखे व्यवहारवाले नहीं होते।
देखो, तुम्हारा कोई दोस्त भी नहीं है। तुम दफ्तरकी कैंटीनमें अकेले खाना खाते हो, अपनी कुर्सीपर भी मायूस होकर बैठे रहते हो, लोगोंका होता हुआ काम पूरा करनेकी जगह अटकानेकी कोशिश करते हो।
मान लो, कोई एकदम दो बजे ही तुम्हारे काउण्टरपर पहुँचा, तो तुमने इस बातका लिहाजतक नहीं किया कि वह सुबहसे लाइनमें खड़ा रहा होगा और तुमने फटाकसे खिड़की बन्द कर दी। जब मैंने तुमसे अनुरोध किया तो तुमने कहा कि सरकारसे कहो कि ज्यादा लोगोंको बहाल करे।
मान लो मैं सरकारसे कहकर और लोग बहाल करा लूँ, तो तुम्हारी अहमियत घट नहीं जायगी ? हो सकता है। तुमसे ये काम ही ले लिया जाय। फिर तुम कैसे आई0ए0एस0 आई0पी0एस0 और विधायकोंसे मिलोगे ?
भगवान्ने तुम्हें मौका दिया है रिश्ते बनानेके लिये, लेकिन अपना दुर्भाग्य देखो, तुम इसका लाभ उठानेकी जगह रिश्ते बिगाड़ रहे हो।
मेरा क्या है, कल भी आ जाऊँगा, परसों भी आ जाऊँगा। ऐसा तो है नहीं कि आज नहीं काम हुआ तो कभी नहीं होगा। तुम नहीं करोगे तो कोई और बाबू कल करेगा।
पर तुम्हारे पास तो मौका था किसीको अपना अहसानमन्द बनानेका । तुम उससे चूक गये। वह खाना छोड़कर मेरी बातें सुनने लगा था।
मैंने कहा कि पैसे तो बहुत कमा लोगे, लेकिन रिश्ते नहीं कमाये तो सब बेकार है। क्या करोगे पैसोंका ? अपना व्यवहार ठीक नहीं रखोगे तो तुम्हारे घरवाले भी तुमसे दुखी रहेंगे। यार-दोस्त तो नहीं हैं, ये तो मैं देख ही चुका हूँ। मुझे देखो, अपने दफ्तर में कभी अकेला खाना नहीं खाता।
यहाँ भी भूख लगी तो तुम्हारे साथ खाना खाने आ गया। अरे! अकेले खाना भी कोई जिन्दगी है? मेरी बात सुनकर वह रुआँसा हो गया। उसने कहा कि आपने बात सही कही है साहब मैं अकेला हूँ। पत्नी झगड़ा करके मायके चली गयी है। बच्चे भी मुझे पसन्द नहीं करते। माँ हैं, वह भी कुछ ज्यादा बात नहीं करती। सुबह चार-पाँच रोटी बनाकर दे देती है और मैं तनहा खाना खाता हूँ। रातमें घर जानेका भी मन नहीं करता। समझमें नहीं आता कि गड़बड़ी कहाँ है ?
मैंने हौलेसे कहा कि खुदको लोगोंसे जोड़ो। किसीकी मदद कर सकते हो तो करो। देखो, मैं यहाँ अपने दोस्तके पासपोर्टके लिये आया हूँ। मेरे पास तो पासपोर्ट है।
मैंने दोस्तकी खातिर तुम्हारी मिन्नतें कीं, निःस्वार्थभावसे। इसलिये मेरे पास दोस्त हैं, तुम्हारे पास नहीं हैं।
वह उठा और उसने मुझसे कहा कि आप मेरी
खिड़कीपर पहुँचो। मैं आज ही फॉर्म जमा करूँगा।
मैं नीचे गया, उसने फॉर्म जमा कर लिया, फीस ले ली और हफ्तेभरमें पासपोर्ट बन गया।
बाबूने मुझसे मेरा नम्बर माँगा, मैंने अपना मोबाइल नम्बर उसे दे दिया और चला आया।
कल दीवालीपर मेरे पास बहुत-से फोन आये। मैंने करीब-करीब सारे नम्बर उठाये। सबको हैप्पी दीवाली बोला।
उसीमें एक नम्बरसे फोन आया, ‘रविन्द्र कुमार चौधरी बोल रहा हूँ साहब ! ‘
मैं एकदम नहीं पहचान सका। उसने कहा कि कई साल पहले आप हमारे पास अपने किसी दोस्तके पासपोर्टके लिये आये थे और आपने मेरे साथ रोटी भी खायी थी।
आपने कहा था कि पैसेकी जगह रिश्ते बनाओ।
मुझे एकदम याद आ गया। मैंने कहा, ‘हाँ! जी चौधरी साहब, कैसे हैं ?’
उसने खुश होकर कहा, ‘साहब! आप उस दिन चले गये, फिर मैं बहुत सोचता रहा। मुझे लगा कि पैसे तो सचमुच बहुत लोग दे जाते हैं, लेकिन साथ खाना खानेवाला कोई नहीं मिलता। सब अपनेमें व्यस्त हैं। साहब! मैं अगले ही दिन पत्नीके मायके गया, बहुत मिन्नतें कर उसे घर लाया। वह मान ही नहीं रही थी।
वह खाना खाने बैठी तो मैंने उसकी प्लेटसे एक रोटी उठा ली, कहा कि साथ खिलाओगी? वह हैरान थी।
रोने लगी। मेरे साथ चली आयी। बच्चे भी साथ चले आये।
साहब! अब मैं पैसे नहीं कमाता। रिश्ते कमाता हूँ। जो आता है, उसका काम कर देता हूँ।
साहब! आज आपको हैप्पी दीवाली बोलनेके लिये फोन किया है।
अगले महीने बिटियाकी शादी है, आपको आना है। अपना पता भेज दीजियेगा। मैं और मेरी पत्नी आपके पास आयेंगे।
मेरी पत्नीने मुझसे पूछा था कि ये पासपोर्ट दफ्तरमें रिश्ते कमाना कहाँसे सीखे ?
तो मैंने पूरी कहानी बतायी थी। आप किसीसे नहीं मिले, लेकिन मेरे घरमें आपने रिश्ता जोड़ लिया है।
सब आपको जानते हैं, बहुत दिनोंसे फोन करनेकी सोचता था, लेकिन हिम्मत नहीं होती थी।
आज दीवालीका मौका देख करके फोन कर रहा हूँ। शादी में आपको आना है, बिटियाको आशीर्वाद देने। रिश्ता जोड़ा है आपने। मुझे यकीन है आप आयेंगे।
वह बोलता जा रहा था, मैं सुनता जा रहा था। सोचा नहीं था कि सचमुच उसकी जिन्दगीमें भी पैसोंपररिश्ता भारी पड़ेगा।
लेकिन मेरा कहा सच साबित हुआ
‘आदमी भावनाओंसे संचालित होता है,कारणसे नहीं । कारणसे तो मशीनें चला करती हैं।’
जिन्दगीमें किसीका साथ ही काफी है,
कन्धेपर रखा हुआ हाथ ही काफी है,
दूर हो या पास, क्या फर्क पड़ता है,
क्योंकि अनमोल रिश्तोंका तो बस अहसास ही काफी है।
रिश्तोंकी कमाई
बात आठ-दस साल पहलेकी है। मैं अपने एक मित्रका पासपोर्ट बनवानेके लिये दिल्लीके पासपोर्ट ऑफिस गया था। उन दिनों इन्टरनेटपर फॉर्म भरनेकी सुविधा नहीं थी। पासपोर्ट दफ्तर में दलालोंका बोलबाला था और खुलेआम दलाल पैसे लेकर पासपोर्टके फॉर्म बेचनेसे लेकर उसे भरवाने, जमा करवाने और पासपोर्ट बनवानेका काम करते थेI
मेरे मित्रको किसी कारणसे पासपोर्टकी जल्दी थी, लेकिन दलालोंके दलदलमें फँसना नहीं चाहते थे।
हम पासपोर्ट दफ्तर पहुँच गये, लाइनमें लगकर हमने पासपोर्टका तत्काल फॉर्म भी ले लिया। पूरा फॉर्म भर लिया। इस चक्करमें कई घण्टे निकल चुके थे और अब हमें किसी तरह पासपोर्टकी फीस जमा करानी थी।
हम लाइनमें खड़े हुए, लेकिन जैसे ही हमारा नम्बर आया, बाबूने खिड़की बन्द कर दी और कहा कि समय खत्म हो चुका है, अब कल आइयेगा।
मैंने उससे मिन्नतें कीं, उससे कहा कि आज पूरा दिन हमने खर्च किया है और बस, अब केवल फीस जमा करानेकी बात रह गयी है, कृपया फीस ले लीजिये ।
बाबू बिगड़ गया। कहने लगा, ‘आपने पूरा दिन खर्च कर दिया तो उसके लिये मैं जिम्मेदार है क्या ? अरे । सरकार ज्यादा लोगोंको कामपर लगाये। मैं तो सुबहसे अपना काम ही कर रहा हूँ।’
मैंने बहुत अनुरोध किया, पर वह नहीं माना। उसने कहा कि बस, दो बजेतकका ही समय होता है, दो बज गये। अब कुछ नहीं हो सकता।
मैं समझ रहा था कि सुबहसे वह दलालोंका काम कर रहा था, लेकिन जैसे ही बिना दलालवाला काम आया, उसने बहाने बनाने शुरू कर दिये हैं, पर हम भी अड़े हुए थे कि बिना अपने पदका इस्तेमाल किये और बिना ऊपरसे पैसे खिलाये इस कामको अंजाम देना है।
मैं ये भी समझ गया था कि अब कल अगर आये तो कलका भी पूरा दिन निकल ही जायगा; क्योंकि दलाल हर खिड़कीको घेरकर खड़े रहते हैं और आम आदमी वहाँतक पहुँचनेमें बिलबिला उठता है।
खैर, मेरा मित्र बहुत मायूस हुआ और उसने कहा कि चलो, अब कल आयेंगे।
मैंने उसे रोका। कहा कि रुको, एक और कोशिश करता हूँ।
बाबू अपना थैला लेकर उठ चुका था। मैंने कुछ कहा नहीं, चुपचाप उसके पीछे हो लिया। वह उसी दफ्तरमें तीसरी या चौथी मंजिलपर बनी एक कैंटीनमें गया, वहाँ उसने अपने थैलेसे लंच-बॉक्स निकाला औरधीरे-धीरे अकेला खाने लगा।
मैं उसके सामनेकी बेंचपर जाकर बैठ गया। उसने मेरी ओर देखा और बुरा सा मुँह बनाया। मैं उसकी ओर देखकर मुसकराया। उससे मैंने पूछा कि रोज घरसे खाना साते हो ?
उसने अनमनेसे कहा कि हाँ, रोज घरसे लाता हूँ। मैंने कहा कि तुम्हारे पास तो बहुत काम है, रोज बहुत-से नये-नये लोगोंसे मिलते होगे ?
वह पता नहीं क्या समझा और कहने लगा कि हाँ, तो एक-से-एक बड़े अधिकारियोंसे मिलता हूँ। कई आई0ए0एस0 आई0पी0एस0, विधायक और न जाने कौन-कौन रोज यहाँ आते हैं। मेरी कुर्सीके सामने बड़े बड़े लोग इन्तजार करते हैं।.
मैंने बहुत गौरसे देखा, ऐसा कहते हुए उसके चेहरेपर अहंका भाव था।
मैं चुपचाप उसे सुनता रहा।
फिर मैंने उससे पूछा कि एक रोटी तुम्हारी प्लेटसे मैं भी खा लूँ? वह समझ नहीं पाया कि मैं क्या कह रहा हूँ। उसने बस ‘हाँ’ में सिर हिला
मैंने एक रोटी उसकी प्लेटसे उठा ली, सब्जीकेसाथ खाने लगा।
वह चुपचाप मुझे देखता रहा। मैंने उसके खानेकी तारीफ की और कहा कि तुम्हारी पत्नी बहुत ही स्वादिष्ट खाना पकाती है।
वह चुप रहा।
मैंने फिर उसे कुरेदा। तुम बहुत महत्त्वपूर्ण सीटपर बैठे हो। बड़े-बड़े लोग तुम्हारे पास आते हैं। तो क्या तुम अपनी कुर्सीकी इज्जत करते हो ?
अब वह चौंका। उसने मेरी ओर देखकर पूछा किइज्जत ? मतलब ?
मैंने कहा कि तुम बहुत भाग्यशाली हो, तुम्हें इतनी महत्त्वपूर्ण जिम्मेदारी मिली है, तुम न जाने कितने बड़े बड़े अफसरोंसे डील करते हो, लेकिन तुम अपने पदकी इज्जत नहीं करते।
उसने मुझसे पूछा कि ऐसा कैसे कहा आपने? मैंने कहा कि जो काम दिया गया है, उसकी इज्जत करते तो तुम इस तरह रूखे व्यवहारवाले नहीं होते।
देखो, तुम्हारा कोई दोस्त भी नहीं है। तुम दफ्तरकी कैंटीनमें अकेले खाना खाते हो, अपनी कुर्सीपर भी मायूस होकर बैठे रहते हो, लोगोंका होता हुआ काम पूरा करनेकी जगह अटकानेकी कोशिश करते हो।
मान लो, कोई एकदम दो बजे ही तुम्हारे काउण्टरपर पहुँचा, तो तुमने इस बातका लिहाजतक नहीं किया कि वह सुबहसे लाइनमें खड़ा रहा होगा और तुमने फटाकसे खिड़की बन्द कर दी। जब मैंने तुमसे अनुरोध किया तो तुमने कहा कि सरकारसे कहो कि ज्यादा लोगोंको बहाल करे।
मान लो मैं सरकारसे कहकर और लोग बहाल करा लूँ, तो तुम्हारी अहमियत घट नहीं जायगी ? हो सकता है। तुमसे ये काम ही ले लिया जाय। फिर तुम कैसे आई0ए0एस0 आई0पी0एस0 और विधायकोंसे मिलोगे ?
भगवान्ने तुम्हें मौका दिया है रिश्ते बनानेके लिये, लेकिन अपना दुर्भाग्य देखो, तुम इसका लाभ उठानेकी जगह रिश्ते बिगाड़ रहे हो।
मेरा क्या है, कल भी आ जाऊँगा, परसों भी आ जाऊँगा। ऐसा तो है नहीं कि आज नहीं काम हुआ तो कभी नहीं होगा। तुम नहीं करोगे तो कोई और बाबू कल करेगा।
पर तुम्हारे पास तो मौका था किसीको अपना अहसानमन्द बनानेका । तुम उससे चूक गये। वह खाना छोड़कर मेरी बातें सुनने लगा था।
मैंने कहा कि पैसे तो बहुत कमा लोगे, लेकिन रिश्ते नहीं कमाये तो सब बेकार है। क्या करोगे पैसोंका ? अपना व्यवहार ठीक नहीं रखोगे तो तुम्हारे घरवाले भी तुमसे दुखी रहेंगे। यार-दोस्त तो नहीं हैं, ये तो मैं देख ही चुका हूँ। मुझे देखो, अपने दफ्तर में कभी अकेला खाना नहीं खाता।
यहाँ भी भूख लगी तो तुम्हारे साथ खाना खाने आ गया। अरे! अकेले खाना भी कोई जिन्दगी है? मेरी बात सुनकर वह रुआँसा हो गया। उसने कहा कि आपने बात सही कही है साहब मैं अकेला हूँ। पत्नी झगड़ा करके मायके चली गयी है। बच्चे भी मुझे पसन्द नहीं करते। माँ हैं, वह भी कुछ ज्यादा बात नहीं करती। सुबह चार-पाँच रोटी बनाकर दे देती है और मैं तनहा खाना खाता हूँ। रातमें घर जानेका भी मन नहीं करता। समझमें नहीं आता कि गड़बड़ी कहाँ है ?
मैंने हौलेसे कहा कि खुदको लोगोंसे जोड़ो। किसीकी मदद कर सकते हो तो करो। देखो, मैं यहाँ अपने दोस्तके पासपोर्टके लिये आया हूँ। मेरे पास तो पासपोर्ट है।
मैंने दोस्तकी खातिर तुम्हारी मिन्नतें कीं, निःस्वार्थभावसे। इसलिये मेरे पास दोस्त हैं, तुम्हारे पास नहीं हैं।
वह उठा और उसने मुझसे कहा कि आप मेरी
खिड़कीपर पहुँचो। मैं आज ही फॉर्म जमा करूँगा।
मैं नीचे गया, उसने फॉर्म जमा कर लिया, फीस ले ली और हफ्तेभरमें पासपोर्ट बन गया।
बाबूने मुझसे मेरा नम्बर माँगा, मैंने अपना मोबाइल नम्बर उसे दे दिया और चला आया।
कल दीवालीपर मेरे पास बहुत-से फोन आये। मैंने करीब-करीब सारे नम्बर उठाये। सबको हैप्पी दीवाली बोला।
उसीमें एक नम्बरसे फोन आया, ‘रविन्द्र कुमार चौधरी बोल रहा हूँ साहब ! ‘
मैं एकदम नहीं पहचान सका। उसने कहा कि कई साल पहले आप हमारे पास अपने किसी दोस्तके पासपोर्टके लिये आये थे और आपने मेरे साथ रोटी भी खायी थी।
आपने कहा था कि पैसेकी जगह रिश्ते बनाओ।
मुझे एकदम याद आ गया। मैंने कहा, ‘हाँ! जी चौधरी साहब, कैसे हैं ?’
उसने खुश होकर कहा, ‘साहब! आप उस दिन चले गये, फिर मैं बहुत सोचता रहा। मुझे लगा कि पैसे तो सचमुच बहुत लोग दे जाते हैं, लेकिन साथ खाना खानेवाला कोई नहीं मिलता। सब अपनेमें व्यस्त हैं। साहब! मैं अगले ही दिन पत्नीके मायके गया, बहुत मिन्नतें कर उसे घर लाया। वह मान ही नहीं रही थी।
वह खाना खाने बैठी तो मैंने उसकी प्लेटसे एक रोटी उठा ली, कहा कि साथ खिलाओगी? वह हैरान थी।
रोने लगी। मेरे साथ चली आयी। बच्चे भी साथ चले आये।
साहब! अब मैं पैसे नहीं कमाता। रिश्ते कमाता हूँ। जो आता है, उसका काम कर देता हूँ।
साहब! आज आपको हैप्पी दीवाली बोलनेके लिये फोन किया है।
अगले महीने बिटियाकी शादी है, आपको आना है। अपना पता भेज दीजियेगा। मैं और मेरी पत्नी आपके पास आयेंगे।
मेरी पत्नीने मुझसे पूछा था कि ये पासपोर्ट दफ्तरमें रिश्ते कमाना कहाँसे सीखे ?
तो मैंने पूरी कहानी बतायी थी। आप किसीसे नहीं मिले, लेकिन मेरे घरमें आपने रिश्ता जोड़ लिया है।
सब आपको जानते हैं, बहुत दिनोंसे फोन करनेकी सोचता था, लेकिन हिम्मत नहीं होती थी।
आज दीवालीका मौका देख करके फोन कर रहा हूँ। शादी में आपको आना है, बिटियाको आशीर्वाद देने। रिश्ता जोड़ा है आपने। मुझे यकीन है आप आयेंगे।
वह बोलता जा रहा था, मैं सुनता जा रहा था। सोचा नहीं था कि सचमुच उसकी जिन्दगीमें भी पैसोंपररिश्ता भारी पड़ेगा।
लेकिन मेरा कहा सच साबित हुआ
‘आदमी भावनाओंसे संचालित होता है,कारणसे नहीं । कारणसे तो मशीनें चला करती हैं।’
जिन्दगीमें किसीका साथ ही काफी है,
कन्धेपर रखा हुआ हाथ ही काफी है,
दूर हो या पास, क्या फर्क पड़ता है,
क्योंकि अनमोल रिश्तोंका तो बस अहसास ही काफी है।