“रसोपासना” )🙏
भाग-51

आज के विचार

सायंकाल का समय हो गया था…सूर्य अस्त हो रहे थे ।

मन में आया बहुत दिन हो गए अकेले कहीं गए नहीं…एकान्त… बस हम हों…और मेरे युगल हों…

बिना किसी को बताये मैं चल पड़ा… मान सरोवर ।

मेरा प्रिय स्थल…निकट होने के कारण आने जाने में भी कोई दिक्कत नही होती…मैं अकेले गाड़ी लेकर चल दिया था ।

प्राची दिशा से कृष्ण वर्ण अन्धकार धीरे धीरे आगे की ओर बढ़ रहा था… शीत का प्रकोप अपने चरम पर था…पर जिसे लगन हो “रस” को पाने की…उसे क्या शीत और क्या ग्रीष्म ? उसे बड़ी बड़ी बाधाएँ नही रोक पातीं… फिर ये तो ।

जब गाड़ी से उतरा…मान सरोवर शान्त था…वन वहाँ के अद्भुत लग रहे थे आज…पक्षी तो मौन व्रत ही लेकर बैठ गए थे ।

सरोवर की छटा अद्भुत थी…उसके घाट… घाट की बुर्जियाँ… हाँ झींगुरों की आवाज हल्की हल्की आ रही थी…”श्रीजी” के मन्दिर में आरती हो चुकी थी…मन्दिर बन्द कर रहे थे पुजारी लोग, शीत ऋतु में आरती करके मन्दिर को बन्दकर पुजारी लोग भी जल्दी ही चले जाते हैं ।

मैं सरोवर में खड़ा था…शान्त… मन शान्त था…अत्यन्त शान्त । कुछ देर बाद सीढ़ियों पर ही बैठ गया ।

सरोवर में आचमन की इच्छा हुयी… पर नही…उस प्रशान्त सरोवर को क्षुब्ध करने का साहस न हुआ ।

चुपचाप बैठा रहा… मौन… आज अपने मन से कुछ करने की इच्छा नही थी…न नाम जप…न ध्यान… कुछ नही…आज लग रहा था… जो भी हो ‘मैं” न करूँ…सहज हो…या सहज प्रकट हो…पर हाँ…झूठ नही लिखूंगा… मन में उदासी अवश्य थी…और उदासी ये कि…”दर्शन कब होंगे” ?

” मेरे भजन करने से दर्शन होंगे “…अब मुझे नही लगता… “मेरे” करने से क्या कुछ हो सकता है ? “मैं” जब तक शेष है…तब तक भला युगल के दर्शन होंगे ?

मैं मान सरोवर में बैठा रहा…बस सरोवर को देखता रहा ।

ये स्थिति मेरी शायद 30 मिनट तक रही होगी…

तभी एक गुनगुनाहट मेरे अंदर अपने आप चलने लगी…मेरा कोई प्रयास नही था… कुछ भी नही…मैं बस देख रहा था… जैसे मैं रसोपासना में लिखता रहा…”सखियाँ देख रही हैं युगल को”…बस उसी तरह… वो गुनगुनाहट क्या थी मैं समझ नही पाया… पर धीरे धीरे वो स्पष्ट होता गया…

🙏”जय राधे जय राधे राधे , जय राधे जय श्री राधे !
जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण , जय कृष्ण जय श्री कृष्ण “

कुछ अलग ही राग था… कुछ अलग ही मधुरता थी…अजीब सा आकर्षण था… दिव्य था वो आकर्षण ।

मैंने अपने आपको और शिथिल छोड़ दिया…ताकि “मैं” और मिट जाऊँ…और स्वयं, स्वयं से ही प्रकट उस दिव्य गुनगुनाहट को सुन सकूँ… अक्षर मेरे सामने नाचने लगे थे अब…वो स्वर भी और अक्षरों का दर्शन भी मुझे स्पष्ट होने लगा था ।

“राधे श्याम”… ये अक्षर मुझे सरोवर के चारों ओर नृत्य करते हुये दिखाई देने लगे थे… रंग बिरंगे अक्षर बन रहे थे…मानो रास चल रहा हो…

उसमें एक अद्भुत मधुरता थी…मैं उसे बता नही पा रहा हूँ…क्यों कि मेरी लेखनी की एक सीमा है…पर वो असीम था ।

मैं तीस वर्ष से कथा गा रहा हूँ…हाँ…करीब जब आठ वर्ष का था तब से कथा का गान कर रहा हूँ…पर ऐसा अद्भुत गान मुझ से कभी प्रकट नही हुआ… कैसे प्रकट होता… उसमें मेरा प्रयास था…पर ये स्वयं प्रकट था…स्वयं प्रकट ।

मैं अपने आपको भूल रहा था…धीरे धीरे मैं क्या हूँ… मैं कौन हूँ ये भूलने लगा…सरोवर दिव्य होता जा रहा था अब…उसमें कमल दिखाई देने लगे थे मुझे… कमल भी नील, पीत, लाल, ऐसे अनेक प्रकार के…

तभी पीछे से घुंघरुओं की आवाज सुनाई दी…मैं समझ नही पाया ये कौन ? वो आवाज मेरे ही पास आती जा रही थी ।

एक अलग सी सुगन्ध… ऐसी सुगन्ध… जिसे मैंने आज तक सूँघा ही नही था… मैं क्या कहूँ ?

मैंने पीछे मुड़कर देखा…

ओह ! सखियाँ खड़ी हैं…मैं जड़वत् हो गया था ।

रंगदेवी जु, सुदेवी जु, ललिता जु, विशाखा जु, चित्रा जु, तुंगविद्या जु,

इन सबने मुझे छूआ…मेरा हाथ पकड़ा…

मेरे देह में एक विद्युत सी किरणें दौड़ गयीं थीं ।🙏


वो निकुञ्ज !…दिव्य दिव्य लताओं से घिरा हुआ…एक से एक वृक्ष… उन वृक्षों के पत्ते चमक रहे थे…

नाना प्रकार के पुष्पों से झुकी हुयी थीं वहाँ की लताएँ…

चमचमाती वहाँ की अवनी थी…और ध्यान पूर्वक देखा मैंने… प्रत्येक वृक्ष के पत्तों में “श्रीराधा श्रीराधा” लिखा हुआ था…स्पष्ट देखा मैंने…

क्या देख रही हो ? मेरे कन्धे पर हाथ रखा… मैंने पीछे मुड़कर देखा… तो एक अत्यन्त सुन्दरी…सुन्दरता ने ही मानो रूप धारण किया हो…आप ? मैंने चरण छूने चाहे…

मैं रंगदेवी ! कितनी मीठी आवाज थी ।

मुझे रोमांच हुआ… मैं जिनके बारे में लिख रहा था वो मेरे सामने खड़ी थीं…ओह !

चलो अब ! दर्शन कराऊँ मैं तुम्हें… बस इतना कहा… और वो चल पड़ीं…मैं उनके पीछे भागा…

एक महल… शायद वही “मोहन महल” था…

अद्भुत था वो तो…

कुञ्ज रंध्रों से झाँक रही थीं सखियाँ…

पर…

मैं उलझन में पड़ गया…मेरे कुछ समझ में नही आ रहा था…वहाँ की दिव्यता, वहाँ का सब कुछ रसपूर्ण था ।

मैं तो निकुञ्ज और सखियों को देखकर ही सब कुछ भूल गया था ।

मुझे सम्भाला रंगदेवी जु ने… नही तो मैं मूर्छित हो जाता… इतना रसपूर्ण था वहाँ का वातावरण ।

मुझे देखकर सब सखियाँ हँसी…उनके नासिका में लटकते मोती की शोभा अलग ही हो रही थी…मुझे वो स्पष्ट याद है ।🙏


चलो ! अब जाओ…पण्डितजी ! कहाँ से हो ? बड़ी देर से बैठे हो ?

मुझे एक मानसरोवर के ही मन्दिर के पुजारी ने झक झोरा ।

सखियों ने मुझे वहीं छोड़ दिया था…ओह ! मैं वंचित रह गया युगल के दर्शनों से… मेरे नेत्र बह रहे थे… मुझे कुछ सूझ नही रहा था… मैं वहीं बैठा रहा कुछ देर… मेरी दशा देखकर पुजारी को कुछ और कहने की हिम्मत भी नही हुयी थी… मानसरोवर मेरे सामने था… वैसे ही पूर्व की तरह प्रशान्त…

मैं उठा… क्यों कि रात हो रही थी… मेरे कदम लड़खड़ा रहे थे ।

“रही कंगालन की कंगाल “

मन में यही आता रहा… नयनों से अश्रु बहते रहे…

पर हाँ…वो गुनगुनाहट अब भी स्पष्ट थी…

🙏”जय राधे जय राधे राधे जय राधे जय श्री राधे !

जय कृष्ण जय कृष्ण कृष्ण जय कृष्ण जय श्री कृष्ण !!”

कोई नही…सखियों के दर्शन तो हो गए ना ? निकुञ्ज के दर्शन हो गए ना ? मैं चौंका… गाड़ी में बैठने जा रहा था पीछे ये आवाज आयी…मैंने मुड़कर देखा…एक वृद्ध महात्मा थे…लाठी हाथ में लिये… मानसरोवर की परिक्रमा कर रहे थे उस रात में… “सखियों के दर्शन कम नही हैं…कल युगल के भी दर्शन हों जायेंगे…अभी अपने बचे “मैं” को पहले खत्म करो” उन्होंने परिक्रमा देते हुए कहा ।…”मैं” को खत्म करो ? मैं सोच रहा था… हाँ हाँ…अपने “अहं” को… ये कहते हुए वो परिक्रमा लगाते रहे ।

मैं उन्हें देखता रहा…उनके पास जाने की इच्छा हुयी…पर वो अपनी मस्ती में थे… उनकी मस्ती में विघ्न डालना मुझे उचित नही लगा…मैं वापस लौट रहा था अब ।

कैसे “अहं” खत्म होगा ? कार चलाते हुए, यही प्रश्न मेरे मन में चलता रहा… पर मेरे प्रश्न का उत्तर मुझे तुरन्त ही मिल गया…”लीला चिन्तन की धारा निरन्तर बहनी चाहिये हृदय में”… इसी से “अहं” मिटेगा… और युगल प्रकट होंगे… फिर तो वहीं होंगे… “मैं” रहा कहाँ ? रसोपासना का रहस्य अब प्रकट हुआ था ।🙏


( साधकों ! “रसोपासना” मैं यहीं विराम दे रहा हूँ…रसोपासना में लीला चिन्तन का ही महत्व है…और धीरे धीरे ये लीला चिन्तन सहज प्रकट होनी चाहिये… होती है…पर शुरुआत में स्वयं से प्रयास करना ही पड़ेगा…पर मन खूब लगता है इसमें, क्यों कि “रस” है… उपासना ही “रस” की है ।…

साधकों ! लीला चिन्तन में अपने आपको लगाओ…जब सहज लीला प्रकट होने लगे… तो वही रसोपासना की समाधि होगी…यानि हमें वहाँ तक पहुँचना है ।

🙏…”सखियाँ दूलह दुलहिन मिलन के बाद… फिर प्रातः मंगला करके युगल को जगाती हैं…” मंगला आरती”… फिर लीला वैसे ही चलती है… ये क्रम अनादिकाल से ऐसे ही चल रहा है निकुञ्ज में… और चलता रहेगा )

जय श्रीराधे कृष्णा

Share on whatsapp
Share on facebook
Share on twitter
Share on pinterest
Share on telegram
Share on email

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *