सुशील नामके एक ब्राह्मण थे। उनके दो पुत्र थे। बड़ेका नाम था सुवृत्त और छोटेका वृत्त। दोनों युवा थे। दोनों गुणसम्पन्न तथा कई विद्याओंके विशारद थे। घूमते आप दोनों एक दिन प्रयाग पहुँचे। उस दिन थी जन्माष्टमी। इसलिये श्रीबेनीमाधवजीके मन्दिरमें महान उत्सव था महोत्सव देखनेके लिये वे दोनों भी निकले। वे लोग सड़कपर निकले ही थे कि बड़े जोरकी वर्षा आ गयी। इसलिये दोनों मार्ग भूल गये। किसी निश्चित स्थानपर उनका पहुँचना कठिन था। अतएव एक तो वेश्याके घरमें चला गया, दूसरा भूलता-भटकता माधवजीके मन्दिरमें जा पहुँचा। सुवृत्त चाहता था कि वृत्त भी उसके साथ वेश्याके यहाँ ही रह जाय। पर वृत्तने इसे स्वीकार नहीं किया। वह माधवजीके मन्दिरमें पहुँचा भी, पर वहाँ पहुँचनेपर उसके संस्कार बदले और वह लगा ताने वह मन्दिरमें रहते हुए भी सुवृत्त और वेश्याके ध्यानमें डूब गया। वहाँ भगवान्की पूजा हो रही थी। जूत उसे सामनेसे ही खड़ा देख रहा था पर वहवेश्याके ध्यानमें ऐसा तल्लीन हो गया था कि वहाँकी पूजा, कथा, नमस्कार, स्तुति, पुष्पाञ्जलि, गीत-नृत्यादिको देखते-सुनते हुए भी नहीं देख रहा था और नहीं सुन रहा था। वह तो बिलकुल चित्रके समान वहाँ निर्जीव सा खड़ा था।
इधर वेश्यालयमें गये सुवृत्तकी दशा विचित्र थी । वह पश्चात्तापकी अग्रिमें जल रहा था। वह सोचने लगा- ‘अरे! आज भैया वृत्तके हजारों जन्मोंके पुण्य उदय हुए जो वह जन्माष्टमीकी रात्रिमें प्रयागमें भगवान् माधवका दर्शन कर रहा है। ओहो ! इस समय वह प्रभुको अर्घ्य दे रहा होगा। अब वह पूजा-आरतीका दर्शन कर रहा होगा। अब वह नाम एवं कथा-कीर्तनादि सुन रहा होगा। अब तो नमस्कार कर रहा होगा। सचमुच आज उसके नेत्र, कान, सिर, जिह्वा तथा अन्य सभी अङ्ग सफल हो गये। मुझे तो बार-बार धिक्कार है जो मैं इस पापमन्दिर वेश्याके घरमें आ पड़ा। मेरे नेत्र मोरके पाँखके समान हैं, जो आज भगवद्दर्शन न करपाये। मेरे हाथ, जो आज प्रभुके सामने नहीं जुड़े, कलछुलसे भी गये बीते हैं। हाय! आज संत-समागमके बिना मुझे यहाँ एक-एक क्षण युगसे बड़ा मालूम होने लगा है। अरे! देखो तो मुझ दुरात्माके आज कितने जन्मोंके पाप उदित हुए कि प्रयाग जैसी मोक्षपुरीमें आकर भी मैं घोर दुष्ट सङ्गमें फँस गया!’
इस तरह दोनोंको सोचते रात बीत गयी। प्रातः काल उठकर वे दोनों परस्पर मिलने चले। वे अभी सामने आये ही थे कि वज्रपात हुआ और दोनोंकी तत्क्षण मृत्यु हो गयी। तत्काल वहाँ तीन यमदूत और दो भगवान् विष्णुके दूत आ उपस्थित हुए । यमदूतोंने तो वृत्तको पकड़ा और विष्णुदूतोंने सुवृत्तको साथ लिया। ज्यों ही वे लोग चलनेको तैयार हुए, सुवृत्त घबराया-सा बोल उठा, ‘अरे! आपलोग यह कैसा अन्याय कर रहे हैं। कलके पूर्व तो हम दोनों समान थे। पर आजकी रात मैं वेश्यालयमें रहा हूँ, और वह वृत्त, मेरा छोटा भाई, माधवजीके मन्दिरमें रहकर परम पुण्य अर्जन कर चुका है। अतएव भगवान्के परम धाममें तो वही जानेका अधिकारी हो सकता है।’
अब भगवान्के दोनों पार्षद ठहाका मारकर हँस पड़े। वे बोले-‘हमलोग भूल या अन्याय नहीं करते। देखो, धर्मका रहस्य बड़ा सूक्ष्म तथा विचित्र है। सभीधर्मकमम मनः शुद्धि ही मूल कारण है। मनसे भी किया गया पाप दुःखद होता है और मनसे भी चिन्तित धर्म सुखद होता है। आज तुम रातभर शुभचिन्तामें लगे रहे हो, अतएव तुम्हें भगवद्धामकी प्राप्ति हुई। इसके विपरीत वह आजकी सारी रात अशुभ चिन्तनमें ही रहा है, अतएव वह नरक जा रहा है। इसलिये सदा धर्मका ही चिन्तन और मन लगाकर धर्मानुष्ठान करना चाहिये।’
वस्तुतः जहाँ मन है, वहीं मनुष्य वैश्यालय में हो तो मन्दिरमें रहकर भी मनुष्य मन वेश्यालय में है और मन भगवान्में हैं तो वह चाहे कहीं भी हो, भगवान्में ही है।
सुवृत्तने कहा-‘ पर जो हो, इस भाईके बिना मेरी भगवद्धाममें जानेकी इच्छा ही नहीं होती। अन्यथा आपलोग कृपा करके इसे भी यमपाशसे मुक्त कर दें।’ विष्णुदूत बोले- ‘सुवृत्त ! यदि तुम्हें उसपर दया है l
तो तुम्हारे गतजन्मके मानसिक माघस्नानका संकल्पित जो पुण्य बच रहा है, उसे तुम वृत्तको दे दो तो यह भी तुम्हारे साथ ही विष्णुलोकको चल सकेगा। सुवृत्तने तत्काल वैसा ही किया और फलतः वृत्त भी हरिधामको अपने भाईके साथ ही चला गया।
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