सबसे दुबली आशा

boy river monk

तुलसी अद्भुत देवता आसा देवी नाम।

सेये सोक समर्पई बिमुख भये अभिराम ॥

एक बार युधिष्ठिरने भीष्मजीसे पूछा कि ‘पितामह! आशा क्या है तथा इसका स्वरूप कैसा है, बतलानेकी कृपा करें। प्रायः देखा जाता है कि सभी पुरुष महान् आशा लेकर प्रवृत्त होते हैं; पर जब वह बीचमें ही प्रतिहत होती है, तब या तो प्राणी मर ही जाता है अथवा महान् क्लेश भोगता है।’

इसपर भीष्मने कहा कि इस सम्बन्धमें राजर्षि सुमित्र और ऋषभ मुनिके संवादकी कथा कही जाती है। हैहयवंशी राजा सुमित्र एक बार शिकार खेलने गया। वहाँ उसने एक हरिन देखा उसपर उसने बाण मारा। अमितविक्रम मृग बाण लेकर भागा और राजाने भीमृगराजका पीछा किया। ऊँचे-नीचे स्थलों, नद-नदियों, पल्वलों, वनों तथा सम-विषम भागोंसे होकर वह मृग भागता जाता था। राजा भी पूरी शक्ति लगाकर उसका पीछा कर रहा था। तथापि वह मृग हाथ न आया। अन्तमें भीषण अरण्यमें भटकता हुआ राजा सहसा तपस्वियोंके आश्रमके सामने निकला। थके-माँदे, भूख प्याससे व्याकुल, धनुर्धर राजाको देखकर ऋषियोंने उसका यथाविधि स्वागत किया और तदनन्तर उसके वहाँ आनेका कारण पूछा।

राजा बोला- ‘मैं हैहयकुलमें उत्पन्न सुमित्र नामका राजा हूँ। शिकारमें मृगका पीछा करता हुआ यहाँ पहुँच गया हूँ। मैं हताश, श्रमार्त एवं भ्रष्टमार्ग हो गया हूँ। इससे बढ़कर मेरे लिये और कष्ट ही क्या हो सकताहैं। यद्यपि में इस समय छत्र, चामर आदि समस्त राजलक्षणोंसे हीन हूँ, घर, नगर और समस्त प्रकृतिमण्डलसे भी अलग हूँ, फिर भी इन सबका मुझे वैसा दुःख | नहीं, जैसा इस आशाके भङ्ग होनेसे (मृगके हाथसे निकल जानेसे) हो रहा है। महाभाग ! आपलोग सर्वज्ञ हैं, मैं जानना चाहता हूँ कि इस दुरन्त आशाका, जो समुद्र, हिमालय और अनन्त आकाशसे भी बड़ी। मालूम होती है, कैसा स्वरूप एवं क्या लक्षण है ? | यदि कोई आपत्ति न हो तो आपलोग इसे बतलानेकी कृपा करें।’

इसपर उन ऋषियोंमेंसे ऋषभ नामके ऋषि बोले “राजसिंह! एक बार मैं तीर्थयात्रा करता हुआ नर नारायणके आश्रम बदरीवनकी ओर निकला। आश्रमके समीप ही मैं निवासकी खोजमें था कि एक चीराजिनधारी कृशतनु नामके मुनि दीख पड़े। अन्य साधारण मनुष्यकी अपेक्षा ये आठगुना अधिक दुबले थे। राजेन्द्र ! मैंने वैसी कृशता अन्यत्र कहीं नहीं देखी। बस, उनका शरीर कनिष्ठिका अँगुलीके तुल्य था। उनके हाथ, पैर, गर्दन, सिर, कान, आँख सभी अङ्ग भी शरीरके ही अनुरूप थे। पर उनकी वाणी और चेष्टा सामान्य थी। मैं उन ब्राह्मण देवताको देखकर डर गया और अत्यन्त उदास हो गया। मैंने उन्हें प्रणाम किया और धीरेसे वहीं उनके द्वारा दिये गये आसनपर बैठ गया। कृशमुनि धर्ममयी कथा सुनाने लगे। इतनेमें ही वीरद्युम्न नामका राजा भी वहीं पहुँच गया। उसका एकमात्र पुत्र भूरिद्युम्र शिकारमें खो गया था। उसने कृशमुनिसे उसके सम्बन्धमें अपनी महती आशा तथा चिन्ता व्यक्त की ।और उसकी जानकारी चाही। कृशमुनिने कहा कि उसने एक ऋषिकी अवहेलना की थी, आशा भङ्ग की थी, अतएव उसकी यह दशा हुई। वीरद्युम्न निर्विण्ण और निराश हो गया।”

“कृशमुनिने कहा, ‘राजन् ! दुराशा छोड़ो। मैंने यह निश्चय किया है कि जो आशासे जीत लिया गया है, वही दुर्बल है; जिसने आशाको जीत लिया, वास्तवमें वही पुष्ट है। ‘

” इसपर वीरद्युम्नने कहा- ‘महाराज ! क्या आपसे भी यह आशा कृशतर -दुबली है। मुझे तो इस बातपर बड़ा संशय हो रहा है। ‘

“मुनिने कहा- ‘ राजन्! शक्ति होनेपर भी जो दूसरेका उपकार नहीं करता, योग्य पुरुषोंका सत्कार नहीं करता, उस परमासक्त पुरुषकी दुराशा मुझसे दुबली है। किसी एक पुत्रवाले पिताको जो पुत्रके विदेश जाने या भूल जाने या पता न लगनेपर जो उसकी आशा होती है, वह मुझसे दुबली है। जो आशा कृतघ्न, नृशंस, आलसी तथा अपकारी पुरुषोंमें संसक्त है, वह आशा मुझसे कहीं दुबली है।’

“इन सब बातोंको सुनकर राजा मुनिके चरणोंपर गिर पड़ा और उसने अपने पुत्रकी प्राप्तिके लिये प्रार्थना की। मुनिने भी अपने योगबल तथा तपोबलसे हँसकर उसे तुरंत ला दिया। पुनः उन्होंने अपना अत्यद्भुत दिव्य धर्ममय रूप दिखलाया और वनमें वे अन्यत्र चले गये। अतएव अत्यन्त दुर्बल दुराशा सर्वथा त्याग करनेके योग्य है।”

– जा0 श0

(महाभा0 शान्तिपर्व, राजधर्म 125 – 128 )

तुलसी अद्भुत देवता आसा देवी नाम।
सेये सोक समर्पई बिमुख भये अभिराम ॥
एक बार युधिष्ठिरने भीष्मजीसे पूछा कि ‘पितामह! आशा क्या है तथा इसका स्वरूप कैसा है, बतलानेकी कृपा करें। प्रायः देखा जाता है कि सभी पुरुष महान् आशा लेकर प्रवृत्त होते हैं; पर जब वह बीचमें ही प्रतिहत होती है, तब या तो प्राणी मर ही जाता है अथवा महान् क्लेश भोगता है।’
इसपर भीष्मने कहा कि इस सम्बन्धमें राजर्षि सुमित्र और ऋषभ मुनिके संवादकी कथा कही जाती है। हैहयवंशी राजा सुमित्र एक बार शिकार खेलने गया। वहाँ उसने एक हरिन देखा उसपर उसने बाण मारा। अमितविक्रम मृग बाण लेकर भागा और राजाने भीमृगराजका पीछा किया। ऊँचे-नीचे स्थलों, नद-नदियों, पल्वलों, वनों तथा सम-विषम भागोंसे होकर वह मृग भागता जाता था। राजा भी पूरी शक्ति लगाकर उसका पीछा कर रहा था। तथापि वह मृग हाथ न आया। अन्तमें भीषण अरण्यमें भटकता हुआ राजा सहसा तपस्वियोंके आश्रमके सामने निकला। थके-माँदे, भूख प्याससे व्याकुल, धनुर्धर राजाको देखकर ऋषियोंने उसका यथाविधि स्वागत किया और तदनन्तर उसके वहाँ आनेका कारण पूछा।
राजा बोला- ‘मैं हैहयकुलमें उत्पन्न सुमित्र नामका राजा हूँ। शिकारमें मृगका पीछा करता हुआ यहाँ पहुँच गया हूँ। मैं हताश, श्रमार्त एवं भ्रष्टमार्ग हो गया हूँ। इससे बढ़कर मेरे लिये और कष्ट ही क्या हो सकताहैं। यद्यपि में इस समय छत्र, चामर आदि समस्त राजलक्षणोंसे हीन हूँ, घर, नगर और समस्त प्रकृतिमण्डलसे भी अलग हूँ, फिर भी इन सबका मुझे वैसा दुःख | नहीं, जैसा इस आशाके भङ्ग होनेसे (मृगके हाथसे निकल जानेसे) हो रहा है। महाभाग ! आपलोग सर्वज्ञ हैं, मैं जानना चाहता हूँ कि इस दुरन्त आशाका, जो समुद्र, हिमालय और अनन्त आकाशसे भी बड़ी। मालूम होती है, कैसा स्वरूप एवं क्या लक्षण है ? | यदि कोई आपत्ति न हो तो आपलोग इसे बतलानेकी कृपा करें।’
इसपर उन ऋषियोंमेंसे ऋषभ नामके ऋषि बोले “राजसिंह! एक बार मैं तीर्थयात्रा करता हुआ नर नारायणके आश्रम बदरीवनकी ओर निकला। आश्रमके समीप ही मैं निवासकी खोजमें था कि एक चीराजिनधारी कृशतनु नामके मुनि दीख पड़े। अन्य साधारण मनुष्यकी अपेक्षा ये आठगुना अधिक दुबले थे। राजेन्द्र ! मैंने वैसी कृशता अन्यत्र कहीं नहीं देखी। बस, उनका शरीर कनिष्ठिका अँगुलीके तुल्य था। उनके हाथ, पैर, गर्दन, सिर, कान, आँख सभी अङ्ग भी शरीरके ही अनुरूप थे। पर उनकी वाणी और चेष्टा सामान्य थी। मैं उन ब्राह्मण देवताको देखकर डर गया और अत्यन्त उदास हो गया। मैंने उन्हें प्रणाम किया और धीरेसे वहीं उनके द्वारा दिये गये आसनपर बैठ गया। कृशमुनि धर्ममयी कथा सुनाने लगे। इतनेमें ही वीरद्युम्न नामका राजा भी वहीं पहुँच गया। उसका एकमात्र पुत्र भूरिद्युम्र शिकारमें खो गया था। उसने कृशमुनिसे उसके सम्बन्धमें अपनी महती आशा तथा चिन्ता व्यक्त की ।और उसकी जानकारी चाही। कृशमुनिने कहा कि उसने एक ऋषिकी अवहेलना की थी, आशा भङ्ग की थी, अतएव उसकी यह दशा हुई। वीरद्युम्न निर्विण्ण और निराश हो गया।”
“कृशमुनिने कहा, ‘राजन् ! दुराशा छोड़ो। मैंने यह निश्चय किया है कि जो आशासे जीत लिया गया है, वही दुर्बल है; जिसने आशाको जीत लिया, वास्तवमें वही पुष्ट है। ‘
” इसपर वीरद्युम्नने कहा- ‘महाराज ! क्या आपसे भी यह आशा कृशतर -दुबली है। मुझे तो इस बातपर बड़ा संशय हो रहा है। ‘
“मुनिने कहा- ‘ राजन्! शक्ति होनेपर भी जो दूसरेका उपकार नहीं करता, योग्य पुरुषोंका सत्कार नहीं करता, उस परमासक्त पुरुषकी दुराशा मुझसे दुबली है। किसी एक पुत्रवाले पिताको जो पुत्रके विदेश जाने या भूल जाने या पता न लगनेपर जो उसकी आशा होती है, वह मुझसे दुबली है। जो आशा कृतघ्न, नृशंस, आलसी तथा अपकारी पुरुषोंमें संसक्त है, वह आशा मुझसे कहीं दुबली है।’
“इन सब बातोंको सुनकर राजा मुनिके चरणोंपर गिर पड़ा और उसने अपने पुत्रकी प्राप्तिके लिये प्रार्थना की। मुनिने भी अपने योगबल तथा तपोबलसे हँसकर उसे तुरंत ला दिया। पुनः उन्होंने अपना अत्यद्भुत दिव्य धर्ममय रूप दिखलाया और वनमें वे अन्यत्र चले गये। अतएव अत्यन्त दुर्बल दुराशा सर्वथा त्याग करनेके योग्य है।”
– जा0 श0
(महाभा0 शान्तिपर्व, राजधर्म 125 – 128 )

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