महाप्रभु यह सुनकर आश्चर्यचकित हो गये कि भगवद्-विग्रहके राजभोगके लिये द्रव्यका अभाव हो चला है।
‘सोनेकी कटोरी गिरवी रख दी जाय,’ महाप्रभु श्रीवल्लभाचार्यके आदेशका तुरंत पालन हुआ। भगवान् श्रीनाथजीके समक्ष राजभोग प्रस्तुत किया गया, पर महाप्रभुके भक्तोंने इस बातपर बड़ी चिन्ता प्रकट की कि आचार्यने स्वयं प्रसाद नहीं ग्रहण किया। केवल इतना ही नहीं – महाप्रभुने दो दिनतक उपवास भी किया, अन्न-जल कुछ भी ग्रहण नहीं किया। वैष्णवोंनेकारण पूछनेका साहस नहीं किया।
दो दिनोंके बाद द्रव्य आनेपर उन्होंने प्रसाद स्वीकार किया। वैष्णवोंद्वारा कारण पूछनेपर आचार्यने कहा कि ‘सोनेकी कटोरी पहलेसे ही भगवत्सेवामें अर्पित थी; उसपर भगवान्का ही अधिकार था; उसके बदलेमें लाया गया भोग भगवान् तो ग्रहण कर सकते हैं, पर उनके इस भोगका प्रसाद लेना मेरे लिये महापातक था।’ आचार्यने व्यवस्था कर दी कि मेरे वंशमें या मेरा कहलाकर जो कोई भगवद्द्रव्यका उपयोग करेगा उसका नाश हो जायगा । – रा0 श्री0
Mahaprabhu was surprised to hear that there was a shortage of money for the royal enjoyment of the Deity.
‘Let the gold bowl be mortgaged,’ Mahaprabhu Shrivallabhacharya’s order was immediately followed. Rajbhog was presented before Lord Shrinathji, but the devotees of Mahaprabhu expressed great concern that the Acharya himself did not accept the prasad. Not only this – Mahaprabhu also fasted for two days, did not take any food or water. The Vaishnavas did not dare to ask the reason.
He accepted the prasad when the liquid arrived after two days. On being asked the reason by the Vaishnavas, the Acharya said that ‘the gold bowl was already offered in the service of the Lord; Only God had authority over it; God can accept the bhog brought in return, but it was a great sin for me to take the prasad of his bhog.’ Acharya arranged that anyone who uses Bhagavadravya in my lineage or by being called mine will be destroyed. – Ra0 Mr.0