बड़ोदाके शेडखी नामक गाँवमें संत रविसाहेबका निवास था। एक समय उत्तर गुजरातके कुछ प्रेमी भजनीक शेडखीकी ओर जा रहे थे। रास्तेमें डाकूकबाजीसे उनकी भेंट हो गयी। भजनीक लोग मस्तीसे भजन गा रहे थे। उनका कबाजीपर प्रभाव पड़ा और उसके मनमें भी शेडखी जाकर रविसाहेबके दर्शनकरनेकी इच्छा जाग उठी। वह भेष बदलकर शेडखी पहुँचा। रात्रिका समय था। संतधाममें भजनकी धूम मची हुई थी। डाकूने अपने जीवनमें रविसाहेब और भजन-कीर्तनको पहली ही बार देखा । रविसाहेबने अवश्य ही उसको पहचान लिया।
कबाजी वहाँका सात्त्विक प्रभाव लेकर रात्रिके अन्धकारमें ही लौट गया। एक दिनकी बात है। एक नवविवाहित वर-कन्या शेडखीके संतके चरणोंमें प्रणाम करके उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त करनेके लिये जा रहे थे। अनेकों सेहले बँधे वरोंको बरातसहित निर्दयतासे लूट लेनेवाले क्रूर डाकू कबाजीने उनको देख लिया। पर रविसाहेबका नाम सुनकर कबाजीने उनको छोड़ ही नहीं दिया अपितु उसके मनपर एक चोट लगी। उसके पुत्र नहीं था, इससे दूसरे ही क्षण उसके मनमें वात्सल्यभाव जाग उठा – मानो उसीका पुत्र विवाह करके शेडखी संतधाममें जा रहा हो। सोनेकी मोहरोंसे भरी एक थैली उनके हाथोंमें सौंपते हुए उसने कहा ‘यह रविसाहेबकी सेवामें दे देना और कबाजी डाकूके प्रणाम कहना।’
दोनों वर-कन्या संतधाम पहुँचे। थैली चरणोंमें रखकर उन्होंने संतको कबाजीके प्रणाम कहे। उन स्वर्ण-मुद्राओंको संतने स्वयं न लेकर नवविवाहित वर-कन्याको दे दियाऔर उन्हें आशीर्वाद देकर विदा किया।
एक बार एक बड़ी संत मण्डली पहाड़ी रास्तेसे शेडखी जा रही थी। रविसाहेब साधु हैं, इतने संतोंका स्वागत-सत्कार वे कैसे करेंगे; इधर मेरे पास बहुत धन है, यह सोचकर कबाजीने एक गठरी बाँधी और शेडखी जाकर उसे अतिथि सत्कारमें लगानेके लिये संत चरणोंमें आग्रहपूर्ण प्रार्थना की।
डाकूकी रक्तसे सनी धनराशिको अस्वीकार करते हुए संतने उसको फटकारकर कहा- ‘तू बड़ा निर्दय है, असहाय यात्रियोंको लूटता है ! यहाँ हठ मत कर, आज तू धन देने आया है, कल इसी धनके लिये निरपराध मनुष्योंका खून करके उन्हें लूटेगा । अत्याचारी ! तू यहाँसे चला जा ।’
संतके इन अपमान-भरे आवेशयुक्त शब्दोंको कबाजीने शान्तिसे सुना और नम्रतासे शपथ करते हुए कहा ‘महाराज! आजसे डकैतीका पेशा मेरे लिये हराम है।’ यों कहकर उसने तलवार, ढाल, बाण, तरकस – सब संत चरणोंमें डाल दिये और रविसाहेबके चरणोंमें डंडेकी तरह गिर पड़ा। संतने उसका हाथ पकड़कर उठाया और उसे हृदयसे लगा लिया। उसी दिनसे क्रूर कबाजी डाकू सरल साधुहृदय भक्त बन गया और तबसे पहाड़ी – रास्तोंमें उसका स्थान संतोंका आतिथ्य-धाम बन गया।
बड़ोदाके शेडखी नामक गाँवमें संत रविसाहेबका निवास था। एक समय उत्तर गुजरातके कुछ प्रेमी भजनीक शेडखीकी ओर जा रहे थे। रास्तेमें डाकूकबाजीसे उनकी भेंट हो गयी। भजनीक लोग मस्तीसे भजन गा रहे थे। उनका कबाजीपर प्रभाव पड़ा और उसके मनमें भी शेडखी जाकर रविसाहेबके दर्शनकरनेकी इच्छा जाग उठी। वह भेष बदलकर शेडखी पहुँचा। रात्रिका समय था। संतधाममें भजनकी धूम मची हुई थी। डाकूने अपने जीवनमें रविसाहेब और भजन-कीर्तनको पहली ही बार देखा । रविसाहेबने अवश्य ही उसको पहचान लिया।
कबाजी वहाँका सात्त्विक प्रभाव लेकर रात्रिके अन्धकारमें ही लौट गया। एक दिनकी बात है। एक नवविवाहित वर-कन्या शेडखीके संतके चरणोंमें प्रणाम करके उनका शुभाशीर्वाद प्राप्त करनेके लिये जा रहे थे। अनेकों सेहले बँधे वरोंको बरातसहित निर्दयतासे लूट लेनेवाले क्रूर डाकू कबाजीने उनको देख लिया। पर रविसाहेबका नाम सुनकर कबाजीने उनको छोड़ ही नहीं दिया अपितु उसके मनपर एक चोट लगी। उसके पुत्र नहीं था, इससे दूसरे ही क्षण उसके मनमें वात्सल्यभाव जाग उठा – मानो उसीका पुत्र विवाह करके शेडखी संतधाममें जा रहा हो। सोनेकी मोहरोंसे भरी एक थैली उनके हाथोंमें सौंपते हुए उसने कहा ‘यह रविसाहेबकी सेवामें दे देना और कबाजी डाकूके प्रणाम कहना।’
दोनों वर-कन्या संतधाम पहुँचे। थैली चरणोंमें रखकर उन्होंने संतको कबाजीके प्रणाम कहे। उन स्वर्ण-मुद्राओंको संतने स्वयं न लेकर नवविवाहित वर-कन्याको दे दियाऔर उन्हें आशीर्वाद देकर विदा किया।
एक बार एक बड़ी संत मण्डली पहाड़ी रास्तेसे शेडखी जा रही थी। रविसाहेब साधु हैं, इतने संतोंका स्वागत-सत्कार वे कैसे करेंगे; इधर मेरे पास बहुत धन है, यह सोचकर कबाजीने एक गठरी बाँधी और शेडखी जाकर उसे अतिथि सत्कारमें लगानेके लिये संत चरणोंमें आग्रहपूर्ण प्रार्थना की।
डाकूकी रक्तसे सनी धनराशिको अस्वीकार करते हुए संतने उसको फटकारकर कहा- ‘तू बड़ा निर्दय है, असहाय यात्रियोंको लूटता है ! यहाँ हठ मत कर, आज तू धन देने आया है, कल इसी धनके लिये निरपराध मनुष्योंका खून करके उन्हें लूटेगा । अत्याचारी ! तू यहाँसे चला जा ।’
संतके इन अपमान-भरे आवेशयुक्त शब्दोंको कबाजीने शान्तिसे सुना और नम्रतासे शपथ करते हुए कहा ‘महाराज! आजसे डकैतीका पेशा मेरे लिये हराम है।’ यों कहकर उसने तलवार, ढाल, बाण, तरकस – सब संत चरणोंमें डाल दिये और रविसाहेबके चरणोंमें डंडेकी तरह गिर पड़ा। संतने उसका हाथ पकड़कर उठाया और उसे हृदयसे लगा लिया। उसी दिनसे क्रूर कबाजी डाकू सरल साधुहृदय भक्त बन गया और तबसे पहाड़ी – रास्तोंमें उसका स्थान संतोंका आतिथ्य-धाम बन गया।