सत्संगका प्रभाव
प्राचीन कालमें कठिन नियमोंका पालन करनेवाले एक ब्राह्मण थे, जो ‘पृथु’ नामसे सर्वत्र विख्यात थे। वे सदा सन्तुष्ट रहा करते थे. उन्हें योगादि विद्याओंका ज्ञान था। वे प्रतिदिन स्वाध्याय, होम और जप यज्ञमें संलग्न रहकर समय व्यतीत करते थे। उन्हें परमात्माके तत्त्वका बोध था। वे शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रियसंयम) और क्षमासे युक्त रहते थे। उनका चित्त अहिंसाधर्ममें स्थित था। वे सदा अपने कर्तव्यका ज्ञान रखते थे। ब्रह्मचर्य, तपस्या, पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) और वैदिक कर्मोंमें उनकी प्रवृत्ति थी। वे परलोकका भय मानते और सत्य भाषण में रत रहते थे। सबसे मीठे वचन बोलते और अतिथियोंके सत्कारमें मन लगाते थे। सुख-दुःखादि सम्पूर्ण द्वन्द्वोंका परित्याग करनेके लिये सदा योगाभ्यासमें तत्पर रहते थे। अपने कर्तव्यके पालन और स्वाध्यायमें लगे रहना उनका नित्यका नियम था। इस प्रकार संसारको जीतनेकी इच्छासे वे सदा शुभ कर्मका अनुष्ठान किया करते थे। ब्राह्मणदेवताको वनमें निवास करते अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार उनका ऐसा विचार हुआ कि मैं तीर्थयात्रा करूँ, तीर्थोंके पावन जलसे अपने शरीरको पवित्र बनाऊँ। ऐसा सोचकर उन्होंने सूर्योदयके समय शुद्ध चित्तसे पुष्करतीर्थमें स्नान किया और गायत्रीका जप तथा पूज्योंको नमस्कार करके वे यात्राके लिये चल पड़े। जाते-जाते एक जंगलके बीच कण्टकाकीर्ण भूमिमें, जहाँ न पानी था न वृक्ष, उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको खड़े देखा, जो बड़े ही भयंकर थे। उन विकट आकार तथा पापपूर्ण दृष्टिवाले अत्यन्त घोर प्रेतोंको देखकर उनके हृदयमें कुछ भयका संचार हो आया; फिर भी वे निश्चलभावसे खड़े रहे। यद्यपि उनका चित्त भयसे उद्विग्न हो रहा था तथापि उन्होंने धैर्य धारण करके मधुर शब्दोंमें पूछा – ‘विकराल मुखवाले प्राणियो! तुमलोग कौन हो ? किसके द्वारा कौन-सा ऐसा कर्म बन गया है, जिससे तुम्हें इस विकृत
रूपकी प्राप्ति हुई है ?’
प्रेतोंने कहा- हममेंसे एकका नाम पर्युषित है, दूसरेका नाम सूचीमुख है, तीसरेका नाम शीघ्रग, चौथेका रोधक और पाँचवेंका लेखक है।
ब्राह्मणने पूछा- तुम्हारे नाम कैसे पड़ गये ? क्या ारण है, जिससे तुमलोगोंको ये नाम प्राप्त हुए हैं ?
प्रेतोंमेंसे एकने कहा- मैं सदा स्वादिष्ट भोजन किया करता था और ब्राह्मणोंको पर्युषित (बासी) अन्न देता था; इसी हेतुको लेकर मेरा नाम पर्युषित पड़ा है। मेरे इस साथीने अन्न आदिके अभिलाषी बहुत-से ब्राह्मणोंकी हिंसा की है, इसलिये इसका नाम सूचीमुख पड़ा है। यह तीसरा प्रेत भूखे ब्राह्मणके याचना करनेपर भी उसे कुछ देनेके भयसे शीघ्रतापूर्वक वहाँसे चला गया था; इसलिये इसका नाम शीघ्रग हो गया। यह चौथा प्रेत ब्राह्मणोंको देनेके भयसे उद्विग्न होकर सदा अपने घरपर ही स्वादिष्ठ भोजन किया करता था; इसलिये यह रोधक कहलाता है तथा हमलोगोंमें सबसे बड़ा पापी जो यह पाँचवाँ प्रेत है, यह याचना करनेपर चुपचाप खड़ा रहता था या धरती कुरेदने लगता था, इसलिये इसका नाम लेखक पड़ गया। लेखक बड़ी कठिनाईसे चलता है। रोधकको सिर नीचा करके चलना पड़ता है। शीघ्रग पंगु हो गया है। सूचीमुख (हिंसा करनेवाले) – का सूईके समान मुँह हो गया है तथा मुझ पर्युषितकी गर्दन लम्बी और पेट बड़ा हो गया है तथा दोनों ओठ भी लम्बे होनेके कारण लटक गये हैं। यही हमारे प्रेतयोनिमें आनेका वृत्तान्त है।
ब्राह्मण बोले- इस पृथ्वीपर जितने भी जीव रहते हैं, उन सबकी स्थिति आहारपर ही निर्भर है। अतः मैं तुमलोगोंका भी आहार जानना चाहता हूँ।
प्रेत बोले- विप्रवर! हमलोगोंका आहार सभी प्राणियोंके लिये निन्दित है। उसे सुनकर आप भी बारम्बार निन्दा करेंगे। बलगम, पेशाब, पाखाना और स्त्रीके शरीरका मैल— इन्हींसे हमारा भोजन चलता है। जिन घरोंमें पवित्रता नहीं है, वहीं प्रेत भोजन करते हैं। जो घर स्त्रियोंकि प्रमादके कारण अव्यवस्थित रहते हैं, जिनके सामान इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं तथा मल-मूत्रके द्वारा जो घृणित अवस्थाको पहुँच चुके हैं, उन्हीं घरोंमें प्रेत भोजन करते हैं। जिन घरोंमें मानसिक लज्जाका अभाव है, पतितोंका निवास है तथा जहाँके निवासी लूट-पाटका काम करते हैं, प्रेत भोजन करते हैं। जहाँ बलिवैश्वदेव तथा वेद मन्त्रोंका उच्चारण नहीं होता, होम और व्रत नहीं होते, वहाँ प्रेत भोजन करते हैं। जहाँ गुरुजनोंका आदर नहीं होता, जिन घरोंमें स्त्रियोंका प्रभुत्व है, जहाँ क्रोध और लोभने अधिकार जमा लिया है, वहीं प्रेत भोजन करते हैं। तात! मुझे अपने भोजनका परिचय देते लज्जा हो रही है, अतः इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। तपोधन! तुम नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले हो, इसलिये प्रेतयोनिसे दुखी होकर हम तुमसे पूछ रहे हैं। बताओ, कौन सा कर्म करनेसे जीव प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता ?
ब्राह्मणने कहा- जो मनुष्य एक रात्रिका, तीन रात्रियोंका तथा कृच्छ्र- चान्द्रायण आदि अन्य व्रतोंका अनुष्ठान करता है, वह कभी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। जो प्रतिदिन तीन, पाँच या एक अग्निका भी सेवन करता है तथा जिसके हृदयमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो मान और अपमानमें, सुवर्ण और मिट्टीके ढेलेमें तथा शत्रु और मित्रमें समान भाव रखता है, वह प्रेत नहीं होता। देवता, अतिथि, गुरु तथा पितरोंकी पूजामें सदा प्रवृत्त रहनेवाला मनुष्य भी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। शुक्लपक्षमें मंगलवार के दिन चतुर्थी तिथि आनेपर उसमें जो श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जिसने क्रोधको जीत लिया है, जिसमें डाहका सर्वथा अभाव है, जो तृष्णा और आसकिसे रहित, क्षमावान् और दानशील है, यह प्रेतयोनिमें नहीं जाता। जो गौ, ब्राह्मण, तीर्थ, पर्वत, नदी और देवताओंको प्रणाम करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता।
प्रेत बोले- महामुने! आपके मुखसे नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले हम दुखी जीव हैं, इसलिये पुनः पूछते हैं-जिस कर्मसे प्रेतयोनिमें जाना पड़ता है, वह हमें बताइये।
ब्राह्मणने कहा-यदि कोई द्विज और विशेषतः ब्राह्मण शूद्रका अन्न खाकर उसे पेटमें लिये ही मर जाय तो वह प्रेत होता है। जो आश्रमधर्मका त्याग करके मदिरा पीता, परायी स्त्रीका सेवन करता तथा प्रतिदिन मांस खाता है, उस मनुष्यको प्रेत होना पड़ता है। जो ब्राह्मण यज्ञके अनधिकारी पुरुषोंसे यज्ञ करवाता, अधिकारी पुरुषोंका त्याग करता और अनाचारीको सेवामें रत रहता है, वह प्रेतयोनिमें जाता है। जो मित्रकी धरोहरको हड़प लेता, पापकर्माका भोजन बनाता, विश्वासघात करता और कूटनीतिका आश्रय लेता है, वह निश्चय ही प्रेत होता है। ब्रह्महत्यारा, गोघाती, चोर, शराबी, गुरुपत्नीके साथ दुष्कर्म करनेवाला तथा भूमि और कन्याका अपहरण करनेवाला निश्चय ही प्रेत होता है। जो पुरोहित नास्तिकतामें प्रवृत्त होकर अनेकों ऋत्विजोंके लिये मिली हुई दक्षिणाको अकेले ही हड़प लेता है, उसे निश्चय ही प्रेत होना पड़ता है। विप्रवर पृथु जब इस प्रकार उपदेश कर रहे थे,
उसी समय आकाशमें सहसा नगारे बजने लगे। हजारों देवताओंके हाथसे छोड़े हुए फूलोंकी वर्षा होने लगी। प्रेतोंके लिये चारों ओरसे विमान आ गये। आकाशवाणी हुई— ‘इन ब्राह्मणदेवताके साथ वार्तालाप और पुण्यकथाका कीर्तन करनेसे तुम सब प्रेतोंको दिव्यगति प्राप्त हुई है।’ इस प्रकार सत्संगके प्रभावसे उन प्रेतोंका उद्धार हो गया।
[ पद्मपुराण ]
सत्संगका प्रभाव
प्राचीन कालमें कठिन नियमोंका पालन करनेवाले एक ब्राह्मण थे, जो ‘पृथु’ नामसे सर्वत्र विख्यात थे। वे सदा सन्तुष्ट रहा करते थे. उन्हें योगादि विद्याओंका ज्ञान था। वे प्रतिदिन स्वाध्याय, होम और जप यज्ञमें संलग्न रहकर समय व्यतीत करते थे। उन्हें परमात्माके तत्त्वका बोध था। वे शम (मनोनिग्रह), दम (इन्द्रियसंयम) और क्षमासे युक्त रहते थे। उनका चित्त अहिंसाधर्ममें स्थित था। वे सदा अपने कर्तव्यका ज्ञान रखते थे। ब्रह्मचर्य, तपस्या, पितृकार्य (श्राद्ध-तर्पण) और वैदिक कर्मोंमें उनकी प्रवृत्ति थी। वे परलोकका भय मानते और सत्य भाषण में रत रहते थे। सबसे मीठे वचन बोलते और अतिथियोंके सत्कारमें मन लगाते थे। सुख-दुःखादि सम्पूर्ण द्वन्द्वोंका परित्याग करनेके लिये सदा योगाभ्यासमें तत्पर रहते थे। अपने कर्तव्यके पालन और स्वाध्यायमें लगे रहना उनका नित्यका नियम था। इस प्रकार संसारको जीतनेकी इच्छासे वे सदा शुभ कर्मका अनुष्ठान किया करते थे। ब्राह्मणदेवताको वनमें निवास करते अनेकों वर्ष व्यतीत हो गये। एक बार उनका ऐसा विचार हुआ कि मैं तीर्थयात्रा करूँ, तीर्थोंके पावन जलसे अपने शरीरको पवित्र बनाऊँ। ऐसा सोचकर उन्होंने सूर्योदयके समय शुद्ध चित्तसे पुष्करतीर्थमें स्नान किया और गायत्रीका जप तथा पूज्योंको नमस्कार करके वे यात्राके लिये चल पड़े। जाते-जाते एक जंगलके बीच कण्टकाकीर्ण भूमिमें, जहाँ न पानी था न वृक्ष, उन्होंने अपने सामने पाँच पुरुषोंको खड़े देखा, जो बड़े ही भयंकर थे। उन विकट आकार तथा पापपूर्ण दृष्टिवाले अत्यन्त घोर प्रेतोंको देखकर उनके हृदयमें कुछ भयका संचार हो आया; फिर भी वे निश्चलभावसे खड़े रहे। यद्यपि उनका चित्त भयसे उद्विग्न हो रहा था तथापि उन्होंने धैर्य धारण करके मधुर शब्दोंमें पूछा – ‘विकराल मुखवाले प्राणियो! तुमलोग कौन हो ? किसके द्वारा कौन-सा ऐसा कर्म बन गया है, जिससे तुम्हें इस विकृत
रूपकी प्राप्ति हुई है ?’
प्रेतोंने कहा- हममेंसे एकका नाम पर्युषित है, दूसरेका नाम सूचीमुख है, तीसरेका नाम शीघ्रग, चौथेका रोधक और पाँचवेंका लेखक है।
ब्राह्मणने पूछा- तुम्हारे नाम कैसे पड़ गये ? क्या ारण है, जिससे तुमलोगोंको ये नाम प्राप्त हुए हैं ?
प्रेतोंमेंसे एकने कहा- मैं सदा स्वादिष्ट भोजन किया करता था और ब्राह्मणोंको पर्युषित (बासी) अन्न देता था; इसी हेतुको लेकर मेरा नाम पर्युषित पड़ा है। मेरे इस साथीने अन्न आदिके अभिलाषी बहुत-से ब्राह्मणोंकी हिंसा की है, इसलिये इसका नाम सूचीमुख पड़ा है। यह तीसरा प्रेत भूखे ब्राह्मणके याचना करनेपर भी उसे कुछ देनेके भयसे शीघ्रतापूर्वक वहाँसे चला गया था; इसलिये इसका नाम शीघ्रग हो गया। यह चौथा प्रेत ब्राह्मणोंको देनेके भयसे उद्विग्न होकर सदा अपने घरपर ही स्वादिष्ठ भोजन किया करता था; इसलिये यह रोधक कहलाता है तथा हमलोगोंमें सबसे बड़ा पापी जो यह पाँचवाँ प्रेत है, यह याचना करनेपर चुपचाप खड़ा रहता था या धरती कुरेदने लगता था, इसलिये इसका नाम लेखक पड़ गया। लेखक बड़ी कठिनाईसे चलता है। रोधकको सिर नीचा करके चलना पड़ता है। शीघ्रग पंगु हो गया है। सूचीमुख (हिंसा करनेवाले) – का सूईके समान मुँह हो गया है तथा मुझ पर्युषितकी गर्दन लम्बी और पेट बड़ा हो गया है तथा दोनों ओठ भी लम्बे होनेके कारण लटक गये हैं। यही हमारे प्रेतयोनिमें आनेका वृत्तान्त है।
ब्राह्मण बोले- इस पृथ्वीपर जितने भी जीव रहते हैं, उन सबकी स्थिति आहारपर ही निर्भर है। अतः मैं तुमलोगोंका भी आहार जानना चाहता हूँ।
प्रेत बोले- विप्रवर! हमलोगोंका आहार सभी प्राणियोंके लिये निन्दित है। उसे सुनकर आप भी बारम्बार निन्दा करेंगे। बलगम, पेशाब, पाखाना और स्त्रीके शरीरका मैल— इन्हींसे हमारा भोजन चलता है। जिन घरोंमें पवित्रता नहीं है, वहीं प्रेत भोजन करते हैं। जो घर स्त्रियोंकि प्रमादके कारण अव्यवस्थित रहते हैं, जिनके सामान इधर-उधर बिखरे पड़े रहते हैं तथा मल-मूत्रके द्वारा जो घृणित अवस्थाको पहुँच चुके हैं, उन्हीं घरोंमें प्रेत भोजन करते हैं। जिन घरोंमें मानसिक लज्जाका अभाव है, पतितोंका निवास है तथा जहाँके निवासी लूट-पाटका काम करते हैं, प्रेत भोजन करते हैं। जहाँ बलिवैश्वदेव तथा वेद मन्त्रोंका उच्चारण नहीं होता, होम और व्रत नहीं होते, वहाँ प्रेत भोजन करते हैं। जहाँ गुरुजनोंका आदर नहीं होता, जिन घरोंमें स्त्रियोंका प्रभुत्व है, जहाँ क्रोध और लोभने अधिकार जमा लिया है, वहीं प्रेत भोजन करते हैं। तात! मुझे अपने भोजनका परिचय देते लज्जा हो रही है, अतः इससे अधिक मैं कुछ नहीं कह सकता। तपोधन! तुम नियमोंका दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाले हो, इसलिये प्रेतयोनिसे दुखी होकर हम तुमसे पूछ रहे हैं। बताओ, कौन सा कर्म करनेसे जीव प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता ?
ब्राह्मणने कहा- जो मनुष्य एक रात्रिका, तीन रात्रियोंका तथा कृच्छ्र- चान्द्रायण आदि अन्य व्रतोंका अनुष्ठान करता है, वह कभी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। जो प्रतिदिन तीन, पाँच या एक अग्निका भी सेवन करता है तथा जिसके हृदयमें सम्पूर्ण प्राणियोंके प्रति दया भरी हुई है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जो मान और अपमानमें, सुवर्ण और मिट्टीके ढेलेमें तथा शत्रु और मित्रमें समान भाव रखता है, वह प्रेत नहीं होता। देवता, अतिथि, गुरु तथा पितरोंकी पूजामें सदा प्रवृत्त रहनेवाला मनुष्य भी प्रेतयोनिमें नहीं पड़ता। शुक्लपक्षमें मंगलवार के दिन चतुर्थी तिथि आनेपर उसमें जो श्रद्धापूर्वक श्राद्ध करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता। जिसने क्रोधको जीत लिया है, जिसमें डाहका सर्वथा अभाव है, जो तृष्णा और आसकिसे रहित, क्षमावान् और दानशील है, यह प्रेतयोनिमें नहीं जाता। जो गौ, ब्राह्मण, तीर्थ, पर्वत, नदी और देवताओंको प्रणाम करता है, वह मनुष्य प्रेत नहीं होता।
प्रेत बोले- महामुने! आपके मुखसे नाना प्रकारके धर्म सुननेको मिले हम दुखी जीव हैं, इसलिये पुनः पूछते हैं-जिस कर्मसे प्रेतयोनिमें जाना पड़ता है, वह हमें बताइये।
ब्राह्मणने कहा-यदि कोई द्विज और विशेषतः ब्राह्मण शूद्रका अन्न खाकर उसे पेटमें लिये ही मर जाय तो वह प्रेत होता है। जो आश्रमधर्मका त्याग करके मदिरा पीता, परायी स्त्रीका सेवन करता तथा प्रतिदिन मांस खाता है, उस मनुष्यको प्रेत होना पड़ता है। जो ब्राह्मण यज्ञके अनधिकारी पुरुषोंसे यज्ञ करवाता, अधिकारी पुरुषोंका त्याग करता और अनाचारीको सेवामें रत रहता है, वह प्रेतयोनिमें जाता है। जो मित्रकी धरोहरको हड़प लेता, पापकर्माका भोजन बनाता, विश्वासघात करता और कूटनीतिका आश्रय लेता है, वह निश्चय ही प्रेत होता है। ब्रह्महत्यारा, गोघाती, चोर, शराबी, गुरुपत्नीके साथ दुष्कर्म करनेवाला तथा भूमि और कन्याका अपहरण करनेवाला निश्चय ही प्रेत होता है। जो पुरोहित नास्तिकतामें प्रवृत्त होकर अनेकों ऋत्विजोंके लिये मिली हुई दक्षिणाको अकेले ही हड़प लेता है, उसे निश्चय ही प्रेत होना पड़ता है। विप्रवर पृथु जब इस प्रकार उपदेश कर रहे थे,
उसी समय आकाशमें सहसा नगारे बजने लगे। हजारों देवताओंके हाथसे छोड़े हुए फूलोंकी वर्षा होने लगी। प्रेतोंके लिये चारों ओरसे विमान आ गये। आकाशवाणी हुई— ‘इन ब्राह्मणदेवताके साथ वार्तालाप और पुण्यकथाका कीर्तन करनेसे तुम सब प्रेतोंको दिव्यगति प्राप्त हुई है।’ इस प्रकार सत्संगके प्रभावसे उन प्रेतोंका उद्धार हो गया।
[ पद्मपुराण ]