महाभारतका युद्ध जिस दिन समाप्त हो गया, उस दिन श्रीकृष्णचन्द्र पाण्डवोंके साथ उनके शिविरमें नहीं लौटे। वे सात्यकि तथा पाण्डवोंको लेकर शिविरसे दूर वहाँ चले गये, जहाँ युद्धकालमें द्रौपदी तथा अन्य रानियाँ रहती थीं। उसी रात्रिमें द्रोणाचार्यके पुत्र अश्वत्थामाने पाण्डवोंके शिविरमें अग्नि लगा दी और पाण्डवपक्षके बचे हुए वीरोंको उसने सोयी दशामें मार डाला। उसनेद्रौपदीके पाँचों पुत्रोंको भी मार दिया था।
प्रातः काल श्रीकृष्णचन्द्रके साथ पाण्डव लौटे। शिविरकी दशा देखकर जो दुःख उन्हें हुआ, नारियोंमें जो क्रन्दन व्याप्त हुआ, उसका वर्णन व्यर्थ है। महारानी द्रौपदीकी व्यथाका पार नहीं था। उनके पाँचों पुत्रोंके मस्तकहीन शरीर उनके सामने पड़े थे।
‘मैं हत्यारे अश्वत्थामाको इसका दण्ड दूँगा। उसकाकटा मस्तक देखकर तुम अपना शोक दूर करना ।’ अर्जुनने द्रौपदीको आश्वासन दिया।
श्रीकृष्णचन्द्रके साथ जब गाण्डीवधारी अर्जुन एक रथमें बैठकर चले, तब ऐसा कोई कार्य नहीं था जो उनके द्वारा पूर्ण न हो । अश्वत्थामा ब्रह्मास्त्रका प्रयोग करके भी बच नहीं सका। अर्जुनने उसे पकड़ लिया, किंतु गुरुपुत्रका वध करना उन्हें उचित नहीं जान पड़ा। रस्सियोंसे भली प्रकार बाँधकर रथमें डालकर वे उसे ले आये और द्रौपदीके सम्मुख खड़ा कर दिया। अश्वत्थामाको देखते ही भीमसेनने दाँत पीसकर कहा – ‘इस दुष्टको तत्काल मार देना चाहिये। एक क्षण भी इसे जीवित रहनेका अधिकार नहीं।’ दयामयी देवी द्रौपदीकी दशा ही भिन्न थी ।पाँच-पाँच पुत्रोंकी लाश सम्मुख पड़ी थी और उनका हत्यारा सामने खड़ा था; किंतु उन दयामयीको पुत्र शोक भूल गया। पशुके समान बँधे, लज्जासे मुख नीचा किये अश्वत्थामाको देखकर वे बोलीं- ‘हाय ! हाय ! यह क्या किया आपने ? जिनकी कृपासे आप सबने अस्त्रज्ञान पाया है, वे गुरु द्रोणाचार्य ही यहाँ पुत्ररूपमें खड़े हैं; इन्हें झटपट छोड़ दीजिये, छोड़ दीजिये। पुत्र-शोक कैसा होता है, यह मैं अनुभव कर रही हूँ। इनकी पूजनीया माता कृपी देवीको यह शोक न हो,
वे मेरे समान रुदन न करें। इन्हें अभी छोड़िये!’ द्रौपदीकी दया विजयिनी हुई। अश्वत्थामाके मस्तककी मणि लेकर अर्जुनने उसे छोड़ दिया।
(श्रीमद्भागवत 1।7)
The day the Mahabharata war ended, Shri Krishna Chandra did not return to his camp with the Pandavas. He took Satyaki and the Pandavas and went away from the camp to the place where Draupadi and other queens lived during the war. In the same night Ashwatthama, the son of Dronacharya, set fire to the camp of the Pandavas and killed the remaining heroes of the Pandava side while they were asleep. He also killed all the five sons of Draupadi.
Pandavas returned with Shrikrishna Chandra early in the morning. Seeing the condition of the camp, the sorrow that they felt, the crying that pervaded the women, its description is futile. Queen Draupadi’s agony could not be crossed. The headless bodies of his five sons were lying in front of him.
I will punish the murderer Ashwatthama for this. Dispel your sorrow by seeing his severed head.’ Arjun assured Draupadi.
When Arjuna sitting in a chariot accompanied by Sri Krishnachandra, there was no work that was not completed by him. Ashwatthama could not escape even by using Brahmastra. Arjun caught him, but he did not think it appropriate to kill the Guru’s son. They tied him well with ropes and put him in the chariot and brought him and made him stand in front of Draupadi. On seeing Ashwatthama, Bhimsen gritted his teeth and said – ‘This rascal should be killed immediately. It has no right to live even for a moment. The condition of Dayamayi Devi Draupadi was different. The dead bodies of five sons were lying in front of them and their killer was standing in front of them; But the son of that merciful man forgot his grief. Tied like an animal, seeing Ashwatthama, who lowered his face in shame, she said – ‘ Alas! Hi ! What did you do? By whose grace you all have attained the knowledge of weapons, that Guru Dronacharya is standing here in the form of a son; Leave them immediately, leave them. I am experiencing what it is like to bereave a son. His worshiped mother Kripi Devi should not have this sorrow,
May they not cry like me. Leave them now!’ Draupadi’s mercy became victorious. Arjuna left Ashwatthama after taking the gem from his head.
(Shrimad Bhagwat 1.7)