मुक्तिका मूल्य

monk walking rose petals

महाराज बिम्बसारको निद्रा नहीं आ रही थी। तीर्थंकर महावीरने स्पष्ट कह दिया था कि ‘उनको नरक जाना पड़ेगा।’ नरक-महाराज नरककी कल्पनासे ही काँप उठे थे। उन्होंने निश्चय किया- ‘कुछ भी हो, मैं नरकसे त्राण पाऊँगा। मेरे पास कोष है, साम्राज्य है; मोक्ष मेरे लिये अलभ्य कैसे रहेगा।’

दूसरे दिन सूर्यकी प्रथम किरणके साथ महाराज पुलालाचलपर तीर्थंकरके चरणोंमें उपस्थित हो गये। उन्होंने प्रार्थना की- ‘प्रभो! मेरा समस्त कोष और सम्पूर्ण साम्राज्य श्रीचरणोंमें समर्पित है। नरकसे उद्धार करके मुझे मुक्त करें।’

तीर्थंकरके अधरोंपर स्मित- रेखा आयी। उन्होंने देख लिया कि ‘अहम्’ ने ही यह रूप धारण किया है। ‘मैं दान कर सकता हूँ, दान करूँगा।’ यह गर्व है और गर्व जहाँ है, वहाँ मोक्ष कैसा । महाराजको आदेश हुआ— ‘अपने राज्यके पुण्य नामक श्रावकसेएक सामायिकका फल प्राप्त करो। तुम्हारे उद्धारका यही उपाय है।’

महाराज उस श्रावकके समीप पहुँचे। उनका यथोचित सत्कार हुआ। बड़ी कातरतासे उन्होंने कहा—’ श्रावक श्रेष्ठ ! मैं याचना करने आया हूँ। मूल्य जो माँगोगे, दूँगा; किंतु मुझे निराश मत करना।’

महाराजकी माँग सुनकर श्रावकने कहा- ‘महाराज ! सामायिक तो समताका नाम है। राग-द्वेषकी विषमताको चित्तसे दूर कर देना ही सामायिक है। यह कोई किसीको दे कैसे सकता है। आप उसे खरीदना चाहते हैं; किंतु सम्राट् होनेके अहंकारको छोड़े बिना उसे आप उपलब्ध कर कैसे सकते हैं।’

महाराज सामायिक खरीद नहीं सके; किंतु उसकी उपलब्धिका रहस्य वे पा गये। समत्वमें स्थित होनेपर उनको कोई मुक्त करे-यह अपेक्षा ही कहाँ रह गयी।

– सु0 सिं0

Maharaj Bimbsar could not sleep. Tirthankar Mahavir had clearly said that ‘he will have to go to hell’. Narak-Maharaj shuddered at the very thought of hell. He decided- ‘Whatever happens, I will get relief from hell. I have wealth, I have empire; How will salvation remain unattainable for me?
On the second day, with the first rays of the sun, Maharaj appeared at the feet of Tirthankara at Pulalachal. He prayed-‘ Lord! My entire treasury and entire empire is dedicated at the feet of Sri. Deliver me from hell and free me.’
A smile appeared on the lips of the Tirthankar. He saw that it was the ‘ego’ that had assumed this form. ‘I can donate, I will donate.’ This is pride and where there is pride, how can there be salvation. The king was ordered – ‘Get the fruit of a time from a Shravaka named Punya of your state. This is the way of your salvation.’
Maharaj reached near that Shravak. He was well received. He said with great hesitation – ‘ Shravak Shrestha! I have come to beg. Will give whatever price you ask for; But don’t disappoint me.’
After listening to Maharaj’s demand, Shravak said – ‘ Maharaj! Sharing is the name of equality. It is time to remove the disparity of attachment-hatred from the mind. How can anyone give this to anyone? you want to buy it; But how can you achieve it without giving up the ego of being an emperor.’
Maharaj could not buy the shares; But they found the secret of its achievement. Where is the expectation that someone should free them when they are situated in equanimity.
– Su 0 Sin 0

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