एक महात्मा राजगुरु थे। वे प्रायः राजमहलमें राजाको उपदेश करने जाया करते। एक दिन वे राजमहलमें गये। वहीं भोजन किया। दोपहरके समय अकेले लेटे हुए थे। पास ही राजाका एक मूल्यवान् मोतियोंका हार खूँटीपर टँगा था। हारकी तरफ महात्माकी नजर गयी और मनमें लोभ आ गया। महात्माजीने हार उतारकर झोलीमें डाल लिया। वे समयपर अपनी कुटियापर लौट आये। इधर हार न मिलनेपर खोज शुरू हुई। नौकरोंसे पूछ-ताछ होने लगी। महात्माजीपर तो संदेहका कोई कारण ही नहीं था। पर नौकरोंसे हारका पता भी कैसे लगता! वे बेचारे तो बिलकुल अनजान थे। पूरे चौबीस घंटे बीत गये। तब महात्माजीका मनोविकार दूर हुआ। उन्हें अपने कृत्यपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे तुरंत राजदरबारमें पहुँचे और राजाके सामने हार रखकर बोले- ‘कल इस हारको मैं चुराकर ले गया था, मेरी बुद्धि मारी गयी, मनमें लोभ आ गया। आज जब अपनी भूल मालूम हुई तो दौड़ा आया हूँ। मुझे सबसे अधिक दुःख इस बातका है कि चोर तो मैं था और यहाँ बेचारे निर्दोष नौकरोंपर बुरी तरह बीती होगी।’ राजाने हँसकर कहा- ‘महाराजजी ! आप हार ले जायँ यह तो असम्भव बात है। मालूम होता है जिसने हार लिया, वह आपके पास पहुँचा होगा और आप सहज ही दयालु हैं, अतः उसे बचानेके लिये आप इस अपराधको अपने ऊपर ले रहे हैं।’
महात्माजीने बहुत समझाकर कहा- ‘राजन्! मैं झूठ नहीं बोलता। सचमुच हार मैं ही ले गया था। पर मेरी निःस्पृह-निर्लोभ वृत्तिमें यह पाप कैसे आया, मैं कुछ निर्णय नहीं कर सका। आज सबेरेसे मुझे दस्त हो रहे हैं। अभी पाँचवीं बार होकर आया हूँ। मेरा ऐसा अनुमान है कि कल मैंने तुम्हारे यहाँ भोजन किया था, उससे मेरे निर्मल मनपर बुरा असर पड़ा है और आज जब दस्त होनेसे उस अन्नका अधिकांश भाग मेरे अंदरसे निकल गया है, तब मेरा मनोविकार मिटा है। तुम पता लगाकर बताओ – वह अन्न कैसा था और कहाँसे आया था ?’
राजाने पता लगाया। भण्डारीने बतलाया कि ‘एक चोरने बढ़िया चावलोंकी चोरी की थी। चोरको अदालतसे सजा हो गयी; परंतु फरियादी अपना माल लेनेके लिये हाजिर नहीं हुआ। इसलिये वह माल राजमें जप्त हो गया और वहाँसे राजमहलमें लाया गया। चावल बहुत ही बढ़िया थे। अतएव महात्माजीके लिये कल उन्हीं चावलोंकी खीर बनायी गयी थी।’
महात्माजीने कहा- ‘इसीलिये शास्त्रने राज्यान्त्रका निषेध किया है। जैसे शारीरिक रोगोंके सूक्ष्म परमाणु फैलकर रोगका विस्तार करते हैं, इसी प्रकार सूक्ष्म मानसिक परमाणु भी अपना प्रभाव फैलाते हैं। चोरीके परमाणु चावलोंमें थे। उसीसे मेरा मन चञ्चल हुआ और भगवान्की कृपासे अतिसार हो जानेके कारण आज जब उनका अधिकांश भाग मलद्वारसे निकल गया, तब मेरी बुद्धि शुद्ध हुई। आहारशुद्धिकी इसीलिये आवश्यकता है!’
एक महात्मा राजगुरु थे। वे प्रायः राजमहलमें राजाको उपदेश करने जाया करते। एक दिन वे राजमहलमें गये। वहीं भोजन किया। दोपहरके समय अकेले लेटे हुए थे। पास ही राजाका एक मूल्यवान् मोतियोंका हार खूँटीपर टँगा था। हारकी तरफ महात्माकी नजर गयी और मनमें लोभ आ गया। महात्माजीने हार उतारकर झोलीमें डाल लिया। वे समयपर अपनी कुटियापर लौट आये। इधर हार न मिलनेपर खोज शुरू हुई। नौकरोंसे पूछ-ताछ होने लगी। महात्माजीपर तो संदेहका कोई कारण ही नहीं था। पर नौकरोंसे हारका पता भी कैसे लगता! वे बेचारे तो बिलकुल अनजान थे। पूरे चौबीस घंटे बीत गये। तब महात्माजीका मनोविकार दूर हुआ। उन्हें अपने कृत्यपर बड़ा पश्चात्ताप हुआ। वे तुरंत राजदरबारमें पहुँचे और राजाके सामने हार रखकर बोले- ‘कल इस हारको मैं चुराकर ले गया था, मेरी बुद्धि मारी गयी, मनमें लोभ आ गया। आज जब अपनी भूल मालूम हुई तो दौड़ा आया हूँ। मुझे सबसे अधिक दुःख इस बातका है कि चोर तो मैं था और यहाँ बेचारे निर्दोष नौकरोंपर बुरी तरह बीती होगी।’ राजाने हँसकर कहा- ‘महाराजजी ! आप हार ले जायँ यह तो असम्भव बात है। मालूम होता है जिसने हार लिया, वह आपके पास पहुँचा होगा और आप सहज ही दयालु हैं, अतः उसे बचानेके लिये आप इस अपराधको अपने ऊपर ले रहे हैं।’
महात्माजीने बहुत समझाकर कहा- ‘राजन्! मैं झूठ नहीं बोलता। सचमुच हार मैं ही ले गया था। पर मेरी निःस्पृह-निर्लोभ वृत्तिमें यह पाप कैसे आया, मैं कुछ निर्णय नहीं कर सका। आज सबेरेसे मुझे दस्त हो रहे हैं। अभी पाँचवीं बार होकर आया हूँ। मेरा ऐसा अनुमान है कि कल मैंने तुम्हारे यहाँ भोजन किया था, उससे मेरे निर्मल मनपर बुरा असर पड़ा है और आज जब दस्त होनेसे उस अन्नका अधिकांश भाग मेरे अंदरसे निकल गया है, तब मेरा मनोविकार मिटा है। तुम पता लगाकर बताओ – वह अन्न कैसा था और कहाँसे आया था ?’
राजाने पता लगाया। भण्डारीने बतलाया कि ‘एक चोरने बढ़िया चावलोंकी चोरी की थी। चोरको अदालतसे सजा हो गयी; परंतु फरियादी अपना माल लेनेके लिये हाजिर नहीं हुआ। इसलिये वह माल राजमें जप्त हो गया और वहाँसे राजमहलमें लाया गया। चावल बहुत ही बढ़िया थे। अतएव महात्माजीके लिये कल उन्हीं चावलोंकी खीर बनायी गयी थी।’
महात्माजीने कहा- ‘इसीलिये शास्त्रने राज्यान्त्रका निषेध किया है। जैसे शारीरिक रोगोंके सूक्ष्म परमाणु फैलकर रोगका विस्तार करते हैं, इसी प्रकार सूक्ष्म मानसिक परमाणु भी अपना प्रभाव फैलाते हैं। चोरीके परमाणु चावलोंमें थे। उसीसे मेरा मन चञ्चल हुआ और भगवान्की कृपासे अतिसार हो जानेके कारण आज जब उनका अधिकांश भाग मलद्वारसे निकल गया, तब मेरी बुद्धि शुद्ध हुई। आहारशुद्धिकी इसीलिये आवश्यकता है!’