भगवान् श्रीरामके विषयमें प्रसिद्ध है कि ये वनयात्राके समय रत्तीभर भी उद्विग्न नहीं हुए थे-
तथा न मम्ले वनवासदुःखतः।’
बल्कि उल्टे उनका हर्ष और उत्साह बढ़ गया था।
‘नव गयंद रघुवीर मनु राजु अलान समान।
छूट जानि वन गवनु सुनि उर अनंदु अधिकान ।।’
उस समय उन्होंने कुबेरकी भाँति ब्राह्मणोंको धन लुटाया था। अपने प्रत्येक सेवकको चौदह वर्षोंतक (अपने पूरे वनवास कालभर ) जीविका चलाने योग्य धन दिया था। इसके बाद भी जब उनके खजाने में धन रह गया, तब अपने कोषाध्यक्षको बुलवाकर सारा धन बालक बूढ़े, ब्राह्मणों तथा दीन-दुखियोंको बँटवा दिया।
उन्हीं दिनों अयोध्या में एक त्रिजट नामका गर्गगोत्रीय ब्राह्मण रहता था। उसके पास जीविकाका कोई साधन न था। उसका शरीर अत्यन्त दुबला और पीला हो गया था। उसकी स्त्रीने उससे कहा-‘नाथ! श्रीरामचन्द्रजीसे आप जाकर मिलिये; वे बड़े धर्मज्ञ हैं, वे अवश्य हमलोगोंके लिये कोई प्रबन्ध कर देंगे, पत्नीकी बात सुनकर त्रिजट श्रीरामभद्रके पास आया। वे उस समयवन जानेको तैयार थे और उनका यह ‘वन-यात्रा -दान महोत्सव’ जारी था। त्रिजटको यह सब कुछ भी न था। उसने उनके पास पहुँचकर कहा मालूम ‘राजकुमार। मैं निर्धन हूँ, मेरी बहुत-सी संतानें हैं। आप मेरी दशाका ध्यान करके मुझपर कृपा-दृष्टि फेरें ।’
उसकी बात सुनकर तथा उसका दौर्बल्य देखकर प्रभुको इस समय भी एक परिहासकी बात सूझ गयी। उन्होंने त्रिजटसे कहा- ‘विप्रवर! आप अपना डंडा जितनी दूरतक फेंक सकें, फेंकिये। जहाँतक आपका डंडा पहुँचेगा, वहाँतककी गायें आप अपनी समझ लीजिये ।’
अब त्रिजटने बड़ी तेजीके साथ धोतीके पल्लेको समेटकर ठीक किया। उसने अपनी सारी शक्ति लगाकर डंडेको बड़े जोरसे घुमाकर फेंका। डंडा सरयूके उस पार जाकर हजारों गौओंके बीच गिरा। भगवान्ने त्रिजटको गले लगा लिया और वहाँतककी गायें उसके आश्रमपर भिजवा दीं। उन्होंने उससे क्षमा माँगी और कहा ‘ब्राह्मणदेवता, बुरा न मानियेगा; मैंने वह बात विनोदमें ही कह दी थी।’ ब्राह्मण प्रसन्न था ।
– जा0 श0
(वाल्मीकि0 रामा0 अयोध्या0 32)
It is famous about Lord Shriram that he did not get disturbed even for a night during the forest journey.
And neither Mamle Vanvasadukhatah.’
On the contrary, his joy and enthusiasm had increased.
‘Nav Gayand Raghuveer Manu Raju Alan Saman.
Mhoot Jani Van Gavanu Suni Ur Anandu Adhikan.’
At that time, like Kubera, he looted the wealth of Brahmins. He had given enough money to each of his servants to live on for fourteen years (throughout his entire exile period). Even after this, when the money was left in his treasury, he called his treasurer and got all the money distributed among children, old people, Brahmins and the poor.
In those days, a Gargagotriya Brahmin named Trijat lived in Ayodhya. He had no means of livelihood. His body had become very thin and pale. His wife said to him – ‘ Nath! You go and meet Shri Ramchandraji; He is very religious, he will definitely make some arrangement for us, Trijat came to Shrirambhadra after listening to his wife. He was ready to go to the forest at that time and his ‘forest-travel-donation festival’ was going on. All this was nothing to Trijat. He reached to him and said, ‘Know the prince. I am poor, I have many children. Pay attention to my condition and turn your kind eyes on me.’
After listening to him and seeing his weakness, even at this time the Lord thought of a joke. He said to Trijat- ‘ Vipravar! Throw your stick as far as you can. As far as your stick reaches, take the cows as your own.’
Now Trijat hastened to gather the hems of the dhoti and fix it. With all his might, he hurled the stick with great force. The stick went across Saryu and fell among thousands of cows. God embraced Trijat and sent the cows till there to his hermitage. He apologized to him and said ‘Brahmin Devta, don’t feel bad; I had said that in jest.’ Brahmin was happy.
– Ja0 Sh0
(Valmiki Rama Ayodhya 32)