पुरुषार्थ करनेसे संकटसे मुक्ति मिलती है
वाराणसीमें भगवान् त्रिलोचनके मणिमाणिक्यनिर्मित मन्दिरमें कबूतरोंका एक जोड़ा निवास करता था। वे दोनों कबूतर प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न और सायंकालमें मन्दिरकी परिक्रमा करते हुए सब ओर उड़ते और अपने पंखोंकी हवासे मन्दिरमें लगी हुई धूलको दूर किया करते थे। भक्तलोग जो सदा त्रिलोचन और त्रिविष्टप आदि नामोंका उच्चारण करते, वह सब उनके कानोंमें पड़ा करता था। उन दोनों पक्षियोंके नेत्रोंमें मंगल आरतीकी दिव्य ज्योति पड़कर उन्हें भक्तजनोंकी चेष्टाएँ दिखाती थी। कभी-कभी तो वे युगल पक्षी वहाँका कौतुक देखते हुए चारा चुगनेकी भी चिन्ता छोड़ देते और स्थिर चित्तसे वहीं ठहरकर दर्शन करते थे, वहाँसे उड़कर किसी अभीष्ट स्थानको नहीं जा पाते थे। भक्तजनोंसे भरे हुए उस मन्दिरके चारों ओर बिखरे चावलके दानोंको चुगते -चुगते वे परिक्रमा किया करते थे। भगवान् त्रिलोचनके दक्षिण भागमें चतुःस्रोतस्विनी (सरस्वती, यमुना तथा नर्मदाके जलप्रवाहसे संयुक्त गंगाजी) – का सुन्दर जल था। तृषासे आतुर होनेपर वे उसीका जल पीते और कभी-कभी उसमें स्नान भी कर लेते थे। इसप्रकार त्रिलोचनके समीप उत्तम चेष्टाके साथ विचरते हुए उन पक्षियोंके बहुत वर्ष बीत गये।
तदनन्तर देवमन्दिरके स्कन्धभागमें गवाक्षके भीतर सुखपूर्वक बैठे हुए उन दोनों पक्षियोंको एक बाजने बड़ी क्रूर दृष्टिसे देखा। एक दिन वह बाज फिर आया। तब डरी हुई कबूतरीने कहा- ‘प्रियतम! यह स्थान दुष्टकी दृष्टिसे दूषित हो गया है। अतः इसको त्याग देना चाहिये।’ यह सुनकर कबूतरने अवहेलनापूर्वक कहा ‘प्रिये! वह मेरा क्या कर लेगा।’
कबूतरी बोली- ‘जो उपद्रव आनेपर भी अपने स्थानको छोड़कर अन्यत्र नहीं चला जाता, वह पंगु नदीके किनारेके वृक्षकी भाँति नाशको प्राप्त होता है। नाथ! जबतक यह कालरूपी बाज हमलोगोंसे बहुत दूर है, तभीतक तुम स्थान त्यागकर दूर चले जाओ; क्योंकि तुमको जीवित रहनेपर इस भूतलमें कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। तुम्हें पुनः मित्र, धन और गृह प्राप्त हो जायगा । यदि पुरुषने अपने आपकी रक्षा कर ली, तो उसे इस लोकमें सब कुछ मिल जाता है। यह आत्मा ही प्रिय बन्धु है और यह आत्मा ही महान् धन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका उपार्जन करनेवाला भी यह आत्मा ही है। जबतक आत्मामें क्षेम है, तभीतक त्रिलोकीमें क्षेम है, किंतु उत्तम बुद्धिसे युक्त पुरुष उस क्षेमको भी यशके साथ प्राप्त करना चाहते हैं। जिस क्षेममें सुयशका अभाव है, उससे तो मृत्यु ही अच्छी है। पुरुष जब नीतिके मार्गपर चलता है तभी उसे यशकी प्राप्ति होती है। अतः नाथ ! इस नीतिके मार्गका श्रवण करके इस स्थानसे अन्यत्र हमें चले जाना चाहिये ।’
उत्तम बुद्धिवाली अपनी स्त्री कपोतीके ऐसा कहनेपर भी कबूतर उस स्थानसे नहीं निकला। तब प्रातः काल आकर उस बलवान् बाजने कपोतके निकलनेके मार्गको रोक लिया और उससे कहा-‘कपोत ! तुझे धिक्कार है, तुझमें तो जरा भी पौरुष नहीं है। अरे! दुर्बुद्धि ! या तो युद्ध कर या मेरी बात मानकर यहाँसे निकल भाग । यदि भूखसे क्षीण होकर तू यहाँ प्राण देगा तो तुझे पीछे निश्चय ही नरकमें जाना पड़ेगा। उत्तम बुद्धिवाले मनुष्य पुरुषार्थका आश्रय लेकर संकटसे मुक्त होनेके लिये प्रयत्न करते हैं।’ इस प्रकार बाजके फटकारने और पत्नीके उत्साह दिलानेपर कबूतर अपने दुर्गके द्वारपर आकर उस बाजसे युद्ध करने लगा। बेचारा भूख प्याससे पीड़ित था, अतः बलवान् बाजने उसे पंजोंसे पकड़ लिया और कबूतरीको भी चोंचमें दबा लिया। इस | प्रकार उन दोनोंको पकड़कर बाज शीघ्र ही आकाशमें उड़ गया। तब कबूतरीने कहा—’नाथ ! यह स्त्री है, ऐसा समझकर तुमने मेरी बातोंकी उपेक्षा की। इसीसे आज इस अवस्थाको प्राप्त हुए हो। क्या करूँ, मैं अबला हूँ, परंतु अब भी मैं तुम्हारे हितकी बात कहती हूँ। तुम बिना विचारे ही उसका पालन करो। बुद्धिमान् पुरुषोंको विपत्तिमें भी कभी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिये; क्योंकि उद्यमी पुरुष दुर्बल हों तो भी सफलताके भागी होते हैं। अत: मनीषी पुरुष विपत्तिकालमें भी उद्यमीकी प्रशंसा करते हैं। जबतक मैं इसकी चोंचमें पड़ी हूँ और जबतक यह पृथ्वीपर पहुँचकर स्वस्थ नहीं हो जाता है, तबतक ही तुम अपनेको इसके चंगुलसे छुड़ानेके लिये इस शत्रुके पंजेमें चोंच मारो।’ पत्नीकी यह बात सुनकर कबूतरने वैसा ही किया। फिर तो पैरमें पीड़ा होनेसे बाज बहुत देरतक चीं-चीं करता रहा। इतनेमें ही कपोती उसके मुखसे छूटकर उड़ गयी। इधर पाँवकी अँगुलियोंके शिथिल होनेसे कबूतर भी छूटकर गिर पड़ा और वे दोनों सकुशल सुरक्षित स्थानपर पहुँच गये। [ स्कन्दपुराण ]
पुरुषार्थ करनेसे संकटसे मुक्ति मिलती है
वाराणसीमें भगवान् त्रिलोचनके मणिमाणिक्यनिर्मित मन्दिरमें कबूतरोंका एक जोड़ा निवास करता था। वे दोनों कबूतर प्रतिदिन प्रातः, मध्याह्न और सायंकालमें मन्दिरकी परिक्रमा करते हुए सब ओर उड़ते और अपने पंखोंकी हवासे मन्दिरमें लगी हुई धूलको दूर किया करते थे। भक्तलोग जो सदा त्रिलोचन और त्रिविष्टप आदि नामोंका उच्चारण करते, वह सब उनके कानोंमें पड़ा करता था। उन दोनों पक्षियोंके नेत्रोंमें मंगल आरतीकी दिव्य ज्योति पड़कर उन्हें भक्तजनोंकी चेष्टाएँ दिखाती थी। कभी-कभी तो वे युगल पक्षी वहाँका कौतुक देखते हुए चारा चुगनेकी भी चिन्ता छोड़ देते और स्थिर चित्तसे वहीं ठहरकर दर्शन करते थे, वहाँसे उड़कर किसी अभीष्ट स्थानको नहीं जा पाते थे। भक्तजनोंसे भरे हुए उस मन्दिरके चारों ओर बिखरे चावलके दानोंको चुगते -चुगते वे परिक्रमा किया करते थे। भगवान् त्रिलोचनके दक्षिण भागमें चतुःस्रोतस्विनी (सरस्वती, यमुना तथा नर्मदाके जलप्रवाहसे संयुक्त गंगाजी) – का सुन्दर जल था। तृषासे आतुर होनेपर वे उसीका जल पीते और कभी-कभी उसमें स्नान भी कर लेते थे। इसप्रकार त्रिलोचनके समीप उत्तम चेष्टाके साथ विचरते हुए उन पक्षियोंके बहुत वर्ष बीत गये।
तदनन्तर देवमन्दिरके स्कन्धभागमें गवाक्षके भीतर सुखपूर्वक बैठे हुए उन दोनों पक्षियोंको एक बाजने बड़ी क्रूर दृष्टिसे देखा। एक दिन वह बाज फिर आया। तब डरी हुई कबूतरीने कहा- ‘प्रियतम! यह स्थान दुष्टकी दृष्टिसे दूषित हो गया है। अतः इसको त्याग देना चाहिये।’ यह सुनकर कबूतरने अवहेलनापूर्वक कहा ‘प्रिये! वह मेरा क्या कर लेगा।’
कबूतरी बोली- ‘जो उपद्रव आनेपर भी अपने स्थानको छोड़कर अन्यत्र नहीं चला जाता, वह पंगु नदीके किनारेके वृक्षकी भाँति नाशको प्राप्त होता है। नाथ! जबतक यह कालरूपी बाज हमलोगोंसे बहुत दूर है, तभीतक तुम स्थान त्यागकर दूर चले जाओ; क्योंकि तुमको जीवित रहनेपर इस भूतलमें कुछ भी दुर्लभ नहीं होगा। तुम्हें पुनः मित्र, धन और गृह प्राप्त हो जायगा । यदि पुरुषने अपने आपकी रक्षा कर ली, तो उसे इस लोकमें सब कुछ मिल जाता है। यह आत्मा ही प्रिय बन्धु है और यह आत्मा ही महान् धन है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षका उपार्जन करनेवाला भी यह आत्मा ही है। जबतक आत्मामें क्षेम है, तभीतक त्रिलोकीमें क्षेम है, किंतु उत्तम बुद्धिसे युक्त पुरुष उस क्षेमको भी यशके साथ प्राप्त करना चाहते हैं। जिस क्षेममें सुयशका अभाव है, उससे तो मृत्यु ही अच्छी है। पुरुष जब नीतिके मार्गपर चलता है तभी उसे यशकी प्राप्ति होती है। अतः नाथ ! इस नीतिके मार्गका श्रवण करके इस स्थानसे अन्यत्र हमें चले जाना चाहिये ।’
उत्तम बुद्धिवाली अपनी स्त्री कपोतीके ऐसा कहनेपर भी कबूतर उस स्थानसे नहीं निकला। तब प्रातः काल आकर उस बलवान् बाजने कपोतके निकलनेके मार्गको रोक लिया और उससे कहा-‘कपोत ! तुझे धिक्कार है, तुझमें तो जरा भी पौरुष नहीं है। अरे! दुर्बुद्धि ! या तो युद्ध कर या मेरी बात मानकर यहाँसे निकल भाग । यदि भूखसे क्षीण होकर तू यहाँ प्राण देगा तो तुझे पीछे निश्चय ही नरकमें जाना पड़ेगा। उत्तम बुद्धिवाले मनुष्य पुरुषार्थका आश्रय लेकर संकटसे मुक्त होनेके लिये प्रयत्न करते हैं।’ इस प्रकार बाजके फटकारने और पत्नीके उत्साह दिलानेपर कबूतर अपने दुर्गके द्वारपर आकर उस बाजसे युद्ध करने लगा। बेचारा भूख प्याससे पीड़ित था, अतः बलवान् बाजने उसे पंजोंसे पकड़ लिया और कबूतरीको भी चोंचमें दबा लिया। इस | प्रकार उन दोनोंको पकड़कर बाज शीघ्र ही आकाशमें उड़ गया। तब कबूतरीने कहा—’नाथ ! यह स्त्री है, ऐसा समझकर तुमने मेरी बातोंकी उपेक्षा की। इसीसे आज इस अवस्थाको प्राप्त हुए हो। क्या करूँ, मैं अबला हूँ, परंतु अब भी मैं तुम्हारे हितकी बात कहती हूँ। तुम बिना विचारे ही उसका पालन करो। बुद्धिमान् पुरुषोंको विपत्तिमें भी कभी उद्योग नहीं छोड़ना चाहिये; क्योंकि उद्यमी पुरुष दुर्बल हों तो भी सफलताके भागी होते हैं। अत: मनीषी पुरुष विपत्तिकालमें भी उद्यमीकी प्रशंसा करते हैं। जबतक मैं इसकी चोंचमें पड़ी हूँ और जबतक यह पृथ्वीपर पहुँचकर स्वस्थ नहीं हो जाता है, तबतक ही तुम अपनेको इसके चंगुलसे छुड़ानेके लिये इस शत्रुके पंजेमें चोंच मारो।’ पत्नीकी यह बात सुनकर कबूतरने वैसा ही किया। फिर तो पैरमें पीड़ा होनेसे बाज बहुत देरतक चीं-चीं करता रहा। इतनेमें ही कपोती उसके मुखसे छूटकर उड़ गयी। इधर पाँवकी अँगुलियोंके शिथिल होनेसे कबूतर भी छूटकर गिर पड़ा और वे दोनों सकुशल सुरक्षित स्थानपर पहुँच गये। [ स्कन्दपुराण ]