उस गाँवमें कुळशेखर एक विद्वान् और ईश्वरभक्त व्यक्ति थे। रोज उनके घरके पार्श्ववर्ती मन्दिरमें कथा वाचनका क्रम चलता था। कथा सुनानेमें कुळशेखर बड़े प्रख्यात थे। गाँवके अधिकांश लोग उनकी कथा सुनने नित्य एकत्र होते थे।
नंबियार उसी गाँवके एक सज्जन थे। विद्वत्तामें कुळशेखरकी बराबरी तो नहीं कर सकते थे, फिर श्री विज्ञलोगोंगे इनकी भी गिनती थी। आज ये भी कुशेखर के समान ही एक संत माने जाते हैं। मानव सहज दोष कभी-कभी संतोंकी भी परीक्षा ले लेते हैं।
एक दिन नथियारके मनमें ईर्ष्याका अनुभव होने लगा के मनमें सोचने लगे कि ‘लोग कथा सुनने कुशेखरके हो पास क्यों जाते हैं? मेरे पास क्यों नहीं आते? मैं कुछशेखरसे किस जातमें कम हूँ।’ देखते-देखते यह ईर्ष्या द्वेषका रूप धारण करने लगी।
एक दिन संध्याको वियार बाहरसे के गाँदै घर भूख लगी थी। उनकी पत्नी कहीं बाहर गयी थी बैठे-बैठे कुळशेखरके ही बारेगें सोचते रहे। नैवियारके मनमें शङ्का उत्पन्न हुई कि उनकी पत्नीभी कहीं कुळशेखरकी कथा सुनने तो नहीं गयी। पर्याप्त प्रतीक्षा की। फिर भी पत्नी नहीं आयी। कुछ और समय पत्नीको बाट देखते बैठे। तब भी पत्नी नहीं आयी। लगभग घंटाभर बीत गया। नंबियारकी भूख जोर पकड़ रही थी। अबतक भी पत्नी घर न आयी। अब उनसे सहा नहीं गया। उन्हें विश्वास हो चला कि हो न हो उनकी पत्नी निश्चय कुळशेखरकी कथा सुनने ही गयी है।
नंवियार मन-ही-मन झल्ला उठे। घरसे बाहर निकल पड़े। क्रोधमें घरका किंवाड़तक बंद करना भूल गये। लंबे-लंबे डग रखते हुए सीधे उस मन्दिरके सामने जा पहुँचे।
रामायणकी कथा चल रही थी। कथा सुननेमें सब लोग लीन थे। नंबियारको द्वारपर खड़े-खड़े दो-तीन मिनट बीत गये। किसीका ध्यान उनकी ओर नहीं गया। नंवियारने जब देखा उनकी पत्नी भी वहाँ बैठी कथा सुन रही है, तब तो वे अपना आपा खो बैठे, उनका विवेक जाता रहा। दो कदम बढ़कर कठोर स्वरसे चिल्ला उठे- ‘तुम मूर्ख हो, तुम कथा सुनाना क्या जानते हो; ये सारे लोग तुमसे बढ़कर मूर्ख हैंजो तुम्हारी कथा सुनने आते हैं।’ सब-के – सब चकित रह गये। कथा बंद हो गयी। लोग नंबियारकी ओर ताकने लगे। स्वयं कुळशेखर भी मूकवत् बने रहे। किसोने कुछ न कहा। नंबियारकी पत्नी सभामेंसे उठकर घरकी ओर चल दीं। कुछ देरतक नंबियार इसी प्रकार सम्बद्ध असम्बद्ध प्रलाप करते रहे और घर लौट पड़े। कथा जो बीचमें बंद हुई सो फिर नहीं चली। सब उठ उठकर अपने घर चल दिये। कुळशेखर भी विषण्णवदन हो पोथी समेटकर उठ चले।
घर पहुँचकर नंबियार अपने बचे क्रोधको अपनी पत्नीपर उतारकर बिस्तरपर जा लेट गये। उनको भूख मर गयी थी। उनको खिलानेकी पत्नीकी सारी चेष्टा निष्फल रही। पत्नी भी भूखी सो गयी।
नंवियारके मनका क्रोध कदाचित् शान्त भी हो गया हो। परंतु उन्हें नींद नहीं आयी। विस्तरपर करवट बदलते रहे। बाहर कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी, भीतर नंबियार पसीना पोंछ रहे थे।
लंबी देरके बाद नंबियारकी भूख जगी। गिलास भर पानी पी वे फिर लेटे रह-रहकर वे ही सारी संध्याकी बातें याद आने लगीं। भरी सभामें वे कुळशेखरका अपमान कर आये थे। कुळशेखरने उनका कुछ भी बिगाड़ा नहीं था। कुळशेखर विद्वान् हैं। उनका जीवन भी पवित्र है। बिना कारण हो नंबियारने उनका अपमान किया।
नंवियारका सारा क्रोध पश्चात्तापमें बदल गया। जितना जितना वे सोचते गये, उतना उतना उनका पश्चात्ताप बढ़ता गया। बिस्तरपर वे तिलमिलाने लगे। लेटे रहना उन्हें असम्भव हो गया।
अन्तमें उन्होंने निर्णय कर लिया कि कुळशेखरसे क्षमा-याचना किये बिना उनके इस अपराधका निस्तार नहीं। परंतु अभी आधी रात है। कुळशेखर सो रहे होंगे। इस समय उन्हें जगाया कैसे जाय? सबेरेतक वेदना सहनी ही पड़ेगी।
छतके छेदमेंसे नंवियारने देखा शुक्रका तारा पूरबमें चमक उठा है। नंवियार विस्तर छोड़कर उठे। अपराधके बोझसे दबा हुआ मन और पश्चात्तापके आवेगसे संतप्त हृदय लेकर कुळशेखरके घर जानेके लिये घरसे निकले। एकमात्र उनको जल्दी थी कि कब मैंकुपोखरके चरणोंमें अपना मस्तक झुका है और मनका भार उतारु ।
टिमटिमाती हुई बस उनके हाथमें थी मानो उनके क्षीणहृदयका प्रतिबिम्ब ही हो ज्यों ही वे खोलकर बाहर आये तो दरवाजेके पास नीचे कोने में कोई वस्तु दिखी अंधेरेमें बिवार पहचान नहीं सके। 1 बत्ती ऊँची करके देखा तो कोई व्यक्ति कंबल आहे बैठे दिखा। वह व्यक्ति ऊँघ रहा था। जान पड़ता था लंबे समय से बैठा था।
‘कौन हो भाई ?’ नंबियारने पूछा। नंबियारका शब्द निकलना था कि झटसे उस मनुष्यने उठकर नंवियारके चरणोंमें अपना मस्तक रख दिया। अज्ञात व्यक्तिको प्रणाम करते देख नंबियारको संकोच हो आया। एक कदम पीछे हटकर झुके हुए व्यक्तिको उठाया। सान्त्वनापूर्ण स्वरमें फिर प्रश्न किया-‘कौन हो भाई, क्या बात है?”
अज्ञात व्यक्तिने सिर उठाया। अँधेरा था। नंवियार पहचान नहीं सके। परंतु उस व्यक्तिके स्वरसे पहचान गये कि ये तो कुळशेखर हैं।
कुछशेखर बोलते गये, परंतु नंवियारके कानोंमें एक भी शब्द प्रवेश न कर पाया। अन्तिम शब्द इतने ही सुन पड़े- आपने मुझे मेरा दोष दिखा दिया, इसका मुझे संतोष ही है। परंतु मैं यह समझ नहीं सका कि मुझसे क्या अपराध हो गया। अनजानमें मुझसे कुछ न-कुछ अपराध अवश्य हो गया है, तभी आप मुझपर असंतुष्ट हैं। मुझ पापीपर आप दयाभाव रखें और मुझे क्षमा करें।’
इतना कहकर कुछ क्षण मौन रहे और आँखें पोंछकर फिर कहने लगे-‘मुझे पता नहीं अब आपसे क्षमायाचना करने आकर मैंने आपके किस काममें बाधा डाली अब आपको अधिक रोकूंगा नहीं, परंतु आप जाते-जाते मुझे क्षमा कर जायें।”
विचारका मन पहले से ही पश्चात्तापसे संतप्त था। तिसपर कुळशेखर स्वयं आकर अपने किसी अज्ञात अपराधके लिये क्षमायाचना कर रहे हैं!
नबियारकी जिह्वा मानो जकड़ गयो, गला मूख गया, उनके मुँहसे एक भी शब्द न निकल सका। उनका मनोभार कम क्या होता, अब तो दूभर हो गया। हृदय उमड़ पड़ा। आँसू बनकर बाहर आया और धूलमें मिल गया।
उस गाँवमें कुळशेखर एक विद्वान् और ईश्वरभक्त व्यक्ति थे। रोज उनके घरके पार्श्ववर्ती मन्दिरमें कथा वाचनका क्रम चलता था। कथा सुनानेमें कुळशेखर बड़े प्रख्यात थे। गाँवके अधिकांश लोग उनकी कथा सुनने नित्य एकत्र होते थे।
नंबियार उसी गाँवके एक सज्जन थे। विद्वत्तामें कुळशेखरकी बराबरी तो नहीं कर सकते थे, फिर श्री विज्ञलोगोंगे इनकी भी गिनती थी। आज ये भी कुशेखर के समान ही एक संत माने जाते हैं। मानव सहज दोष कभी-कभी संतोंकी भी परीक्षा ले लेते हैं।
एक दिन नथियारके मनमें ईर्ष्याका अनुभव होने लगा के मनमें सोचने लगे कि ‘लोग कथा सुनने कुशेखरके हो पास क्यों जाते हैं? मेरे पास क्यों नहीं आते? मैं कुछशेखरसे किस जातमें कम हूँ।’ देखते-देखते यह ईर्ष्या द्वेषका रूप धारण करने लगी।
एक दिन संध्याको वियार बाहरसे के गाँदै घर भूख लगी थी। उनकी पत्नी कहीं बाहर गयी थी बैठे-बैठे कुळशेखरके ही बारेगें सोचते रहे। नैवियारके मनमें शङ्का उत्पन्न हुई कि उनकी पत्नीभी कहीं कुळशेखरकी कथा सुनने तो नहीं गयी। पर्याप्त प्रतीक्षा की। फिर भी पत्नी नहीं आयी। कुछ और समय पत्नीको बाट देखते बैठे। तब भी पत्नी नहीं आयी। लगभग घंटाभर बीत गया। नंबियारकी भूख जोर पकड़ रही थी। अबतक भी पत्नी घर न आयी। अब उनसे सहा नहीं गया। उन्हें विश्वास हो चला कि हो न हो उनकी पत्नी निश्चय कुळशेखरकी कथा सुनने ही गयी है।
नंवियार मन-ही-मन झल्ला उठे। घरसे बाहर निकल पड़े। क्रोधमें घरका किंवाड़तक बंद करना भूल गये। लंबे-लंबे डग रखते हुए सीधे उस मन्दिरके सामने जा पहुँचे।
रामायणकी कथा चल रही थी। कथा सुननेमें सब लोग लीन थे। नंबियारको द्वारपर खड़े-खड़े दो-तीन मिनट बीत गये। किसीका ध्यान उनकी ओर नहीं गया। नंवियारने जब देखा उनकी पत्नी भी वहाँ बैठी कथा सुन रही है, तब तो वे अपना आपा खो बैठे, उनका विवेक जाता रहा। दो कदम बढ़कर कठोर स्वरसे चिल्ला उठे- ‘तुम मूर्ख हो, तुम कथा सुनाना क्या जानते हो; ये सारे लोग तुमसे बढ़कर मूर्ख हैंजो तुम्हारी कथा सुनने आते हैं।’ सब-के – सब चकित रह गये। कथा बंद हो गयी। लोग नंबियारकी ओर ताकने लगे। स्वयं कुळशेखर भी मूकवत् बने रहे। किसोने कुछ न कहा। नंबियारकी पत्नी सभामेंसे उठकर घरकी ओर चल दीं। कुछ देरतक नंबियार इसी प्रकार सम्बद्ध असम्बद्ध प्रलाप करते रहे और घर लौट पड़े। कथा जो बीचमें बंद हुई सो फिर नहीं चली। सब उठ उठकर अपने घर चल दिये। कुळशेखर भी विषण्णवदन हो पोथी समेटकर उठ चले।
घर पहुँचकर नंबियार अपने बचे क्रोधको अपनी पत्नीपर उतारकर बिस्तरपर जा लेट गये। उनको भूख मर गयी थी। उनको खिलानेकी पत्नीकी सारी चेष्टा निष्फल रही। पत्नी भी भूखी सो गयी।
नंवियारके मनका क्रोध कदाचित् शान्त भी हो गया हो। परंतु उन्हें नींद नहीं आयी। विस्तरपर करवट बदलते रहे। बाहर कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी, भीतर नंबियार पसीना पोंछ रहे थे।
लंबी देरके बाद नंबियारकी भूख जगी। गिलास भर पानी पी वे फिर लेटे रह-रहकर वे ही सारी संध्याकी बातें याद आने लगीं। भरी सभामें वे कुळशेखरका अपमान कर आये थे। कुळशेखरने उनका कुछ भी बिगाड़ा नहीं था। कुळशेखर विद्वान् हैं। उनका जीवन भी पवित्र है। बिना कारण हो नंबियारने उनका अपमान किया।
नंवियारका सारा क्रोध पश्चात्तापमें बदल गया। जितना जितना वे सोचते गये, उतना उतना उनका पश्चात्ताप बढ़ता गया। बिस्तरपर वे तिलमिलाने लगे। लेटे रहना उन्हें असम्भव हो गया।
अन्तमें उन्होंने निर्णय कर लिया कि कुळशेखरसे क्षमा-याचना किये बिना उनके इस अपराधका निस्तार नहीं। परंतु अभी आधी रात है। कुळशेखर सो रहे होंगे। इस समय उन्हें जगाया कैसे जाय? सबेरेतक वेदना सहनी ही पड़ेगी।
छतके छेदमेंसे नंवियारने देखा शुक्रका तारा पूरबमें चमक उठा है। नंवियार विस्तर छोड़कर उठे। अपराधके बोझसे दबा हुआ मन और पश्चात्तापके आवेगसे संतप्त हृदय लेकर कुळशेखरके घर जानेके लिये घरसे निकले। एकमात्र उनको जल्दी थी कि कब मैंकुपोखरके चरणोंमें अपना मस्तक झुका है और मनका भार उतारु ।
टिमटिमाती हुई बस उनके हाथमें थी मानो उनके क्षीणहृदयका प्रतिबिम्ब ही हो ज्यों ही वे खोलकर बाहर आये तो दरवाजेके पास नीचे कोने में कोई वस्तु दिखी अंधेरेमें बिवार पहचान नहीं सके। 1 बत्ती ऊँची करके देखा तो कोई व्यक्ति कंबल आहे बैठे दिखा। वह व्यक्ति ऊँघ रहा था। जान पड़ता था लंबे समय से बैठा था।
‘कौन हो भाई ?’ नंबियारने पूछा। नंबियारका शब्द निकलना था कि झटसे उस मनुष्यने उठकर नंवियारके चरणोंमें अपना मस्तक रख दिया। अज्ञात व्यक्तिको प्रणाम करते देख नंबियारको संकोच हो आया। एक कदम पीछे हटकर झुके हुए व्यक्तिको उठाया। सान्त्वनापूर्ण स्वरमें फिर प्रश्न किया-‘कौन हो भाई, क्या बात है?”
अज्ञात व्यक्तिने सिर उठाया। अँधेरा था। नंवियार पहचान नहीं सके। परंतु उस व्यक्तिके स्वरसे पहचान गये कि ये तो कुळशेखर हैं।
कुछशेखर बोलते गये, परंतु नंवियारके कानोंमें एक भी शब्द प्रवेश न कर पाया। अन्तिम शब्द इतने ही सुन पड़े- आपने मुझे मेरा दोष दिखा दिया, इसका मुझे संतोष ही है। परंतु मैं यह समझ नहीं सका कि मुझसे क्या अपराध हो गया। अनजानमें मुझसे कुछ न-कुछ अपराध अवश्य हो गया है, तभी आप मुझपर असंतुष्ट हैं। मुझ पापीपर आप दयाभाव रखें और मुझे क्षमा करें।’
इतना कहकर कुछ क्षण मौन रहे और आँखें पोंछकर फिर कहने लगे-‘मुझे पता नहीं अब आपसे क्षमायाचना करने आकर मैंने आपके किस काममें बाधा डाली अब आपको अधिक रोकूंगा नहीं, परंतु आप जाते-जाते मुझे क्षमा कर जायें।”
विचारका मन पहले से ही पश्चात्तापसे संतप्त था। तिसपर कुळशेखर स्वयं आकर अपने किसी अज्ञात अपराधके लिये क्षमायाचना कर रहे हैं!
नबियारकी जिह्वा मानो जकड़ गयो, गला मूख गया, उनके मुँहसे एक भी शब्द न निकल सका। उनका मनोभार कम क्या होता, अब तो दूभर हो गया। हृदय उमड़ पड़ा। आँसू बनकर बाहर आया और धूलमें मिल गया।