भगवान् ऋषभदेवने विरक्त होकर वनमें जाते समय अपने सौ पुत्रोंमें ज्येष्ठ पुत्र भरतको राज्य दिया था। दीर्घ कालतक भरत पृथ्वीके एकच्छत्र सम्राट् रहे और धर्मपूर्वक उन्होंने प्रजाका पालन किया। उनकी पत्नी पतिव्रता एवं सुशीला थीं तथा उनके पाँचों पुत्र पितृभक्त तथा गुणवान् थे। सभी सेवक सचिव महाराज भरतकी सेवामें तत्पर रहते थे। परंतु मनुष्य-जीवनका लक्ष्य भोग तो है नहीं। भारत स्वयं विद्वान्, भगवद्भक्त एवं विषयोंमें अनासक्त थे और अपने पिता ऋषभदेवसे भी उन्हें दैवी सम्पत्ति ही प्राप्त हुई थी। प्रजापालन तो पितृ आज्ञा मानकर कर्तव्य बुद्धिसे वे करते थे। जब पुत्र युवा हो गये, तब भरतने उन्हें राज्यका भार सौंप दिया और स्वयं एकाकी, निष्परिग्रह भगवदाराधनाके लिये राजधानीसे दूर पुलहाश्रम चले गये। जो कलतक समस्त भोगोंकी गोदमें क्रीडा करता था, समस्त भूमण्डलका सम्राट् था, वह स्वेच्छासे वनमें कठोर तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगा।
बनके पुष्प, फल आदि एकत्र कर लाना और उससे भगवान्की पूजा करना यहीं भरतका दैनिक जीवन हो गया। जप, तप और पूजन-वनमें भी गये तो स्नान करने या पूजन-सामग्री लाने पूरा जीवन आराधनामय बन गया भरतका। वे विवेकी थे, भगवद्भक्त थे, विरक्त थे और अब इस तपस्याने रहे सहे चित्तके – मलको भी समाप्तप्राय कर दिया।
संयोगकी बात – एक दिन भरत अपने आश्रमके पाको नदीमें स्नान करके जलमें ही खड़े खड़े जप कर रहे थे, उसी समय अपने यूथसे किसी प्रकारबिछुड़ी हुई अकेली मृगी वहाँ नदीमें जल पीने आयी मृगी प्यासी थी, थकी थी, गर्भवती थी। वह पूरा जल पी भी नहीं सकी थी कि वनमें कहीं पास ही सिंहकी गर्जना सुनायी पड़ी। भयके मारे मृगी बिना प्यास बुझाये ही घूमी और कगारपर जानेके लिये छलाँग लगा दी उसने। फल यह हुआ कि उस पूर्णगर्भा हिरनीके पेटका बच्चा निकल पड़ा और नदीके जलमें गिरकर प्रवाहमें बहने लगा। मृगी इस धक्केको सह नहीं सकी, वह किसी प्रकार कुछ दूर गयी और अन्तमें एक पर्वतीय गुफामें बैठ गयी। वहीं प्राण त्याग दिये उसने ।
जलमें जप करते खड़े भरतजी यह सब देख रहे थे। मृगीके गर्भसे जलमें गिरा बच्चा जब प्रवाहमें बहने लगा, तब उनको दया आ गयी। उन्होंने उस नवजात मृगशिशुको जलसे उठा लिया गोदमें और जप समाप्त करके उसे लेकर अपनी कुटियामें आ गये। वे उस हिरनके बच्चेको ले तो आये; किंतु एक समस्या खड़ी हो गयी कि उसकी जीवन-रक्षा कैसे हो। किसी प्रकार सतत सावधानीसे भरतने उसे बचा लिया। कुछ दिनोंमें मृगशिशु स्वयं तृण चरने योग्य हो गया।
यहाँतक सब बातें ठीक हुईं। एक मृत्युके मुखमें पड़े प्राणीको बचा लेना कर्तव्य था, पुण्य था और नदीसे निकाल देनेसे ही वह कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता था। मृगशिशु स्वयं आहार लेनेमें और दौड़नेमें समर्थ न हो जाय, वहाँतक उसका पालन एवं रक्षा तो सर्वथा उचित था; किंतु मनके भीतर जो मायाके सेवक छिपे बैठे हैं, वे तो जीवको बाँधनेका समय देखते रहते हैं। कभीकेसम्राट् भरत, जो साम्राज्यके वैभवका, अपने पुत्रादिका भी त्याग कर चुके थे, उनकी आसक्ति मनसे सर्वथा निकाल चुके थे, उनमें एकाकी थे, अकेलेपनका गुरु भान था मनमें और सप्ताहोंतक उन्हें उस मृगशिशुका बराबर ध्यान रखना पड़ा। सावधानीसे उसका पालन करना पड़ा। मोहको अवसर मिल गया, अनासक्त भरतकी मृग शिशुमें आसक्ति हो गयी। उस हिरनीके बच्चेमें उन्हें ममत्व हो गया।
मन बड़ा धूर्त है। वह अपने दोषोंको कर्तव्य, धर्म, आवश्यक आदि नाना तर्कोंसे सिद्ध करता ही रहता है। भरतके मनने भी उनसे कहना प्रारम्भ किया यह बेचारा मृगशावक अनाथ है, इसकी माता मर गयी है, अब हम इसके माता-पिता हैं, यह हमारी शरण है, इसका पालन-पोषण हमारा कर्तव्य है।’ मनके दोष जहाँ एक बार अवसर पा जाते हैं, वहाँ फिर तरसे समुद्र बनते उन्हें कहाँ देर लगती है। मृगशावक भरतका मोह बढ़ता गया। वे संध्या-पूजाके बीचमें भी उसे उठकर देख लेते, पूजनके पश्चात् उसे आशीर्वाद देते, यदि क कहीं वनमें चला जाता तो व्याकुल होकर उसकी प्रतीक्षा करते और कुछ देर होती उसके लौटनेमें तो उसके सकुशल लौटनेकी देवताओंसे प्रार्थना करने लगते।
काल तो किसी बातकी प्रतीक्षा करता नहीं। भरतका भी जीवनकाल समाप्त हुआ और मृत्युका समय आया। मृगशावक, जो अब मृग हो चुका था, उनसे अत्यन्त प्रेम करने लगा था। मृत्युके समय वह उनके समीप बैठा उनकी ही ओर देख रहा था। भरत भी उसे बड़े खेहसे देख रहे थे और व्याकुल होकर सोच रहे थे – ‘मेरे बिना यह बेचारा कैसे रहेगा?’ इसी दशामें उनका शरीर छूट गया। भगवान्ने तो स्पष्ट बता दिया है गीतामें-
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
(816) साम्राज्यत्यागी विरक्त, शास्त्रज्ञ और ज्ञानी, दीर्घकालतक भगवदाराधना करनेवाले भरत मृगशावकका चिन्तन करते मरे; इससे उन्हें मृगयोनिमें जन्म लेना पड़ा। उनका जन्म हुआ कालिञ्जरमें एक मृगीके गर्भसे । परंतु भगवान् की आराधना व्यर्थ नहीं जाती। भरतको उनकी आराधनाने यह शक्ति दे दी थी कि मृगशरीरमें भी उन्हें पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा। फल यह हुआ कि जैसे ही मृगशरीरमें वे चलने-दौड़ने योग्य हुए कि कालिञ्जरसे भागकर अकेले ही फिर पुलहाश्रम आ गये और वहाँ केवल वृक्षोंसे अपने आप सूखकर गिरे पत्ते खाकर रहने लगे। समय आनेपर वहाँके पवित्र तीर्थ- जलमें स्नान करके उन्होंने शरीर त्याग दिया।
भरतका तीसरा जन्म हुआ एक ब्राह्मणके यहाँ । यहाँ भी उन्हें अपने पूर्वजन्मोंका स्मरण तथा ज्ञान बना रहा। इसलिये उन्होंने अपनेको ऐसा बना लिया जैसे वे सर्वथा बुद्धिहीन, पागल हों। उन्हें बराबर भय रहता था कि बुद्धिमान् एवं व्यवहारकुशल बननेसे सांसारिक व्यवहारमें पड़कर कहीं आसक्ति न हो जाय। उनके व्यवहारका अटपटापन देखकर लोग उन्हें ‘जड’ कहने लगे। इससे उनका नाम ही जडभरत पड़ गया। यही | उनका अन्तिम जन्म था।
-सु0 सिं0 (श्रीमद्भागवत 5। 7-8)
भगवान् ऋषभदेवने विरक्त होकर वनमें जाते समय अपने सौ पुत्रोंमें ज्येष्ठ पुत्र भरतको राज्य दिया था। दीर्घ कालतक भरत पृथ्वीके एकच्छत्र सम्राट् रहे और धर्मपूर्वक उन्होंने प्रजाका पालन किया। उनकी पत्नी पतिव्रता एवं सुशीला थीं तथा उनके पाँचों पुत्र पितृभक्त तथा गुणवान् थे। सभी सेवक सचिव महाराज भरतकी सेवामें तत्पर रहते थे। परंतु मनुष्य-जीवनका लक्ष्य भोग तो है नहीं। भारत स्वयं विद्वान्, भगवद्भक्त एवं विषयोंमें अनासक्त थे और अपने पिता ऋषभदेवसे भी उन्हें दैवी सम्पत्ति ही प्राप्त हुई थी। प्रजापालन तो पितृ आज्ञा मानकर कर्तव्य बुद्धिसे वे करते थे। जब पुत्र युवा हो गये, तब भरतने उन्हें राज्यका भार सौंप दिया और स्वयं एकाकी, निष्परिग्रह भगवदाराधनाके लिये राजधानीसे दूर पुलहाश्रम चले गये। जो कलतक समस्त भोगोंकी गोदमें क्रीडा करता था, समस्त भूमण्डलका सम्राट् था, वह स्वेच्छासे वनमें कठोर तपस्वी जीवन व्यतीत करने लगा।
बनके पुष्प, फल आदि एकत्र कर लाना और उससे भगवान्की पूजा करना यहीं भरतका दैनिक जीवन हो गया। जप, तप और पूजन-वनमें भी गये तो स्नान करने या पूजन-सामग्री लाने पूरा जीवन आराधनामय बन गया भरतका। वे विवेकी थे, भगवद्भक्त थे, विरक्त थे और अब इस तपस्याने रहे सहे चित्तके – मलको भी समाप्तप्राय कर दिया।
संयोगकी बात – एक दिन भरत अपने आश्रमके पाको नदीमें स्नान करके जलमें ही खड़े खड़े जप कर रहे थे, उसी समय अपने यूथसे किसी प्रकारबिछुड़ी हुई अकेली मृगी वहाँ नदीमें जल पीने आयी मृगी प्यासी थी, थकी थी, गर्भवती थी। वह पूरा जल पी भी नहीं सकी थी कि वनमें कहीं पास ही सिंहकी गर्जना सुनायी पड़ी। भयके मारे मृगी बिना प्यास बुझाये ही घूमी और कगारपर जानेके लिये छलाँग लगा दी उसने। फल यह हुआ कि उस पूर्णगर्भा हिरनीके पेटका बच्चा निकल पड़ा और नदीके जलमें गिरकर प्रवाहमें बहने लगा। मृगी इस धक्केको सह नहीं सकी, वह किसी प्रकार कुछ दूर गयी और अन्तमें एक पर्वतीय गुफामें बैठ गयी। वहीं प्राण त्याग दिये उसने ।
जलमें जप करते खड़े भरतजी यह सब देख रहे थे। मृगीके गर्भसे जलमें गिरा बच्चा जब प्रवाहमें बहने लगा, तब उनको दया आ गयी। उन्होंने उस नवजात मृगशिशुको जलसे उठा लिया गोदमें और जप समाप्त करके उसे लेकर अपनी कुटियामें आ गये। वे उस हिरनके बच्चेको ले तो आये; किंतु एक समस्या खड़ी हो गयी कि उसकी जीवन-रक्षा कैसे हो। किसी प्रकार सतत सावधानीसे भरतने उसे बचा लिया। कुछ दिनोंमें मृगशिशु स्वयं तृण चरने योग्य हो गया।
यहाँतक सब बातें ठीक हुईं। एक मृत्युके मुखमें पड़े प्राणीको बचा लेना कर्तव्य था, पुण्य था और नदीसे निकाल देनेसे ही वह कर्तव्य पूरा नहीं हो जाता था। मृगशिशु स्वयं आहार लेनेमें और दौड़नेमें समर्थ न हो जाय, वहाँतक उसका पालन एवं रक्षा तो सर्वथा उचित था; किंतु मनके भीतर जो मायाके सेवक छिपे बैठे हैं, वे तो जीवको बाँधनेका समय देखते रहते हैं। कभीकेसम्राट् भरत, जो साम्राज्यके वैभवका, अपने पुत्रादिका भी त्याग कर चुके थे, उनकी आसक्ति मनसे सर्वथा निकाल चुके थे, उनमें एकाकी थे, अकेलेपनका गुरु भान था मनमें और सप्ताहोंतक उन्हें उस मृगशिशुका बराबर ध्यान रखना पड़ा। सावधानीसे उसका पालन करना पड़ा। मोहको अवसर मिल गया, अनासक्त भरतकी मृग शिशुमें आसक्ति हो गयी। उस हिरनीके बच्चेमें उन्हें ममत्व हो गया।
मन बड़ा धूर्त है। वह अपने दोषोंको कर्तव्य, धर्म, आवश्यक आदि नाना तर्कोंसे सिद्ध करता ही रहता है। भरतके मनने भी उनसे कहना प्रारम्भ किया यह बेचारा मृगशावक अनाथ है, इसकी माता मर गयी है, अब हम इसके माता-पिता हैं, यह हमारी शरण है, इसका पालन-पोषण हमारा कर्तव्य है।’ मनके दोष जहाँ एक बार अवसर पा जाते हैं, वहाँ फिर तरसे समुद्र बनते उन्हें कहाँ देर लगती है। मृगशावक भरतका मोह बढ़ता गया। वे संध्या-पूजाके बीचमें भी उसे उठकर देख लेते, पूजनके पश्चात् उसे आशीर्वाद देते, यदि क कहीं वनमें चला जाता तो व्याकुल होकर उसकी प्रतीक्षा करते और कुछ देर होती उसके लौटनेमें तो उसके सकुशल लौटनेकी देवताओंसे प्रार्थना करने लगते।
काल तो किसी बातकी प्रतीक्षा करता नहीं। भरतका भी जीवनकाल समाप्त हुआ और मृत्युका समय आया। मृगशावक, जो अब मृग हो चुका था, उनसे अत्यन्त प्रेम करने लगा था। मृत्युके समय वह उनके समीप बैठा उनकी ही ओर देख रहा था। भरत भी उसे बड़े खेहसे देख रहे थे और व्याकुल होकर सोच रहे थे – ‘मेरे बिना यह बेचारा कैसे रहेगा?’ इसी दशामें उनका शरीर छूट गया। भगवान्ने तो स्पष्ट बता दिया है गीतामें-
यं यं वापि स्मरन् भावं त्यजत्यन्ते कलेवरम् ।
तं तमेवैति कौन्तेय सदा तद्भावभावितः ॥
(816) साम्राज्यत्यागी विरक्त, शास्त्रज्ञ और ज्ञानी, दीर्घकालतक भगवदाराधना करनेवाले भरत मृगशावकका चिन्तन करते मरे; इससे उन्हें मृगयोनिमें जन्म लेना पड़ा। उनका जन्म हुआ कालिञ्जरमें एक मृगीके गर्भसे । परंतु भगवान् की आराधना व्यर्थ नहीं जाती। भरतको उनकी आराधनाने यह शक्ति दे दी थी कि मृगशरीरमें भी उन्हें पूर्वजन्मका स्मरण बना रहा। फल यह हुआ कि जैसे ही मृगशरीरमें वे चलने-दौड़ने योग्य हुए कि कालिञ्जरसे भागकर अकेले ही फिर पुलहाश्रम आ गये और वहाँ केवल वृक्षोंसे अपने आप सूखकर गिरे पत्ते खाकर रहने लगे। समय आनेपर वहाँके पवित्र तीर्थ- जलमें स्नान करके उन्होंने शरीर त्याग दिया।
भरतका तीसरा जन्म हुआ एक ब्राह्मणके यहाँ । यहाँ भी उन्हें अपने पूर्वजन्मोंका स्मरण तथा ज्ञान बना रहा। इसलिये उन्होंने अपनेको ऐसा बना लिया जैसे वे सर्वथा बुद्धिहीन, पागल हों। उन्हें बराबर भय रहता था कि बुद्धिमान् एवं व्यवहारकुशल बननेसे सांसारिक व्यवहारमें पड़कर कहीं आसक्ति न हो जाय। उनके व्यवहारका अटपटापन देखकर लोग उन्हें ‘जड’ कहने लगे। इससे उनका नाम ही जडभरत पड़ गया। यही | उनका अन्तिम जन्म था।
-सु0 सिं0 (श्रीमद्भागवत 5। 7-8)