कनिष्ठाः पुत्रवत् पाल्या भ्रात्रा ज्येष्ठेन निर्मलाः ।
प्रगाथो निर्मलो भ्रातुः प्रागात् कण्वस्य पुत्रताम् ॥
(नीतिमञ्जरी 111)
महर्षि धोरके पुत्र कण्व और प्रगाधको गुरुकुलसे लौटे कुछ ही दिन हुए थे। दोनों ऋषिकुमारोंका एक दूसरेके प्रति हार्दिक प्रेम था प्रसाथ अपने बड़े भाई कण्वको पिताके समान समझते थे, उनकी पत्नी प्राध स्नेह करती थी। उनकी उपस्थितिसे आश्रमका वातावरण बड़ा निर्मल और पवित्र हो गया था। यज्ञकी धूमशिखा आकाशको चूम-चूमकर निरन्तर महती सात्त्विकताकी विजयिनी पताका-सी लहराती रहती थी।
एक दिन आश्रममें विशेष शान्तिका साम्राज्य था। कण्ण समिधा लेनेके लिये उनके अन्तरालमें गये हुए थे उनकी साध्वी पत्नी यज्ञवेदीके ठीक सामने बैठी हुई थी। उससे थोड़ी दूरपर ऋषिकुमार प्रगाथ साम-गान कर रहे थे। अत्यन्त शीतल और मधुर समीरणके संचारसे ऋषिकुमारके नयन अलसाने लगे और ये ऋषिपत्रीके अङ्कमें सिर रखकर विश्राम करते-करते सो गये। ऋषिपनी किसी चिन्तनमें तन्मय धी ‘यह कौन है, इस नीचने तुम्हारे अङ्कमें विश्राम करनेका साहस किस प्रकार किया?’ समिधा रखते ही कण्वके नेत्र लाल हो गये, उनका अमित रुद्ररूप देखकर ऋषिपत्नी सहम गयी।
‘देव!’ वह कुछ और कहने ही जा रही थी कि कण्वने प्रगायकी पीठपर पद प्रहार किया। ऋषिकुमारकी आँख खुल गयी। वह खड़ा हो गया। उसने कण्व ऋषिको प्रणाम किया।’आजसे तुम्हारे लिये इस आश्रमका दरवाजा बंद है. प्रगाथ!” कण्व ऋषिकी वाणी क्रोधकी भयंकर ज्वालासे प्रज्वलित थी, उनका रोम-रोम सिहर उठा था।
‘भैया! आप तो मेरे पिताके समान हैं और ये तो साक्षात् मेरी माता हैं। प्रगाधने ऋषिपत्नीके चरणोंमें श्रद्धा प्रकटकर कण्वका शङ्का-समाधान किया।
कण्व धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहे थे, पर उनके सिरपर संशयका भूत अब भी नाच रहा था।
‘ऋषिकुमार प्रगाथने सच कहा है, देव! मैंने तो आश्रममें पैर रखते हो उनका सदा पुत्रके समान पालन किया है। बड़े भाईकी पत्नी देवरको सदा पुत्र मानती है, इसको तो आप जानते हो है पवित्र भारत देशका यही आदर्श है।’ ऋषिपत्नीने कण्वका क्रोध शान्त किया।
‘भाई प्रगाथ! दोष मेरे नेत्रोंका ही है, मैंने महान् पाप कर डाला; तुम्हारे ऊपर व्यर्थ शंका कर बैठा।’
ऋषि कण्वका शील समुत्थित हो उठा, उन्होंने प्रगाथका
आलिङ्गन करके स्नेह दान दिया। प्रगाधने उनकी चरण धूलि मस्तकपर चढ़ायी “भाई नहीं, ऋषिकुमार प्रगाध हमारा पुत्र है। ऋषिकुमारने हमारे सम्पूर्ण वात्सल्यका अधिकार पा लिया है।’ ऋषिपत्नीकी ममताने कण्वका हृदय स्पर्श किया।
“ठीक है, प्रगाथ हमारा पुत्र है। आजसे हम दोनों इसके माता-पिता हैं।’ कण्वने प्रगाथका मस्तक सूँघा । आश्रमकी पवित्रतामें नवीन प्राण भर उठा- जिसमें सत्य वचनकी गरिमा, निर्मल मनकी प्रसन्नता और हृदयकी सरलताका सरस सम्मिश्रण था। -रा0 श्री0
(बृहद्देवता अ0 635-39)
कनिष्ठाः पुत्रवत् पाल्या भ्रात्रा ज्येष्ठेन निर्मलाः ।
प्रगाथो निर्मलो भ्रातुः प्रागात् कण्वस्य पुत्रताम् ॥
(नीतिमञ्जरी 111)
महर्षि धोरके पुत्र कण्व और प्रगाधको गुरुकुलसे लौटे कुछ ही दिन हुए थे। दोनों ऋषिकुमारोंका एक दूसरेके प्रति हार्दिक प्रेम था प्रसाथ अपने बड़े भाई कण्वको पिताके समान समझते थे, उनकी पत्नी प्राध स्नेह करती थी। उनकी उपस्थितिसे आश्रमका वातावरण बड़ा निर्मल और पवित्र हो गया था। यज्ञकी धूमशिखा आकाशको चूम-चूमकर निरन्तर महती सात्त्विकताकी विजयिनी पताका-सी लहराती रहती थी।
एक दिन आश्रममें विशेष शान्तिका साम्राज्य था। कण्ण समिधा लेनेके लिये उनके अन्तरालमें गये हुए थे उनकी साध्वी पत्नी यज्ञवेदीके ठीक सामने बैठी हुई थी। उससे थोड़ी दूरपर ऋषिकुमार प्रगाथ साम-गान कर रहे थे। अत्यन्त शीतल और मधुर समीरणके संचारसे ऋषिकुमारके नयन अलसाने लगे और ये ऋषिपत्रीके अङ्कमें सिर रखकर विश्राम करते-करते सो गये। ऋषिपनी किसी चिन्तनमें तन्मय धी ‘यह कौन है, इस नीचने तुम्हारे अङ्कमें विश्राम करनेका साहस किस प्रकार किया?’ समिधा रखते ही कण्वके नेत्र लाल हो गये, उनका अमित रुद्ररूप देखकर ऋषिपत्नी सहम गयी।
‘देव!’ वह कुछ और कहने ही जा रही थी कि कण्वने प्रगायकी पीठपर पद प्रहार किया। ऋषिकुमारकी आँख खुल गयी। वह खड़ा हो गया। उसने कण्व ऋषिको प्रणाम किया।’आजसे तुम्हारे लिये इस आश्रमका दरवाजा बंद है. प्रगाथ!” कण्व ऋषिकी वाणी क्रोधकी भयंकर ज्वालासे प्रज्वलित थी, उनका रोम-रोम सिहर उठा था।
‘भैया! आप तो मेरे पिताके समान हैं और ये तो साक्षात् मेरी माता हैं। प्रगाधने ऋषिपत्नीके चरणोंमें श्रद्धा प्रकटकर कण्वका शङ्का-समाधान किया।
कण्व धीरे-धीरे स्वस्थ हो रहे थे, पर उनके सिरपर संशयका भूत अब भी नाच रहा था।
‘ऋषिकुमार प्रगाथने सच कहा है, देव! मैंने तो आश्रममें पैर रखते हो उनका सदा पुत्रके समान पालन किया है। बड़े भाईकी पत्नी देवरको सदा पुत्र मानती है, इसको तो आप जानते हो है पवित्र भारत देशका यही आदर्श है।’ ऋषिपत्नीने कण्वका क्रोध शान्त किया।
‘भाई प्रगाथ! दोष मेरे नेत्रोंका ही है, मैंने महान् पाप कर डाला; तुम्हारे ऊपर व्यर्थ शंका कर बैठा।’
ऋषि कण्वका शील समुत्थित हो उठा, उन्होंने प्रगाथका
आलिङ्गन करके स्नेह दान दिया। प्रगाधने उनकी चरण धूलि मस्तकपर चढ़ायी “भाई नहीं, ऋषिकुमार प्रगाध हमारा पुत्र है। ऋषिकुमारने हमारे सम्पूर्ण वात्सल्यका अधिकार पा लिया है।’ ऋषिपत्नीकी ममताने कण्वका हृदय स्पर्श किया।
“ठीक है, प्रगाथ हमारा पुत्र है। आजसे हम दोनों इसके माता-पिता हैं।’ कण्वने प्रगाथका मस्तक सूँघा । आश्रमकी पवित्रतामें नवीन प्राण भर उठा- जिसमें सत्य वचनकी गरिमा, निर्मल मनकी प्रसन्नता और हृदयकी सरलताका सरस सम्मिश्रण था। -रा0 श्री0
(बृहद्देवता अ0 635-39)