पार्वतीकी परीक्षा

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महाभागा हिमाचलनन्दिनी पार्वतीने भगवान् शंकरको पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये घोर तप किया। श्रीशंकरजीने प्रसन्न होकर दर्शन दिया। पार्वतीने उन्हें वरण कर लिया। इसके बाद शंकरजी अन्तर्धान हो गये। पार्वतीजी आश्रमके बाहर एक शिलापर बैठी थीं। इतनेमें उन्हें किसी आर्त बालकके रोनेकी आवाज सुनायी दी। बालक चिल्ला रहा था। ‘हाय-हाय ! मैं बच्चा हूँ, मुझे ग्राह पकड़ लिया हैं। यह अभी मुझे चबा जायगा ।मेरे माता-पिताके मैं ही एकमात्र पुत्र हूँ। कोई दौड़ो, मुझे बचाओ, हाय! मैं मरा!’ बालकका आर्तनाद सुनकर पार्वतीजी दौड़ीं। देखा, एक बड़े ही सुन्दर बालकको सरोवरमें ग्राह पकड़े हुए है। वह पार्वतीको देखते ही जल्दीसे चलकर बालकको सरोवरके बीचमें ले गया। बालक बड़ा तेजस्वी था, पर ग्राहके द्वारा पकड़े जानेसे करुण क्रन्दन कर रहा था। बालकका दुःख देखकर पार्वतीजीकाहृदय द्रवित हो गया। वे बोलीं- ‘ग्राहराज ! बालक बड़ा दीन है, इसे तुरंत छोड़ दो।’ ग्राह बोला ‘देवी! दिनके छठे भागमें जो मेरे पास आयेगा, वही मेरा आहार होगा। यह बालक इसी कालमें यहाँ आया है, अतएव ब्रह्माने इसे मेरे आहाररूपमें ही भेजा है; इसे मैं नहीं छोड़ सकता।’ देवीने कहा- ‘ग्राहराज ! मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ। मैंने हिमाचलकी चोटीपर रहकर बड़ा तप किया है, उसीके बलसे तुम इसे छोड़ दो।’ ग्राहने कहा – ‘तुमने जो उत्तम तप किया है, वह मुझे अर्पण कर दो तो मैं इसे छोड़ दूँ ।’ पार्वतीने कहा – ‘ग्राहराज ! इस तपकी तो बात ही क्या है, मैंने जन्मभरमें जो कुछ पुण्य-संचय किया है, सब तुम्हें अर्पण करती हूँ; तुम इस बालकको छोड़ दो।’ पार्वतीके इतना कहते ही ग्राहका शरीर तपके तेजसे चमक उठा, उसके शरीरकी आकृति मध्याह्नके सूर्यके सदृश तेजोमय हो गयी। उसने कहा – ‘देवी! तुमने यह क्या किया? जरा विचार तो करो। कितना कष्ट सहकर तुमने तप किया था और किस महान् उद्देश्यसे किया था। ऐसे तपकात्याग करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। अच्छा, तुम्हारी ब्राह्मण-भक्ति और दीन-सेवासे मैं बड़ा संतुष्ट हूँ। तुम्हें वरदान देता हूँ- तुम अपनी तपस्याको भी वापस लो और इस बालकको भी!’ इसपर महाव्रता पार्वतीने कहा – ‘ ग्राहराज ! प्राण देकर भी इस दीन ब्राह्मण बालकको बचाना मेरा कर्तव्य था। तप तो फिर भी हो जायगा, पर यह बालक फिर कहाँसे आता ? मैंने सब कुछ सोचकर ही बालकको बचाया है और तुम्हें तप दिया है। अब इस दी हुई वस्तुको मैं वापस नहीं ले सकती। बस, तुम इस बालकको छोड़ दो। ‘ इस बातको सुनकर ग्राह बालकको छोड़कर अन्तर्धान हो गया। इधर पार्वतीने अपना तप चला गया समझकर फिरसे तप करनेका विचार किया। तब शंकरजीने प्रकट होकर कहा- ‘देवी! तुम्हें फिरसे तप नहीं करना पड़ेगा। तुमने यह तप मुझको ही दिया है। बालक मैं था और ग्राह भी मैं ही था । तुम्हारी दया और त्यागकी महिमा देखनेके लिये ही मैंने यह लीला की। देखो, दानके फल-स्वरूप तुम्हारी यह तपस्या अब हजारगुनी होकर अक्षय हो गयी है। ‘

महाभागा हिमाचलनन्दिनी पार्वतीने भगवान् शंकरको पतिरूपसे प्राप्त करनेके लिये घोर तप किया। श्रीशंकरजीने प्रसन्न होकर दर्शन दिया। पार्वतीने उन्हें वरण कर लिया। इसके बाद शंकरजी अन्तर्धान हो गये। पार्वतीजी आश्रमके बाहर एक शिलापर बैठी थीं। इतनेमें उन्हें किसी आर्त बालकके रोनेकी आवाज सुनायी दी। बालक चिल्ला रहा था। ‘हाय-हाय ! मैं बच्चा हूँ, मुझे ग्राह पकड़ लिया हैं। यह अभी मुझे चबा जायगा ।मेरे माता-पिताके मैं ही एकमात्र पुत्र हूँ। कोई दौड़ो, मुझे बचाओ, हाय! मैं मरा!’ बालकका आर्तनाद सुनकर पार्वतीजी दौड़ीं। देखा, एक बड़े ही सुन्दर बालकको सरोवरमें ग्राह पकड़े हुए है। वह पार्वतीको देखते ही जल्दीसे चलकर बालकको सरोवरके बीचमें ले गया। बालक बड़ा तेजस्वी था, पर ग्राहके द्वारा पकड़े जानेसे करुण क्रन्दन कर रहा था। बालकका दुःख देखकर पार्वतीजीकाहृदय द्रवित हो गया। वे बोलीं- ‘ग्राहराज ! बालक बड़ा दीन है, इसे तुरंत छोड़ दो।’ ग्राह बोला ‘देवी! दिनके छठे भागमें जो मेरे पास आयेगा, वही मेरा आहार होगा। यह बालक इसी कालमें यहाँ आया है, अतएव ब्रह्माने इसे मेरे आहाररूपमें ही भेजा है; इसे मैं नहीं छोड़ सकता।’ देवीने कहा- ‘ग्राहराज ! मैं तुम्हें नमस्कार करती हूँ। मैंने हिमाचलकी चोटीपर रहकर बड़ा तप किया है, उसीके बलसे तुम इसे छोड़ दो।’ ग्राहने कहा – ‘तुमने जो उत्तम तप किया है, वह मुझे अर्पण कर दो तो मैं इसे छोड़ दूँ ।’ पार्वतीने कहा – ‘ग्राहराज ! इस तपकी तो बात ही क्या है, मैंने जन्मभरमें जो कुछ पुण्य-संचय किया है, सब तुम्हें अर्पण करती हूँ; तुम इस बालकको छोड़ दो।’ पार्वतीके इतना कहते ही ग्राहका शरीर तपके तेजसे चमक उठा, उसके शरीरकी आकृति मध्याह्नके सूर्यके सदृश तेजोमय हो गयी। उसने कहा – ‘देवी! तुमने यह क्या किया? जरा विचार तो करो। कितना कष्ट सहकर तुमने तप किया था और किस महान् उद्देश्यसे किया था। ऐसे तपकात्याग करना तुम्हारे लिये उचित नहीं है। अच्छा, तुम्हारी ब्राह्मण-भक्ति और दीन-सेवासे मैं बड़ा संतुष्ट हूँ। तुम्हें वरदान देता हूँ- तुम अपनी तपस्याको भी वापस लो और इस बालकको भी!’ इसपर महाव्रता पार्वतीने कहा – ‘ ग्राहराज ! प्राण देकर भी इस दीन ब्राह्मण बालकको बचाना मेरा कर्तव्य था। तप तो फिर भी हो जायगा, पर यह बालक फिर कहाँसे आता ? मैंने सब कुछ सोचकर ही बालकको बचाया है और तुम्हें तप दिया है। अब इस दी हुई वस्तुको मैं वापस नहीं ले सकती। बस, तुम इस बालकको छोड़ दो। ‘ इस बातको सुनकर ग्राह बालकको छोड़कर अन्तर्धान हो गया। इधर पार्वतीने अपना तप चला गया समझकर फिरसे तप करनेका विचार किया। तब शंकरजीने प्रकट होकर कहा- ‘देवी! तुम्हें फिरसे तप नहीं करना पड़ेगा। तुमने यह तप मुझको ही दिया है। बालक मैं था और ग्राह भी मैं ही था । तुम्हारी दया और त्यागकी महिमा देखनेके लिये ही मैंने यह लीला की। देखो, दानके फल-स्वरूप तुम्हारी यह तपस्या अब हजारगुनी होकर अक्षय हो गयी है। ‘

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