मातु पिता गुर प्रभु कै बानी

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मातु पिता गुर प्रभु कै बानी ”

बहुत वर्ष हुए, प्रयागके माघ मेलेमें देवरहा बाबासे एक छोटी-सी कथा सुनी थी। एक बार एक गुरुने अपने एक शिष्यको बुलाकर कहा कि उसकी शिक्षा अब पूरी हो चुकी है, वह आश्रमसे चला जाय। शिष्यको विचित्र – सा लगा, उसके साथके बालक अभी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उसे लगता था कि अभी कई वर्ष वह आश्रममें गुरुसे शिक्षा ग्रहण करेगा। उसने गुरुसे कहा- ‘अभी मैं कैसे चला जाऊँ, अभी तो मुझे और ‘शिक्षा ग्रहण करनी है।’ जब गुरुने देखा कि यह नहीं मानेगा तो उसे आश्रममें ही रहने दिया। शिष्य गुरुकी सेवा करता, आश्रमके कार्य करता, अन्य शिष्योंके साथ शिक्षा ग्रहण करता। बहुत समय बीत जानेपर एक दिन शिष्यने गुरुसे कहा कि ‘अब वह आश्रमसे जाना चाहता ‘है, उसे अनुमति दें।’ गुरुने पूछा कि ‘वह अब क्यों जाना चाहता है?’ शिष्यने कहा- ‘बहुत समय पहले जब आपने मुझसे कहा था कि मेरी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है, मुझे आश्रमसे चले जाना चाहिये। वस्तुतः मुझे तभी चले जाना चाहिये था। इतना समय तो मेरा व्यर्थ हो गया। यदि आपकी बात मैं बिना किसी तर्क-वितर्कके मान जाता तो मेरा इतना समय नष्ट न होता।’
‘श्रीरामचरितमानस’ में भगवान् शंकरकी उक्ति रामके प्रति इस प्रकार है
अपने माता, पिता, गुर प्रभु के बानी। बिनहिं विचार करिअ सुभ जानी ॥ अपने माता, पिता, गुरु और प्रभुका कहा हमें बिना विचार किये मान लेना चाहिये और तदनुसार कार्य करना चाहिये; क्योंकि वह हमारे लिये शुभ अर्थात् कल्याणप्रद और हितकारी होता है।
यदि हम अपने गुरुकी आज्ञाको अपने विचारोंकी कसौटीपर परखने लगें और उसके अनुसार करनेका निर्णय लें तो, उससे प्रतिकूल जानेपर हमें शुभके स्थानपर अशुभ फलकी ही प्राप्ति होगी।
गुरुके वचनोंपर श्रद्धा न लानेका क्या परिणाम होता है, प्रस्तुत कथामें इसका निरूपण अत्यन्त रोचक ढंगसे हुआ है।
एक बारकी बात है कि एक गुरु और उनका शिष्य नगरी-नगरी भिक्षाटन करते हुए एक नयी नगरीमें पहुँचे। थके हुए गुरुने एक छायादार वृक्षके नीचे विश्राम किया। तबतक शिष्य भिक्षामें प्राप्त थोड़ेसे पैसोंसे कुछ भोजनकी व्यवस्था करने बाजार चला गया। लौटनेपर गुरुने देखा कि शिष्य प्रचुर मात्रामें अनेक स्वादिष्ट मिष्टान्न लेकर लौटा है। गुरुने आश्चर्यसे पूछा तो शिष्यने बताया कि जहाँ वह पहुँचे हैं, वहाँ चाहे सूखी रोटी खरीदो, चाहे स्वादिष्ट मिष्टान्न-सभीका भाव एक है, इसीलिये मैं ये स्वादिष्ट मिष्टान्न ले आया हूँ। यह बात जानकर गुरु बहुत आश्चर्यमें पड़ गये। शिष्यने बताया कि इस नगरीके सम्बन्धमें लोग बताते हैं कि- ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।’ यहाँ भाजी (शाक-सब्जी) और खाजा (एक मिष्टान्न) दोनों एक ही भाव हैं। यह सब सुनकर गुरुजीने शिष्यसे कहा कि ‘यह स्थान रहनेयोग्य नहीं है। तुरंत यहाँसे अन्यत्र चल देना चाहिये।’ शिष्यको बहुत दिनतक सूखी रोटियाँ चबानेके पश्चात् स्वादिष्ट पकवानोंका आनन्द प्राप्त हुआ था। वैसे भी सब वस्तुओंका भाव एक-सा होनेमें उसे कोई विसंगति नहीं दिखायी दी, अतः वह वहीं रुक गया। गुरुजी जाते समय कह गये कि ‘कभी कोई बड़ी कठिनाई हो, तो याद कर लेना।’
शिष्य इस नयी नगरीमें नित्य प्रति मिष्टान्नोंका सेवन करता हुआ अत्यन्त हष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन नगरवासी एक व्यक्तिकी बकरी एक पड़ोसीकी दीवार गिरनेसे दबकर मर गयी। राजाके यहाँ मामला गया। राजाने न्याय करते हुए जानके बदले जानके आधारपर पड़ोसीको प्राणदण्ड दिया। किंतु न्यायिक प्रक्रियाके चलते एकके बाद एक आरोप लगाया जाने लगा। सबसे पहले पड़ोसीको, फिर दीवार बनानेवाले कारीगरको, फिर ईंटे जोड़नेवाले, मसालेका निर्माण करनेवाले मिस्त्रीको, फिर मसालेमें पानी डालनेवाले भिश्तीको, फिर मशक बनानेवालेको, फिर कसाईंको इस प्रकार आरोप प्रत्यारोप होते-होते अन्तमें जिस व्यक्तिको आरोपितकर प्राणदण्डके लिये भेजा गया-उसकी गरदन पतली थी. जो फाँसी के फंदेसे निकल जाती थी। अब मोटी गरदन ढूँढ़ते-ढूँढ़ते गुरुजीका शिष्य मिला, जो खा-पीकर खूब मोटा हो गया था। उसे फाँसी चढ़ाने लगे; क्योंकि उसकी गरदन फंदेमें सही बैठ रही थी।
शिष्यको अब गुरुकी चेतावनी याद आयी और अपनी नासमझीपर पश्चात्ताप भी हुआ। उसने गुरुको याद किया। सिद्ध गुरुने पहुँचकर सारी बात समझी तो प्राणदण्ड देनेवाले सैनिकोंसे उलझ गये कि ‘शिष्यको नहीं, पहले मुझे फाँसी चढ़ाओ।’ विवाद बढ़ा तो राजा वहाँ पहुँच गया। गुरुने बताया कि ‘मेँ इसलिये फाँसी चढ़ना चाहता हूँ कि इस मुहूर्तमें फाँसी चढ़नेसे स्वर्गका साम्राज्य प्राप्त होगा।’ राजाने कहा-‘मेरे रहते स्वर्गक साम्राज्यपर कोई अन्य अधिकार नहीं कर सकता।’ यह कहकर राजा फाँसी चढ़ गया।
इस प्रकार यह कथा यह बोध कराती है कि गुरु, माता, पिता, प्रभु इनके वचन हम कभी-कभी समझ नहीं पाते हैं, किंतु इनपर पूर्ण आस्था और विश्वास रखते हुए हमें उनका पालन करना चाहिये; क्योंकि अनुभवसिद्ध होनेके कारण अन्ततः वे हमारे लिये कल्याणप्रद ही सिद्ध होते हैं।
[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्रकृत ‘अंधेर नगरी’ पर आश्रित ]

मातु पिता गुर प्रभु कै बानी ”
बहुत वर्ष हुए, प्रयागके माघ मेलेमें देवरहा बाबासे एक छोटी-सी कथा सुनी थी। एक बार एक गुरुने अपने एक शिष्यको बुलाकर कहा कि उसकी शिक्षा अब पूरी हो चुकी है, वह आश्रमसे चला जाय। शिष्यको विचित्र – सा लगा, उसके साथके बालक अभी शिक्षा ग्रहण कर रहे थे। उसे लगता था कि अभी कई वर्ष वह आश्रममें गुरुसे शिक्षा ग्रहण करेगा। उसने गुरुसे कहा- ‘अभी मैं कैसे चला जाऊँ, अभी तो मुझे और ‘शिक्षा ग्रहण करनी है।’ जब गुरुने देखा कि यह नहीं मानेगा तो उसे आश्रममें ही रहने दिया। शिष्य गुरुकी सेवा करता, आश्रमके कार्य करता, अन्य शिष्योंके साथ शिक्षा ग्रहण करता। बहुत समय बीत जानेपर एक दिन शिष्यने गुरुसे कहा कि ‘अब वह आश्रमसे जाना चाहता ‘है, उसे अनुमति दें।’ गुरुने पूछा कि ‘वह अब क्यों जाना चाहता है?’ शिष्यने कहा- ‘बहुत समय पहले जब आपने मुझसे कहा था कि मेरी शिक्षा पूर्ण हो चुकी है, मुझे आश्रमसे चले जाना चाहिये। वस्तुतः मुझे तभी चले जाना चाहिये था। इतना समय तो मेरा व्यर्थ हो गया। यदि आपकी बात मैं बिना किसी तर्क-वितर्कके मान जाता तो मेरा इतना समय नष्ट न होता।’
‘श्रीरामचरितमानस’ में भगवान् शंकरकी उक्ति रामके प्रति इस प्रकार है
अपने माता, पिता, गुर प्रभु के बानी। बिनहिं विचार करिअ सुभ जानी ॥ अपने माता, पिता, गुरु और प्रभुका कहा हमें बिना विचार किये मान लेना चाहिये और तदनुसार कार्य करना चाहिये; क्योंकि वह हमारे लिये शुभ अर्थात् कल्याणप्रद और हितकारी होता है।
यदि हम अपने गुरुकी आज्ञाको अपने विचारोंकी कसौटीपर परखने लगें और उसके अनुसार करनेका निर्णय लें तो, उससे प्रतिकूल जानेपर हमें शुभके स्थानपर अशुभ फलकी ही प्राप्ति होगी।
गुरुके वचनोंपर श्रद्धा न लानेका क्या परिणाम होता है, प्रस्तुत कथामें इसका निरूपण अत्यन्त रोचक ढंगसे हुआ है।
एक बारकी बात है कि एक गुरु और उनका शिष्य नगरी-नगरी भिक्षाटन करते हुए एक नयी नगरीमें पहुँचे। थके हुए गुरुने एक छायादार वृक्षके नीचे विश्राम किया। तबतक शिष्य भिक्षामें प्राप्त थोड़ेसे पैसोंसे कुछ भोजनकी व्यवस्था करने बाजार चला गया। लौटनेपर गुरुने देखा कि शिष्य प्रचुर मात्रामें अनेक स्वादिष्ट मिष्टान्न लेकर लौटा है। गुरुने आश्चर्यसे पूछा तो शिष्यने बताया कि जहाँ वह पहुँचे हैं, वहाँ चाहे सूखी रोटी खरीदो, चाहे स्वादिष्ट मिष्टान्न-सभीका भाव एक है, इसीलिये मैं ये स्वादिष्ट मिष्टान्न ले आया हूँ। यह बात जानकर गुरु बहुत आश्चर्यमें पड़ गये। शिष्यने बताया कि इस नगरीके सम्बन्धमें लोग बताते हैं कि- ‘अंधेर नगरी चौपट राजा, टके सेर भाजी टके सेर खाजा।’ यहाँ भाजी (शाक-सब्जी) और खाजा (एक मिष्टान्न) दोनों एक ही भाव हैं। यह सब सुनकर गुरुजीने शिष्यसे कहा कि ‘यह स्थान रहनेयोग्य नहीं है। तुरंत यहाँसे अन्यत्र चल देना चाहिये।’ शिष्यको बहुत दिनतक सूखी रोटियाँ चबानेके पश्चात् स्वादिष्ट पकवानोंका आनन्द प्राप्त हुआ था। वैसे भी सब वस्तुओंका भाव एक-सा होनेमें उसे कोई विसंगति नहीं दिखायी दी, अतः वह वहीं रुक गया। गुरुजी जाते समय कह गये कि ‘कभी कोई बड़ी कठिनाई हो, तो याद कर लेना।’
शिष्य इस नयी नगरीमें नित्य प्रति मिष्टान्नोंका सेवन करता हुआ अत्यन्त हष्ट-पुष्ट हो गया। एक दिन नगरवासी एक व्यक्तिकी बकरी एक पड़ोसीकी दीवार गिरनेसे दबकर मर गयी। राजाके यहाँ मामला गया। राजाने न्याय करते हुए जानके बदले जानके आधारपर पड़ोसीको प्राणदण्ड दिया। किंतु न्यायिक प्रक्रियाके चलते एकके बाद एक आरोप लगाया जाने लगा। सबसे पहले पड़ोसीको, फिर दीवार बनानेवाले कारीगरको, फिर ईंटे जोड़नेवाले, मसालेका निर्माण करनेवाले मिस्त्रीको, फिर मसालेमें पानी डालनेवाले भिश्तीको, फिर मशक बनानेवालेको, फिर कसाईंको इस प्रकार आरोप प्रत्यारोप होते-होते अन्तमें जिस व्यक्तिको आरोपितकर प्राणदण्डके लिये भेजा गया-उसकी गरदन पतली थी. जो फाँसी के फंदेसे निकल जाती थी। अब मोटी गरदन ढूँढ़ते-ढूँढ़ते गुरुजीका शिष्य मिला, जो खा-पीकर खूब मोटा हो गया था। उसे फाँसी चढ़ाने लगे; क्योंकि उसकी गरदन फंदेमें सही बैठ रही थी।
शिष्यको अब गुरुकी चेतावनी याद आयी और अपनी नासमझीपर पश्चात्ताप भी हुआ। उसने गुरुको याद किया। सिद्ध गुरुने पहुँचकर सारी बात समझी तो प्राणदण्ड देनेवाले सैनिकोंसे उलझ गये कि ‘शिष्यको नहीं, पहले मुझे फाँसी चढ़ाओ।’ विवाद बढ़ा तो राजा वहाँ पहुँच गया। गुरुने बताया कि ‘मेँ इसलिये फाँसी चढ़ना चाहता हूँ कि इस मुहूर्तमें फाँसी चढ़नेसे स्वर्गका साम्राज्य प्राप्त होगा।’ राजाने कहा-‘मेरे रहते स्वर्गक साम्राज्यपर कोई अन्य अधिकार नहीं कर सकता।’ यह कहकर राजा फाँसी चढ़ गया।
इस प्रकार यह कथा यह बोध कराती है कि गुरु, माता, पिता, प्रभु इनके वचन हम कभी-कभी समझ नहीं पाते हैं, किंतु इनपर पूर्ण आस्था और विश्वास रखते हुए हमें उनका पालन करना चाहिये; क्योंकि अनुभवसिद्ध होनेके कारण अन्ततः वे हमारे लिये कल्याणप्रद ही सिद्ध होते हैं।
[ भारतेन्दु हरिश्चन्द्रकृत ‘अंधेर नगरी’ पर आश्रित ]

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